3/12/10

नाम के गांधी..

गांधी ने 1947 में कहा था कि कांग्रेस का काम पूरा हो चुका है, उसे भंग कर देना चाहिए। इसकी जगह लोकसेवक संघ बनना चाहिए। मगर नेहरू समेत दूसरे कांग्रेसियों को लगा कि गांधीजी सठिया गए हैं। जिस पार्टी ने उन्हें गुलामी के समंदर में नैया बनकर आजादी के तट पर उतारा, उसी को त्याग दें। उधर, गांधी की हत्या हुई और इधर, कांग्रेस गांधी के नाम पर कुंडली मारकर बैठ गई, ताकि उससे संजीवनी हासिल कर सके। पार्टी अब सत्ता सुख भोगना चाहती थी।

अगर कांग्रेस का मकसद सिर्फ जनसेवा होता, तो शायद उसे और 63 साल की जिंदगी हासिल न होती। विभिन्नताओं से भरे इस देश की जनता का ध्रुवीकरण कर उसे आजादी के रास्ते पर लाने वाले गांधी की सोच साफ थी। उनकी दृष्टि साफ थी कि अगर कांग्रेस बची, तो सत्ता उसे गंदे तालाब में बदल देगी। इसीलिए उन्होंने इसका रिप्लेसमेंट सोच लिया था।

कांग्रेस का लक्ष्य तो 1907 में ही तय हो गया था, जब वो नरम और गरम दल में टूटी थी। 1947 में वह वयोवृद्ध थी। इसलिए आज जिसे हम कांग्रेस के नाम से जानते हैं, वो सवा सौ साल का ऐसा संगठन है, जिसकी आत्मा निकल चुकी है और जिसे उसके कर्णधार आज तक ढो रहे हैं। यह वही कांग्रेस नहीं, जिसे एओ ह्यूम ने 1885 में इसलिए जन्म दिया था ताकि वह हिंदुस्तानियों के बीच प्रैशर कुकर का काम करे। उनके अंदर पनपने वाले गुस्से को बाहर निकलने का रास्ता दे। गोखले, तिलक और जिन्ना जैसे नेताओं ने इसका इस्तेमाल ब्रिटिशविरोधी भावनाओं के लिए किया था, जिसमें गांधी और बाद में नेहरू जैसे नेताओं ने अपनी आहुतियां डालीं।

आखिर यह वही पार्टी थी जिसने दो देशों की आजादी में अपनी भूमिका निभाई। अगर आप मौलाना अबुल कलाम आजाद की किताब इंडिया विंस फ्रीडम का हवाला लें, तो पता चलेगा कि आजादी के सेनानी इतने थके, अधीर और मायूस हो चुके थे कि अब वो इसका तुरंत प्रतिफल चाहते थे। उन्हें जल्द से जल्द सत्ता पर काबिज होने के सिवा कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। चाहे जिस कीमत पर मिले उन्हें फिरंगियों से मुक्ति पानी थी और फिरंगी हुकूमत भी इस बात को समझती थी। सत्ता की बागडोर ज्यादा वक्त तक थामे रखना उसके लिए भारी हो चुका था। इसलिए जब फिरंगी हुकूमत ने अपनी न्यायप्रियता का सबूत दो देशों को बांटकर दिया, तो अधीर कांग्रेसियों ने उसे भी मंजूर कर लिया, 35 करोड़ की आबादी के प्रतिनिधि के बतौर (ये विवाद का विषय है कि क्या कांग्रेस ही आजादी पाने की अकेली उत्तराधिकारी थी?)। 

कांग्रेसी मानते थे कि वही सत्ता के असल वारिस हैं। भरमाई जनता ने उस कांग्रेस को जनादेश दिया, जिसने आजादी की लड़ाई में भागीदारी की थी। उसे नहीं, जिसने देश का बंटवारा मंजूर कर लिया था। कोई विकल्प या रास्ता भी नहीं था। पार्टी के कर्णधार अच्छी तरह जानते थे कि वो इस विरासत को अगले कई सालों तक भुनाने में कामयाब रहेंगे और यही हुआ भी। 


कांग्रेस का चरित्र शुरू से ही मेट्रोपॉलिटन रहा। उसका सरोकार शहरी मध्यवर्ग था क्योंकि खुद कांग्रेस के पितामह नेहरू विदेशों में पले-बढ़े। हिंदुस्तान की मिट्टी से उनका कोई नाता न था। आजादी के बाद नेहरू का परिचय जिस हिंदुस्तान से हुआ, उसके लिए उनके पास शासन का कोई मॉडल नहीं था। मोहनदास करमचंद गांधी के सत्ताविकेंद्रित और खुदमुख्तारी के मॉडल पर वह देश को ले जाना नहीं चाहते थे। मगर गुलाम देश में गांधी कांग्रेस के लिए मजबूरी थे क्योंकि उनकी पकड़ हिंदुस्तान के ग्रामीण और शहरी समाज दोनों पर थी। लेकिन जैसे-जैसे कांग्रेस आजादी की तरफ बढ़ी, गांधी उसके लिए असंगत होते गए। क्योंकि वो कांग्रेस में पैदा हो रही सत्ताकेंद्रित सोच का समर्थन नहीं करते थे। फलत: आजादी से ऐन पहले पार्टी ने अपने नायक को बिसरा दिया। 

मगर गांधी नाम में बड़ा जादू था और कांग्रेस इसे नहीं बिसराना चाहती थी। इसलिए आजाद भारत में कांग्रेस ने गांधी को मंत्र बना लिया। हिंदुस्तानी कांग्रेस को गांधी की पार्टी की बतौर देखते थे। हालांकि ये बात अलग है कि गांधी कांग्रेस पार्टी की सदस्यता से 1934 में ही इस्तीफा दे चुके थे। इसी गांधी नाम के साथ राष्ट्रीयता और धर्मनिरपेक्षता का हवाला देकर कांग्रेस सफाई के साथ क्षेत्रीय आवाजें दबाने में कामयाब रही। इसलिए दशकों तक क्षेत्रीय सियासी पार्टियों का वजूद सिमटा रहा या न के बराबर रहा। कांग्रेस बहुमत एन्ज्वाय करती रही। सो, क्षेत्रीय दल काफी वक्त बाद नई दिल्ली के सियासी गलियारों में पहुंच सके। कांग्रेस की इसी चाल की वजह से क्षेत्रीय राजनीति जब केंद्र और राज्यों में पहुंची तो अपने वीभत्स रूप में, क्योंकि पहले उसका प्रतिनिधित्व नकार दिया गया था। इसीलिए आज क्षेत्रीयता राष्ट्रीयता से बदला चुका रही है, वो भी सिर्फ कांग्रेस की वजह से।

कांग्रेस नामक सत्तालोलुपों के गिरोह ने गांधी नाम का जमकर इस्तेमाल किया। बेशक ओरिजिनल गांधी से इस कांग्रेस का कोई ताल्लुक नहीं, लेकिन सिर्फ नाम का जादू देश को 40 साल तक घसीटता रहा। एक परिवार गांधी का नाम लेकर आगे खड़ा था और उसके पीछे थी पूरी पार्टी। इस परिवार की नींव में थे जवाहरलाल नेहरू जो उसी बरतानिया में पढ़े थे, जिसने देश को गुलाम बना रखा था। फिरंगियों से आजादी की सौदेबाजी में वो आगे रहे थे। इसीलिए जनता उन्हें आजादी के नायक के बतौर देखती आई थी।

नेहरू के बाद आननफानन में उनकी बेटी इंदिरा को नायकत्व सौंप दिया गया, क्योंकि नेहरू के बाद वही परिवार की सर्वेसर्वा थीं। उनके पिता ने अपने रहते उन्हें कुछ हद तक सियासत में दीक्षित किया था, लेकिन इंदिरा का भी सीधे जनता से कोई सरोकार नहीं था। उनके कार्यकाल को देखें तो लगता है कि मानो वो शासन के लिए ही पैदा हुई थीं। वही उन्होंने किया भी, इसीलिए 20वीं सदी की 100 सबसे ताकतवर नेताओं में उन्हें भी गिना जाता है। पिता के नाम और निरंकुशता की वजह से पूरी कांग्रेस उनके आगे पलक-पांवड़े बिछाए रही। मगर यही वो वक्त था, जब कांग्रेस की विरासत पर सवाल खड़े होने लगे थे। विकल्पों की मांग उठ रही थी, प्रयोग हो रहे थे, मगर तजुर्बा और रास्ता अब भी किसी के पास नहीं था। कांग्रेस यूं देश पर परिवार के शासन का हक छोड़ने को तैयार न थी और सत्ता छीनने की ताकत किसी में थी नहीं।

इंदिरा के बाद उनके दोनों बेटे गांधी के नाम और इस परिवार के करिश्मे को ज्यादा वक्त तक जिंदा नहीं रख सके। इसकी दो वजहें थीं। न तो वो अपने पूर्वजों की तरह उतने करिश्माई व्यक्तित्व के स्वामी थे और न वो क्षेत्रीयता का उभार रोकने में कामयाब थे। गांधी को गांधीवाद में बदलकर कोने में खिसका दिया गया। अपनी मां की मौत से मिली सहानुभूति लहर पर सवार होकर राजीव सत्ता में आए, मगर उन्हीं की पार्टी में परिवारविरोधी स्वर उठने लगे थे।

कांग्रेस का तिलिस्म बिखर गया था और नई दिल्ली की कुर्सी पर एक के बाद एक गैरकांग्रेसियों की ताजपोशी होने लगी। देश को पहली बार ये अहसास हुआ कि असल में उनके साथ धोखा हुआ था। एक परिवार और पार्टी को माई-बाप मानकर उसने भारी गलती की थी। सियासत की गंदगी गांधी नाम के कालीन के नीचे से बाहर निकल आई थी।

दुर्भाग्य इस परिवार को जकड़ चुका था। पहले नेहरू की बेटी, फिर नेहरू के दोनों पोते, नफरत और साजिशों के शिकार बन गए। पार्टी मातम में थी क्योंकि सत्ता के केंद्रों का विघटन हो चुका था। कोई सैकेंड लाइन नहीं थी। परिवार ने इसकी गुंजाइशें ही खत्म कर दी थीं (हालात आज भी वही हैं)। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की यह भी एक दिलचस्प हकीकत है कि ज्यों राजशाही में मुखिया के बाद उसके परिवार के सबसे बड़े सदस्य को सत्ता सौंपी जाती है, उसी तरह कांग्रेस में सत्ता का हस्तांतरण होता रहा। आखिर इंदिरा की बहू को राजसत्ता मिली, जिनका इस देश की भाषा और हिंदुस्तानी जनजीवन से कोई ताल्लुक नहीं रहा था। चूंकि पार्टी 1947 से लेकर आज तक राजवंशी ढांचे पर चली थी, इसलिए इस 'राजवंश' से बाहर किसी व्यक्ति पर भी पार्टी को भरोसा नहीं रहा। पार्टी को यहां तक भ्रम हो चुका है कि इस देश में जो कुछ अच्छा है, इस परिवार की बदौलत ही है। इसलिए परिवार और पार्टी एक दूसरे में इतना घुलमिल गए कि कांग्रेस का मतलब ही है गांधी परिवार (इसमें गांधी कितना फीसद है, ये आप जान ही गए होंगे)।


आज कांग्रेस सवा सौ साल की है। आजादी के बाद 63 साल और। तो कांग्रेस की विरासत क्या है? कैसे पहचानेंगे इसे आप? आजादी के बाद इस पार्टी ने देश को क्या दिया है? असल में, इस पार्टी ने देश को वो दिया है, जिसे शायद ही कोई नकार सके। मसलन.. एक नाम, 'नेता' जैसा जैनरिक और घृणित शब्द, सत्तालोलुपों का एक गिरोह, खुशामदपसंदों से घिरा एक परिवार, दो-तीन अदद पवित्र नाम (जिनमें से एक अब माता इंडिया कही जाती हैं) और इन नामों पर खड़ी इमारतें-सड़क-चौराहे, मुट्ठी में सत्ता दबोचकर रखने की हामी सोच, कुलीन-शहरी और अमीरी से भरपूर सियासत, जुर्म को पनाह देने वाला सियासी काडर, घोटालों से खोखला प्रशासन और इसे छिपाने के लिए नेहरू टोपी, खादी की जैकेट और सफेद कुर्ता-पाजामा। और चूंकि कांग्रेस आजाद भारत की तरक्की का सेहरा अपने सिर बांधती है, तो उसे ये सेहरा भी अपने सिर बांधना होगा कि उसका खमीर बाद में कांग्रेस से टूटी दूसरी पार्टियों ने जज्ब कर लिया।

इसीलिए व्यंग्यकार शरद जोशी जब कहते हैं कि असल में देश की हर पार्टी किसी न किसी रूप में कांग्रेस है, तो गलत नहीं कहते। सियासत के दांवपेच, सत्ता के औजार, उसकी खूबियां और खामियां इसी कांग्रेस ने आजाद हिंदुस्तान को दी हैं। इस मायने में सभी पार्टियां कांग्रेस की ऋणी हैं। अपने चरित्र में पूरी सियासत आज भी अंदर से कांग्रेसी है। इसीलिए उन्हें कांग्रेस का शुक्रगुजार होना चाहिए।

इस साल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को 125 साल हो रहे हैं। सवा सौ साल की इस पार्टी से आज आपको क्या उम्मीदें हैं। शायद कोई नहीं। ज्यादा से ज्यादा आप ये तमन्ना करेंगे कि सत्तालोलुपों और चाटुकारों का ये संगठन जल्द से जल्द सियासत के रंगमंच से विदा हो जाए।
और सवा सौ साल की कांग्रेस को खुद से क्या उम्मीदें हैं। यही कि वो उस खोई हुई विरासत को वापस पा ले, जिसके अब कई दावेदार हैं। उस गांधी नाम का करिश्मा फिर हासिल कर सके, जिसमें अब गांधीवादी भी भरोसा नहीं रखते। उस परिवार को फिर प्रतिष्ठित कर पाए, जिसकी नींव नेहरू ने रखी थी और जिसमें आज खुद कांग्रेसियों को भरोसा नहीं। सवा सौ साल की कांग्रेस आज अखिल भारतीय सत्ता के उपभोग का स्वप्न देख रही है, पर वो नहीं जानती कि 21वीं सदी के हिंदुस्तान में 1947 का करिश्मा लौटना आसान नहीं रह गया है।

22/11/10

बंदूक़

(2003 में ये कविता मेरे दोस्त मुकुल और मेरे बीच एक बहस के बाद सवाल-जवाब की शक्ल में लिखी गई थी..ज्यों का त्यों प्रस्तुत..ऊपर मेरे मित्र की राय है और नीचे मेरी..कह नहीं सकता कि आज मैं अपनी ही राय से कितना सहमत हूं..)

तुम जो मानते हो
बंदूक़ को पहला और आखिरी हथियार
तुम जो समझते हो
बंदूक़ को सारे सवालों का जवाब
तुम जो कहते हो
बंदूक़ को सारी समस्याओं का हल
मुझे बताओ
मुझे चाहिए प्रेम
वो तुम्हारी बंदूक़ से
कैसे हासिल हो सकता है.............................................................(मुकुल)

तुम सच कहते अगर
तुम कहते
बंदूक़ से निकलती है मानवता
तुम सच कहते अगर
तुम्हें मालूम होता
बंदूक़ से सीखा है दुनिया ने जीना
तुम सही सोचते अगर
तुम सोचते कि
बंदूक़ के बल पर
ज़िंदा है शांति
अगर तुम सोच पाते
बंदूक़ की वजह से है
व्यापार और तकनीक
बंदूक़ ने तय की हैं
राष्ट्रों की सीमाएं
सिखाया है आचार
कि कैसे न झुका जाए
जब दुश्मन अपनी हर ग़लत बात को
मनवाने को हो आमादा
कि कैसे पैंतरा लिया जाए
जब ज़ुल्म के महलों के आगे
बनानी हो मेहनत की झोंपड़ी
शायद तुम नहीं समझोगे
क्योंकि तुम पीड़ित हो
शांति की लाइलाज बीमारी से
मैं बताता हूं
ये बंदूक़ से निकलने वाली गंध ही है
जिसने सदियों को
समझदार बनाया है
बंदूक ने बदला है इतिहास
बंदूक़ की वजह से खिले हैं
रेगिस्तानों में फूल
बंदूक़ ने किया है
जमीनों को सरसब्ज़ और ज़रखेज़
ये लहलहाती फसलें
और गुनगुनाती नदियां
सभी बंदूक़ के बनाए रास्तों पर हैं
माफ़ करना मेरे दोस्त
आज तुम भूल गए हो कि
वक्त हमेशा उनकी सुनता है
जो खुद अपने मुहाफ़िज़ होते हैं..................................................(मैं)

13/7/10

वाद के खिलाफ, विचार के हक में..

कहीं पढ़ा था और बाद में कई विद्वानों से सुना भी कि आदमी अपनी जवानी में साम्यवादी होता है.. और अगर आप साम्यवादी नहीं हैं तो वो जवानी बेकार समझिए.. मैं शायद अपनी जवानी से पहले ही साम्यवाद की चपेट में आ गया था.. इस हद तक कि एक जमाने में मुझे उसमें दुनिया की हर मुश्किल का हल नजर आता था..और इस आसन्न लगने वाली क्रांति की हवाएं आती थीं सोवियत संघ और हिंदुस्तान के बीच समझौते की वजह से हासिल होने वाले सस्ती किताबों के जरिए..जो पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, रादुगा और मीर प्रकाशनों की ओर से मेरी मातृभाषा में मुझे मिलती थीं, बेहद सस्ते दामों पर..तब मैंने जाना कि मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन का हमारी दुनिया को समझने में क्या योगदान रहा है..माओ के बारे में मैंने जाना जरूर था लेकिन कुछ पढ़ा नहीं था.. साम्यवाद को जानने की चाह ने मुझे खुद खोजने और पढ़ने में दिलचस्पी जगाई..लेकिन मुझे साम्यवाद के राजनीतिक दर्शन से ज्यादा रुचि उस औजार में थी, जिसकी वजह से दुनिया को देखने का नजरिया बदलता था..जाहिरन ये औजार सत्तान्मुखी नहीं था..

कोई एक विचार सारी दुनिया के सारे लोगों पर कैसे लागू हो सकता है, यह बात मुझे कमअक्ली के उस दौर-दौरे में भी समझ आती थी.. आज तो मैं इसके खिलाफ ही हूं.. और यहां तक मान चुका हूं कि विचार चाहे जितना अच्छा क्यों न लगे, उसे सार्वभौमिक तौर पर लागू करना न केवल बेवकूफी है बल्कि इंसान को जन्मजात तौर पर मिली आजादी के खिलाफ है..खैर, उस वक्त ये ख्याल नहीं था..
तभी पूर्वी योरोप में हलचल शुरू हुईं थीं..ईस्टर्न ब्लॉक के देशों पॉलेंड और हंगरी ने सबसे पहले साम्यवाद का जुआ उतार फेंका.. फिर 1989 में रोमानिया में सेसेस्क्यू सरकार गिरी..बर्लिन की दीवार गिरी, चेकोस्लोवाकिया और बल्गारिया में साम्यवाद के खंभे ढहने शुरू हो गए.. अल्बानिया और यूगोस्लाविया ने 1990-91 के बीच साम्यवाद का दामन छोड़ दिया.. और पांच नए देश अस्तित्व में आए.. चीन के थियानानमेन चौक पर दुनिया ने कत्लेआम देखा..मुक्त विचारों के समर्थक छात्रों और उनकी समर्थक जनता का..चीन एक प्रायद्वीप बन चुका था, यह उसके कम्यूनिस्ट शासक जानते थे लेकिन कुबूल करने को तैयार न थे..इस कत्लेआम ने साम्यवाद के क्रूर चेहरे से पर्दा उठाया..दुनिया भर ने इसकी लानत-मलामत की.. यही वो वक्त था जब सोवियत संघ टूटा और 14 नए देश दुनिया के नक्शे पर आए.. दुनियाभर में इसकी गूंज इतनी तेज थी कि कंबोडिया, इथियोपिया और मंगोलिया ने साम्यवाद को तिलांजलि दे दी..जब दुश्मन ही न रहा तो युद्ध कैसा.. सो अमेरिकी ब्लॉक की तरफ से पूर्वी योरोप और सोवियत संघ के खिलाफ बरसों से जारी शीतयुद्ध भी खत्म हो गया...

मुझे अच्छी तरह याद है कि मिखाइल गोर्बाचेव ने सोवियत संघ में दो नारे दिए थे पेरेस्त्रोइका (आर्थिक सुधार) और ग्लासनोस्त (खुलापन).. काफी चर्चा थी उस वक्त..साम्यवादी सरकार के इतिहास में पहली बार एक से ज्यादा उम्मीदवारों के साथ कम्यूनिस्ट पार्टी में चुनाव हुआ था.. मगर सोवियत संघ में ही गोर्बाचेव को भारी दबाव का सामना करना पड़ रहा था..मिखाइल गोर्बाचेव अपने पूर्व योरोपियन साथी देशों को ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका अपनाने की सलाह दे रहे थे.. मगर उनके पूर्वी योरोपियन साथियों को यकीन था कि गोर्बाचेव की पेरेस्त्रोइका क्रांति कुछ ही दिन की मेहमान है..इसलिए वो सोवियत संघ स्टाइल के सर्वसत्तावादी तौर-तरीकों से ही शासन चला रहे थे.. लेकिन सोवियत संघ का साम्यवादी ढांचा अपने ही दबावों से टूट रहा था..इसी अफरातफरी में गोर्बाच्योव चले गए और उनके बाद आए उनके उत्तराधिकारी बोरिस येल्तसिन रूस को मुक्त बाजारवादी व्यवस्था देने का वायदा कर एक कदम आगे चले गए..रूस ने करीब 74 साल बाद दुनिया के लिए अपने दरवाजे खोल दिए थे..पर दुनिया ने जब इस घर के अंदर झांका तो वहां मिला टूटा-फूटा रूसी समाज.. ब्रेड के बदले जिस्म बेचती औरतें..झोलों में भरकर रूबल ले जाते और जेब में टमाटर लाते लोग.. मास्को की सड़कों पर लूटपाट और हत्याएं.. दूसरी तरफ धर्म की ताजपोशी.. सत्ताप्रहरी क्रैमलिन में कैथलिक चर्च का उद्घाटन..साम्यवादी लोहे के पंजे से अभी अभी मुक्त हुए समाज की तस्वीर थी ये..

पूर्वी योरोप और सोवियत संघ के बदले चेहरों ने दुनिया को दो हिस्सों में बांट दिया था.. ताकत के समीकरण बदल चुके थे..रूस और अमेरिका में केजीबी और सीआईए की कमानें बदल रही थीं.. दोनों तरफ के जासूस कुछ वक्त के लिए आराम करने भेज दिए गए थे.. पूंजीवाद जीत गया था और साम्यवाद बेमौत मरता दिख रहा था.. पूर्वी योरोप और रूस दोनों बाजार मांग रहे थे.. इसकी गूंज विकसित देशों के साथ विकासशील देशों तक जा पहुंची थी..जब सत्ता के इतने बड़े समीकरण बन-बिगड़ रहे हों तो हिंदुस्तान जैसे विकासशील देश की इनके सामने क्या अहमियत थी.. उदारीकरण अब मूलमंत्र बन चुका था..और वही सत्ता संचालकों की कामयाबी का सबसे बड़ा पैमाना था..साम्यवादी सत्ताओं का पतन जरूर हो गया था लेकिन अभी प्रतिरोध खत्म नहीं हुआ था..
साम्यवाद अपने मूल में ही अपनी कमजोरियां छिपाए बैठा था..इसलिए उसका पतन हुआ.. जर्मनी की जिस जमीन में वह बीज पड़ा था, वहां वह पौधा ही बना था कि उसे उखाड़कर रूस ले जाया गया.. बाद में जिस-जिस जमीन पर उसे बोया गया, हमेशा उसे अपनी मूल धरती की खाद की जरूरत पड़ती रही..किसी भी जगह वह प्राकृतिक रूप में विकसित नहीं हुआ..न वो पला, न बढ़ा..हां, जबरन इसकी कोशिशें की गईं, लेकिन वो सभी नाकाम रहीं... पिछले डेढ़ सौ साल का इतिहास इसका गवाह है.. इसलिए जब-जब विदेशी खाद-पानी की कमी हुई..साम्यवाद का पौधा मुरझा गया..चाहे वह रूस, चीन, क्यूबा, उत्तरी कोरिया, लाओस, वियेतनाम, कंबोडिया, अंगोला, मोज़ांबीक हों या फिर पूर्वी योरोप में बल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, पूर्वी जर्मनी, पॉलैंड, हंगरी और रूमानिया.. योरोप को छोड़कर साम्यवाद कहीं भी स्थानीय भाषा-संस्कृति, रहन-सहन से तालमेल नहीं बैठा सका..यही नहीं, हजारों साल से इंसान के नियामक और उसके सबसे बड़े अंतर्प्रवाह (अंडरकरेंट) धर्म का उसने न केवल खुला विरोध किया, बल्कि स्थानीय धर्मों का सबसे बड़ा दुश्मन बनकर उभरा..चाहे धर्म जितना कड़वा, झूठा, फरेबी और उबाऊ क्यों न रहा हो, इंसान को इस अफीम की जरूरत थी और आज और भी ज्यादा है.. इसलिए साम्यवादी दर्शन और राजनीति स्थानीय धर्मों से हार गए..

साम्यवाद हार गया था लेकिन साम्यवादी नहीं.. आज भी नहीं हारे हैं..क्योंकि उन्हें यकीन है कि एक दिन मार्क्स-एंगेल्स-लैनिन-माओ के विचारों की ही सत्ता स्थापित होनी है..मगर मार्क्स का पूंजीवाद जिस खुले समाज और फैलती हुई दुनिया की तरफ हमें ले जा रहा है, वहां साम्यवाद के लिए गुंजाइशें कम होती जा रही हैं..अब साम्यवादी कोई ग्लोबल लड़ाई लड़ने के हक में नहीं है..अब वो बस छोटे-छोटे प्रतिरोधों में जीवित है.. इसका नमूना है हिंदुस्तान, नेपाल, म्यानमार जैसे तीसरी दुनिया के देश.. साम्यवाद की दूसरी शक्ल है सरकार प्रायोजित साम्यवादी बाजारवादी व्यवस्थाएं, जिनमें साम्यवाद को कम बाजार को ज्यादा पोषित किया जाता है..

साम्यवाद की सबसे बुरी बात थी..इसका राजनीतिक एजेंडा..मार्क्स ने पहले इसे आर्थिक विषमताओं के उन्मूलन के औजार की तरह देखा था.. बाद में उन्होंने इसका राजनीतिक दर्शन खड़ा किया..उनकी खुद की भविष्यवाणी भी गलत साबित हुई जब जर्मनी के बजाय रूस ने इसे लागू किया.. जाहिर है यह दमन से ही संभव हो सका था.. चीन ने भी इसी प्रयोग को दोहराया और वहां भी दमन को हथियार बनाया गया.. सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर चीन के समृद्ध इतिहास को मिटाया गया..यह एक महान विचार की हार थी.. क्योंकि इसे जबरन इंसान पर थोपा जा रहा था..

साम्यवाद के जन्म को 162 साल बीत चुके हैं और मृत्यु को 19 (अगर तकनीकी तौर पर सोवियत संघ के विघटन को आप प्रतीक की तरह देखें तो).. लेकिन दुनियाभर के साहित्य और मीडिया के हर प्लेटफॉर्म पर अभी तक साम्यवाद का मर्सिया पढ़ा जा रहा है.. साम्यवाद के रुदनगीत तकरीबन रोज हमारे कानों तक पहुंचते हैं.. नेपाल से लेकर भारत के अंदर तक माओवाद की छटपटाहट इसके जरिए सत्ता हासिल करने में है..न कि मानवता की मुश्किलों का हल ढूंढने में..होना तो ये चाहिए था कि मार्क्स-एंगेल्स के विचारों पर आगे काम होता और उन्हें शोधविषय की तरह देखा जाता.. उन्नत तकनीकी और ग्लोबलाइजेशन के वक्त में इसकी और सूक्ष्म मीमांसा होती.. इसकी उपादेयता की जांच-परख होती, इसे सामयिक बनाने की कोशिशें होतीं.. मगर ये हुआ नहीं... सत्ता के लालचियों ने इसे सियासी और अब आतंकी हथियार की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है.. मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन के बाद माओ वाद की ईश्वरीय उवाच की तरह पूजा-अर्चना की जा रही है.. माओ के विचारों में उग्रता ज्यादा थी, इसलिए आतंकवाद के लिए इसका दामन थामना आसान था.. इसलिए अब साम्यवाद का दूसरा नाम है आतंकवाद..

मुझे उम्मीद है कि अब नौजवान साम्यवादी नहीं होते.. अब अगर वो जवानी में साम्यवाद के बारे में नहीं जानते तो उनकी जवानी ज़ाया नहीं मानी जाती..हां, अगर वो पूंजीवाद की कुचालों को नहीं समझते तो जरूर उनकी जवानी बेकार मानी जाती है.. इसलिए मेरे ख्याल में साम्यवादी होना कोई अच्छी बात नहीं..इसके लिए जवानी बर्बाद करना ठीक नहीं..फिर भी दर्शन का ये औजार भोंथरा नहीं है.. अगर चाहें तो इससे दुनिया को तराशा जाना मुमकिन है..

22/3/10

नरक को भी चाहिए नायक!!

जब आप द हर्ट लॉकर देख रहे हों तो ख्याल रहे कि ये कोई वॉर मूवी नहीं, न किसी आम युद्ध की कहानी है.. ये कहानी है दुनिया के तकरीबन सभी देशों में चल रहे छोटे-छोटे युद्धों की..जो रोज़ इराक, अफगानिस्तान और कश्मीर की डेटलाइनों से आपकी नजरों के सामने से गुजरती हैं..जहां शायद मौत और जिंदगी एक दूसरे के सबसे करीब हैं.. कैथरीन बिगेलो की कामयाबी ये है कि वो मौत के खिलाफ संघर्ष में डूबी इस जिंदगी का एक हिस्सा आप तक पहुंचा पाई हैं.. और शायद इसका सबसे बड़ा कारण है एक पत्रकार की आंख.. जो फिल्मकार की तरह सच को टेंटेड ग्लास से नहीं देखती.. यानी द हर्ट लॉकर दरअसल कैथरीन बिगेलो की नहीं जितनी मार्क बोआल की कामयाबी है..

पत्रकार से स्क्रिप्टराइटर बने मार्क बोआल कुछ साल पहले इराक में अमेरिकी सैनिकों के दस्ते के साथ गए थे.. यहां अपने खौफनाक तजुर्बे ने उन्हें इसे फिल्म स्क्रिप्ट में तब्दील करने की प्रेरणा दी..इसलिए मार्क बोआल का उगला सच काफी कच्चा है.. एकदम असली और काफी करीब से देखा गया..

द हर्ट लॉकर इराक में तैनात अमेरिकी सैनिकों के जरिए बदले हुए युद्धक्षेत्रों और इस लड़ाई को लड़ने वाले एक पक्ष की बदली हुई मानसिकता बताती है.. वो लोग जो इस दुनिया में सबसे खतरनाक काम को अंजाम दे रहे हैं.. इस गैररस्मी युद्ध के बीचोबीच वो मौत के परवाने बमों को खोज रहे हैं और उन्हें डिफ्यूज करने में जुटे हैं.. और खास बात ये सैनिक उस देश में लड़ रहे हैं, जहां उन्हें स्थानीय समर्थन हासिल नहीं.. इसीलिए द हर्ट लॉकर ऐसे आम इराकी चश्मदीदों की तस्वीर भी खींचती है, जिन्हें अपनी जमीन पर हो रहे मौत के नाच से कोई सरोकार नहीं लगता..वो आपको कई सीन में एकदम निर्लिप्त दिखेंगे, जिन्हें अमेरिकी बम निरोधक दस्ते से कोई हमदर्दी नहीं है..उनकी कार्रवाइयों को लेकर वो खामोश हैं या उनके खिलाफ खड़े नजर आते हैं.. वो महज तमाशबीन चेहरों की तरह पेश किए गए हैं या खौफजदा लोगों की तरह.. फिल्म के किरदार उनसे संवाद नहीं करते..

फिल्म में कोई सैनिक अपने मुंह से किसी तरह की राजनीतिक बयानबाजी नहीं करता..इस बात को प्रचारित भी किया गया है कि कैथरीन बिगेलो और मार्क बोआल ने कहीं भी किसी तरह के राजनीतिक झुकाव को फिल्म में नहीं आने दिया है.. हालांकि फिल्म के ट्रीटमेंट में ये चीजें झलक ही गई हैं..

बम निरोधक दस्ते का नया सार्जेंट जेम्स अपने काम के खतरों से बिल्कुल बेपरवाह है और ये बात उसके दोनों साथियों सैनबॉर्न और एलरिज को पचती नहीं.. जो बम डिफ्यूज करने के दौरान उसे कवर देते हैं.. जेम्स का एक और चेहरा भी है उसकी बीवी और बच्चा जिन्हें छोड़कर वो जंग के मैदान में खड़ा है.. लेकिन वो उनका ख्याल अपने ऊपर हावी नहीं होने देता.. जबकि खतरनाक स्नाइपर एलरिज के सब्र का बांध एक दिन टूट जाता है..

हो सकता है कि द हर्ट लॉकर कुछ साल बाद एक दस्तावेज की तरह देखी जाए..जो शायद ये बात सबसे अच्छे ढंग से बता सकेगी कि इराक में अमेरिकी मौजूदगी कितनी खतरनाक साबित हुई थी..लेकिन अगर कोई इसमें आइडियोलॉजी खोजना चाहे तो वो नहीं मिलेगी..दूसरी बात, ये फिल्म जंग की मौजूदा शक्ल पर पहले दर्जे का अध्ययन मैटीरियल उपलब्ध कराएगी. आप ये भी कह सकते हैं िक द हर्ट लॉकर में उन कई सालों का परिप्रेक्ष्य शामिल है, जिन्हें अभी अमेरिका और दुनिया के लिए गुजरना बाकी है.. शायद सच को वक्त से पहले दर्ज करा पाने में फिल्म कामयाब मानी जा सकती है..

हॉलीवुड के इराक से वहां मौजूद सैनिकों की रोजमर्रा जिंदगी, उनकी तनावपूर्ण हकीकत और मुश्किलें अब तक सामने नहीं आई थीं, लेकिन द हर्ट लॉकर इन्हें एकदम केंद्र में ले आई है..इसलिए अगर फिल्म का मूड आपको बेहद खराब लगता है, तो इसमें कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि युद्ध हमेशा ही ऐसा होता है..एक नरक की तरह.. लगातार तनाव से भरे 130 मिनट में हो सकता है कि आप पूरी फिल्म न देखना चाहें..लेकिन यही इसकी कामयाबी भी है.. दुनिया के बहुत से देश जहां अब आमने सामने की लड़ाई नहीं होती..हमले घात लगाकर िकए जाते हैं, वहां कोई दूसरा विकल्प नहीं है..आप जंग के इस माहौल के बीच जश्न नहीं मना सकते, आराम नहीं कर सकते..

द हर्ट लॉकर के साथ एक दिक्कत भी है.. फिल्म अपने हर सीन में काफी परफेक्ट लगती है.. खूबसूरती से बुने गए मूवमेंट्स, लेकिन पूरी फिल्म आपको अचानक अधूरेपन के साथ छोड़ देती है.. कैथरीन बिगेलो शायद जानती हैं कि इस लड़ाई का कोई अंत नहीं, इसलिए एक बटालियन से दूसरी बटालियन तक जेम्स आते रहेंगे और अपना काम करके इराक से वापस जाते रहेंगे.. चाहे अपने कदमों पर या ताबूत में..

फिल्म शुरू होती है स्क्रीन पर आने वाली एक लाइन से - "The rush of battle is a potent and often lethal addiction, for war is a drug.".. और कैथरीन बिगेलो ने फिल्म के अंत में इस लाइन को सार्थक कर दिया है.. पूरी फिल्म एक बटालियन के इर्दगिर्द घूमती है.. कुछ मौकों को छोड़कर फिल्म बटालियन के सैनिकों की मानसिक अवस्था से भी ज्यादा नहीं जूझती.. कैथरीन ने इस बात का ख्याल रखा है कि वो बटालियन की कार्रवाइयों तक ही सीमित रहें..उनका मकसद है कि बम निरोधी दस्ते को जो काम मिला है, वह उसे बखूबी अंजाम दे रहा है..बम खोजना और उन्हें डिफ्यूज करना उसका नशा है..उसके िलए वॉर इज़ अ ड्रग.. यही बात फिल्म डायरेक्टर का मिशन स्टेटमेंट भी है - इराक में अमेरिकी सैनिक अपना काम बखूबी अंजाम दे रहे हैं, क्योंकि उनके लिए वहां लड़ना उनका एक काम है..कुछ हद तक मशीनी अंदाज़ में.. वो मानवता, राजनीति, समाज और युद्ध के गंभीर सवालों से जानबूझकर कन्नी काट गई हैं..

इराक के राजनीतिक पक्ष, आम जिंदगी और समाज को पूरी तरह दूसरी फिल्मों के लिए छोड़ दिया गया है.. इस नजरिए से ये फिल्म अधूरी लगती है.. तो क्या ऑस्कर में इतनी अधूरी फिल्म को सबसे बेहतरीन फिल्म का दर्जा मिलना उचित लगता है.. मुमकिन है कि कैथरीन बिगेलो के पूर्व पति जेम्स कैमरॉन की फिल्म अवतार समेत इस साल कोई इतनी ताकतवर फिल्म न हो, जो एकेडमी की जूरी को जंची हो..ज़ाहिर है ऐसे में अमेरिकी राष्ट्रवाद के अंश को नवाज़ना उसे आसान लगा होगा.. खुद जेम्स कैमरॉन ने भी यही बात कही थी..

जेरेमी रेनर एक दशक तक सहायक किरदार करते रहे हैं, लेकिन द हर्ट लॉकर में उनके लीड किरदार ने उन्हें एकदम सबसे अलग खड़ा कर दिया है..अब तक उनकी छवि गंदे किरदार करने वाले अभिनेता की रही थी.. द हर्ट लॉकर के शूट पर ४९ डिग्री की गर्मी में ८५ पाउंड का बॉम्ब िडफ्यूजल सूट पहनना कोई आसान काम नहीं था.. रेनर का कहना था कि इस किरदार ने उन्हें अंदर तक बदलकर रख दिया है..

२००७ में फिल्म की शूटिंग हुई और २००८ में इसे इटली के थियेटरों में रिलीज किया गया..जून २००९ में ये अमेरिका पहुंची और इसके बाद २०१० में इसने ऑस्कर के लिए अपनी दावेदारी पेश की..९ अकेडमी अवॉर्ड्स में नामित होने के बाद इसे इस साल ६ अवॉर्ड्स मिले..और इसने अरबों डॉलर से बनी तकनीकी तौर से बेहद उन्नत फिल्म अवतार को पछाड़ दिया..एक रिकॉर्ड ये भी बना कि पहली बार एक महिला डायरेक्टर को ऑस्कर में सर्वश्रेष्ठ डायरेक्टर का सम्मान मिला.. किसी महिला ने पहली बार वॉर मूवी जॉनर में कदम रखा था..

अगर साफ कहें तो मार्क बोआल की कलम से निकली ये फिल्म दरअसल एक डॉक्यूड्रामा है, जो महज एक बटालियन की कहानी होने के बावजूद अपने थ्रिलिंग अनुभवों की वजह से आपको बांध लेने में कामयाब रहेगी.. और ये फिल्म देखने से लगता है कि अगर जंग इतनी खतरनाक और क्रूर है, नरक के बराबर है, तो दरअसल वहां भी नायकों की जरूरत है..

26/2/10

फिल्म है या ये ढोलक है..

ओमकारा की दूर की रिश्तेदार इश्किया आपको याद रहेगी पर फिल्म के बतौर नहीं, कुछ सीनों में, गुलजार के लिखे एक गाने में। यकीनन अभिषेक चौबे के लिए अपने गुरु विशाल भारद्वाज के सामने उत्तर प्रदेश की सैटिंग्स वाले इलाके को बैकग्राउंड बनाना चुनौती रही होगी। अभिषेक ने एक तेज रफ्तार के लाइट कॉमेडी थ्रिलर के साथ फिल्म इंडस्ट्री में कदम तो रखा, मगर विशाल की ओमकारा का नया अवतार पैदा करने में नाकामयाब रहे।

इश्किया में फिल्मी ड्रामा है, पर अर्थहीन, जिसका न कोई ओर है और न छोर। चुटीले संवाद हैं, मगर इन संवादों को पृष्ठभूमि का सपोर्ट हासिल नहीं है। तेज रफ्तार घटनाएं एक के बाद एक आपकी आंखों के सामने से गुजरती दिखती हैं, लेकिन आपको पकड़ती नहीं। हर घटना एक कहानी कहती लगती है, मगर पूरी फिल्म खुद में कोई मुकम्मल कहानी नहीं कहती। हां, अगर अब किसी फिल्म में कहानी की जरूरत नहीं तो फिर इसे आप दूसरे नजरिए से देख सकते हैं।

इश्किया की कोई मंजिल नहीं, उसी तरह जैसे फिल्म की हीरोइन विद्या बालन की पूरी फिल्म में कोई मंजिल नहीं। दरअसल, फिल्म का कोई किरदार अपने सफर पर भी नहीं दिखता यानी वह पूरी तरह विकसित नहीं हो पाता। लगता है कि फिल्म विद्या बालन के ग्लैमर को स्थापित करने और उनकी परिणीता इमेज को तोड़ने के लिए तैयार की गई है। डायरेक्टर ने विद्या की खूबसूरती फिल्माने के लिए कैमरे को जितनी जुंबिश दी है, उससे कृष्णा का चरित्र कतई छाप नहीं छोड़ पाता। न तो वह गॉड मदर बन पाईं और न विद्याधर वर्मा की बीवी कृष्णा। कृष्णा सिर्फ आवेगों के आधार पर काम कर रही है। उसकी मन:स्थिति क्या है और वह असल में क्या चाहती है, इसका आप आखिर तक पता नहीं लगा सकेंगे। एक अधूरा किरदार।

फिल्म का कोई नायक नहीं है। खैर, जरूरी नहीं कि फिल्म में नायक हो ही। मगर इसकी जरूरत वहां जरूर दिखती है जहां नायिका भी न हो। नसीर और अरशद वारसी के जो किरदार हैं, वह नायक की जरूरत पूरी करने को नहीं रखे गए हैं, हालांकि हैं काफी सशक्त। नसीर को जो किरदार मिला है, वह उसे बेहद कम वक्त में भी खोलकर रखने में कामयाब रहे हैं लेकिन अरशद का किरदार कहीं भी पूरी तरह विकसित नहीं हो सका। हालांकि अरशद को जो समय मिला, उसमें उन्होंने इसकी भरसक कोशिश की।

फिल्म आपको किसी भी किरदार का अतीत जानने का मौका नहीं देगी। इन चरित्रों के बारे में आप उतना ही जानते हैं जितना खुद फिल्म का स्क्रिप्टराइटर। ये सभी किरदार क्यों हैं और क्यों वही सब करते दिखाए गए हैं, इसका मतलब ढूंढने की कतई कोशिश न करें। वो बस हैं, क्योंकि उन्हें इस फिल्म के उन कुछ खास प्लॉट्स में होना ही था। हालांकि इस बात को इश्किया के चाहने वाले कुछ यूं पेश करते हैं कि जितना करेक्टर को खोलने की जरूरत है, उतना ही उसे दिखाया किया गया है। बेवजह उसके इतिहास-भूगोल की पड़ताल नहीं की गई है। तो क्या किसी खास चरित्र के होने के लिए किसी रेफरेंस की जरूरत भी नहीं। हो सकता है कि अभिषेक चौबे मंडली को इसकी जरूरत न महसूस हुई हो।

फिल्म में न तो उत्तर प्रदेश का गोरखपुर इलाका इस्टेब्लिश होता है, न सेनाएं बनाने की वजह, न हथियारों की सप्लाई के पीछे कारण पता चलते हैं। भोपाली-गोरखपुरी अंदाज के संवाद डालकर पूर्वी उत्तर प्रदेश को छूने की कोशिश जरूर की गई है।

डायरेक्टर अभिषेक चौबे ने अपनी डायरेक्टोरियल पारी की शुरुआत के लिए एक मजबूत फिल्म चुनी, पर अपने तमाम इंटेलेक्चुअलिज्म में फिल्म ही मिस हो गई। उनके पास कथ्य तो था पर कथानक नहीं, मध्य है लेकिन कोई सुनिश्चित अंत नहीं। हॉलीवुड फिल्मों के अनप्रिडेक्टेबल सीक्वेंस को ओढ़ने का प्रयास भी आपको दिखेगा। मगर पूरी फिल्म अपने दर्शकों से क्या कहना चाहती है, उन्हें कहां ले जाना चाहती है, समझना कुछ मुश्किल होगा। सीन तेजी से उलटते-पलटते हैं, इसलिए उनमें रफ्तार तो है लेकिन उनका मकसद दर्शकों को चौंकाना भर है। इसलिए फिल्म एक किस्म की असंतुष्टि का अहसास कराती है अंत में। हां, तकनीकी तौर पर फिल्म काफी मजबूत है। कैमरा ऐंगिल्स की आपको तारीफ करनी पड़ेगी।

इश्किया को देखें तो एक बात जरूर महसूस होगी, अगर आप सिर्फ तमाशा देखने गए हैं तो समझिए पैसे वसूल। रफ्तार, सुंदर कैमरा, अरशद-विद्या लवमेकिंग सीन, दो अच्छे गाने..ये सारी चीजें वहां हैं। बस नहीं है तो वजह कि ये फिल्म बनाई क्यों गई (इसका जवाब आपको खुद पाना है)।

10/2/10

एक भाषा की मौत!


जिस दिन हिंदुस्तान गणतंत्र की 60वीं सालगिरह मना रहा था, उसी दिन दुनिया की एक बेहद दुर्लभ भाषा दम तोड़ रही थी, हिंदुस्तान में - बो। बो भाषा की आखिरी जानकार की मौत हो गई। 85 साल की बोआ सीनियर अंडमान द्वीप समूह में रहती थी और उसी के साथ वह भाषा भी खत्म हो गई, जिसे दुनिया की ऐसी ढाई हजार भाषाओं में से एक गिना जा रहा था, जो खत्म होने के कगार पर हैं।

इंसानी तरक्की और संस्कृति में रुचि रखने वालों के लिए बोआ सीनियर की मौत काफी दुखद है। अब इस भाषा का आखिरी सबूत अगर बचा है तो वह बीबीसी और सीएनएन के पास है- एक ऑडियो फाइल के रूप में, जिसमें इस भाषा के कुछ शब्दों का मतलब और संवाद अदायगी के स्टाइल का पता चलता है।

बोआ सीनियर अंडमानीज जनजातियों में काफी बूढ़ी महिला थी, जिनके जिंदा होने से यह भाषा भी जिंदा थी। करीब 30 से 40 साल पहले बोआ के माता-पिता की मौत हो गई थी, और उनके बाद वह दुनियाभर में अकेली थीं जो इस भाषा को जानती थीं। बोआ सीनियर अकेली रहा करती थीं और चूंकि उनकी भाषा कोई नहीं समझता था, इसलिए उन्होंने अपने आसपास लोगों से बात करने के लिए अंडमानीज हिंदी की एक बोली सीख ली थी। बोआ सीनियर ने दिसंबर 2004 की सुनामी भी झेली थी। लोग उन्हें एक हंसमुख और बेहद खुशमिजाज महिला के बतौर जानते थे, लेकिन अब न बोआ सीनियर हैं और न वो जुबान जिसे वह अपने साथ ले गईं।

भाषा वैज्ञानिकों की राय में अंडमान की ज्यादातर बोलियों और भाषाओं का ताल्लुक अफ्रीका से है। और बो भाषा भी अफ्रीका से संबंधित है। सर्वाइवल इंटरनेशनल के मुताबिक बो जनजाति अंडमान में पिछले 65 हजार साल से रह रही थी। बोआ सीनियर के बाद अब इस जनजाति का कोई सदस्य नहीं बचा है। अगर देखें तो बोआ सीनियर की मौत ने 60 हजार साल पुरानी एक संस्कृति की कड़ी तोड़ दी है। ओरांव समुदाय की मधु बागानियार ने बो भाषा की मौत को हिंदुस्तान की दूसरी आदिवासी भाषाओं के लिए खतरे की घंटी बताया है। बोआ सीनियर और उनकी ज़बान बो की मौत से लगता है कि इंसान की सामूहिक स्मृति के एक अंश का लोप हो गया है।

बो भाषा की मौत ने कुछ भविष्यवाणियों को एक बार फिर ताजा किया है। 1992 में एक अमेरिकी भाषाशास्त्री ने कहा था कि 2100 तक दुनियाभर की 90 फीसदी भाषाएं समाप्त हो जाएंगी और साढ़े 6 हजार भाषाओं में से तकरीबन 3000 केवल 100 सालों में मर जाएंगी।

समाजशास्त्रियों को लगता है कि अगर संस्कृति के हिस्सों को जिंदा रहना है तो भाषाओं को जिंदा रखना होगा। अगर 19वीं सदी के आखिर में तकरीबन मर चुकी हिब्रू भाषा को आम बोलचाल की भाषा बनाने के लिए इजरायल के यहूदियों ने पूरी ताकत झोंक दी, अगर इंग्लैंड में वैल्श और न्यूजीलैंड में माओरी का पुनर्जागरण हो सकता है तो मरने के कगार पर जा रही दूसरी भाषाओं का क्यों नहीं। क्या हिंदुस्तान की आदिवासी जनभाषाएं ज़िंदा रहेंगी? बहुत मुश्किल नजर आती है ये बात क्योंकि अंग्रेजों की तरह हिंदुस्तान की सरकार भी आदिवासियों को 'सभ्य' बनाने में जुटी है।

एक ज़बान की मौत एक नस्ल की मौत की तरह है, ग्लोबल गांव बन रही दुनिया में क्या हमें उन्हें जिंदा रखने में उतनी ही दिलचस्पी है जितनी अपनी नस्ल को। शायद नहीं। कुछ लोग कहेंगे कि अगर एक ज़बान मर भी जाएगी तो क्या हुआ..इतिहास ही तो खत्म होगा..और फिर इंसान जब सूरज और चांद पर बस्तियां बसाएगा तो वहां हम अलग-अलग भाषाएं तो बोलेंगे नहीं। ऐसे में अगर एक भाषा खत्म भी हो गई तो क्या फर्क पड़ता है। तो क्या हम अब शॉर्ट मैसेज टैक्स्ट से आपस में बात करेंगे? हो सकता है। बहुत मुमकिन है कि बो ज़बान की मौत से हम कोई सबक न लें। क्योंकि संकेतों में बात कहने से लेकर भाषा का विकास करने के बाद एक बार फिर इंसान संकेतों में बात करना सीख रहा है। बाइनरी दुनिया में सुसंस्कृत भाषा संवाद के लिए जरूरी औज़ार नहीं है। और बो अगर मरी है तो इसलिए क्योंकि वह बाजार की भाषा नहीं थी।

3/2/10

हिंदी में 'दुर्व्यवहार'

हमारी हिंदी कितनी संपन्न भाषा है.. इसकी बानगी देखिए जरा.. सिर्फ एक शब्द के जरिए आपको इसकी ताकत का पता चल जाएगा.. दुर्व्यवहार.. मीडिया ने इस शब्द की ताकत को दोबाला कर दिया है.. आप पूछ सकते हैं कैसे.. हम बताते हैं..

अगर आपके मुंह पर किसी ने घूंसा चलाया और आपका दांत टूट गया है तो ये दुर्व्यवहार है..किसी ने सदन में आपसे मारपीट की है तो ये दुर्व्यवहार है.. सड़क पर आपकी गाड़ी रोककर कोई आपको घसीटता और मारता पीटता है, तो ये भी दुर्व्यवहार है.. अगर किसी ने चलती बस में महिला से छेड़खानी की, तो ये भी दुर्व्यवहार है.. यहां तक कि अगर कोई महिला से बलात्कार कर देता है तो ये भी दुर्व्यवहार ही होगा..

अगर आप कोई अखबार नहीं पढ़ते और न ही टीवी देखते हैं तो बस गूगल बाबा में जाकर ये शब्द टाइप करें - 'से दुर्व्यवहार'.. गूगल आपके सामने 1 लाख 68 हजार पन्ने खोलेगा.. जिनमें पहली खबर है - अनगड़ा में युवतियों से दुर्व्यवहार..शिक्षक पर छात्रा से दुर्व्यवहार का आरोप.. पर्यटकों से दुर्व्यवहार.. कैदियों से दुर्व्यवहार, पाक में भारतीय पत्रकारों से दुर्व्यवहार, दरभंगा में मीडियाकर्मियों से दुर्व्यवहार.. महिला से दुर्व्यवहार मामले में.. मेरे ख्याल में हर वह पाठक जो 18 साल से ज्यादा उम्र का है अच्छी तरह जानता है कि महिलाओं से दुर्व्यवहार में क्या किया गया, कैदियों और पर्यटकों से दुर्व्यवहार कैसे किया गया.. भारतीय पत्रकारों के साथ क्या सुलूक किया गया.. मीडियाकर्मियों के साथ क्या व्यवहार किया गया.. (ये सारे परिणाम 2 फरवरी 2010 की रात 11.30 बजे के हैं)

मगर इन सभी दुर्व्यवहारों को मीडिया में उन अपराधों का नाम नहीं दिया गया.. जिन्हें हर पीड़ित ने अपनी पुलिस रिपोर्ट में जरूरी तौर पर लिखवाया था.. क्यों..

इसका मतलब ये है कि आपके जिस्म और दिलोदिमाग पर होने वाले तमाम हमले और आपकी इज्जत-अस्मिता से खिलवाड़ सभी हिंदी मीडिया की नजर में 'दुर्व्यवहार' की कैटेगरी में आते हैं.. हालांकि अभी तक मुझे आईपीसी में ऐसे 'दुर्व्यवहार' का कोई कानून नहीं मिला है, पर तलाश जारी है..

सवाल ये है कि आखिर 'दुर्व्यवहार' करने वाले हैं कौन..भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी की नजर में ऐसे लोग कहीं नहीं होते, जो दुर्व्यवहार करते हों..क्योंकि 'दुर्व्यवहार' जैसे कम इंटेंसिटी वाले काम करने वाले कभी क्रिमिनल नहीं हो सकते.. (ऐसा मेरा नहीं, व्यावहारिक तौर पर भारतीय दंड कानून का मानना है) और फिर ऐसे लोगों को जिनके खिलाफ कोई सबूत ही न हो, आईपीसी कोई तवज्जो नहीं देती.. हां अगर आप इस 'दुर्व्यवहार' को ज्यादा तूल देंगे तो पुलिस उन लोगों के खिलाफ केस तो दर्ज कर लेगी, पर करेगी कुछ नहीं... वह अच्छी तरह जानती है कि 'दुर्व्यवहार' की शिकायत लेकर पहुंचे लोग मक्कार हैं.. और ये केस को कोर्ट तक ले जाने के भी इच्छुक नहीं.. इसलिए ज्यादा दिमाग खपाने की जरूरत नहीं..

तो क्या सचमुच ऊपर बताए गए दुर्व्यवहारों में कोई 'दुर्व्यवहार' अपराध की कोटि में नहीं आता.. क्या 'दुर्व्यवहार' का शिकार होने वाले इज्जतदार और डरपोक हैं.. क्या 'दुर्व्यवहार' शब्द का इस्तेमाल बंद नहीं करना चाहिए..क्योंकि इसमें न्याय की आशाएं धूमिल नजर आती हैं..क्योंकि यह अपराध को अपराध नहीं सामान्य खराब व्यवहार की कोटि में ही रखता है..

आखिर मीडिया शरीर और दिमाग पर हर हमले को 'दुर्व्यवहार' की कोटि में ही क्यों रखता है.. क्यों वह इन 'दुर्व्यवहारों' के नाम उजागर नहीं करता.. क्या आईपीसी में भी इन्हें अपराध मानकर दर्ज किया जाता है... या फिर हमारा मीडिया हिंदी से ही 'दुर्व्यवहार' करने पर आमादा है.. और वह संज्ञेय अपराध का नाम न लेकर उसकी ग्रेविटी खत्म कर रहा है...

31/1/10

दिल्ली में है दम, क्योंकि क्राइम यहां है लम्पसम!


देश का दिल या राजधानी जो चाहें कहें आप, पर क्या आपको ताज्जुब नहीं होगा अगर कहें कि दिल्ली में अपराध बहुत कम है.. हमारा परंपरागत विवेक, हमारे प्रबुद्ध क्रिमिनोलॉजिस्ट्स, हमारी सरकार, हमारे समाजविज्ञानी, हमारा मीडिया, हमारे साथी और पड़ोसियों का कहना है कि इस शहर का चप्पा-चप्पा अपराधियों की पदचाप से गूंज रहा है.. कौन-कहां-कब-कैसे शिकार बनेगा, कोई नहीं जानता.. (माफ कीजिएगा, फिल्म आनंद के डायलॉग की तर्ज पर)

जब इतनी बहस-मुबाहिसे चल ही रहे हैं तो हमें इसका दूसरा पक्ष भी देखना चाहिए.. दिल्ली घूमकर यूएस लौटे कुछ अमेरिकियों के अनुभव क्या कहते हैं क्राइम कैपिटल के हालात पर.. आखिर उनकी नजर को तो आप निष्पक्ष मानेंगे ही..इस शहर में कदम रखने से पहले ही उन्हें उनके दूसरे अमेरिकी साथियों ने सावधानी बरतने की हिदायतें दे दी थीं.. क्योंकि उन्हें मिली खबरें बताती थीं कि दिल्ली क्राइम कैपिटल है.. सो जैसे ही इन अमेरिकियों ने एयरपोर्ट पर कदम रखा और ऑटो के लिए बाहर आए, उनके कान खड़े थे..इसके बाद जब तक वो दिल्ली में रहे खौफज़दा रहे.. शहर के मीडिया में आईं अपराध की खबरें उनके रौंगटे खड़़ी करती रहीं..मगर दिल्ली में 18 महीने गुजारने के दौरान उनका वास्ता सिर्फ चार चोरों से पड़ा..और जानते हैं ये चोर कौन थे.. शनि महाराज के नाम पर शनिवार को भीख मांगने वाले बच्चे.. जो फिरंगी चमड़ी देखकर उनके पीछे हो लिए थे.. 'क्राइम कैपिटल' से वापस लौटकर उनकी राय कुछ और ही दास्तां बयां कर रही है..

दिल्ली की जनसंख्या और आर्थिक हालात ये कहते हैं कि इस शहर में ज्यादा अपराध होना चाहिए.. और इनके आधार ये हैं..
पहला, दिल्ली में 55 फीसदी आबादी पुरुषों की है.. जबकि पूरे देश में 52 फीसदी और दुनिया भर में 50 फीसदी से कुछ ज्यादा..
दूसरे, आबादी का 53 फीसदी से ज्यादा 25 साल से कम उम्र का है.. जिसकी अगर न्यूयॉर्क से तुलना करें तो वो 33 फीसदी आती है..
तीसरे, गरीब लड़के अपनी ऊर्जा और गुस्सा निकालने के लिए अमेरिका में दो ही रास्ते इख्तियार करते हैं सैक्स अपराध या हिंसा.. पर दिल्ली में ऐसा नहीं होता..
चौथे, शहर में आर्थिक खाई इतनी बड़ी और साफ दिखने वाली है कि आप उसे दूर से भांप सकते हैं..
पांचवें मौसम और पर्यावरण की मुश्किलें.. मसलन, कहर की गर्मी, जबर्दस्त ठंड, ट्रैफिक, प्रदूषण, पानी-बिजली की किल्लत, आबादी का ज्यादा घनत्व, नाइंसाफी और बेइज्जती..

इन सभी दिक्कतों को वो भी झेल जाते हैं जो आराम से इनसे निपट सकते हैं.. दुनियाभर में बहुत से शहर इन सामाजिक दिक्कतों से टूट रहे हैं लेकिन दिल्ली नहीं.. मगर क्यों?

इन अमेरिकियों ने बाकायदा खोजबीन की और पता लगाने की कोशिश की कि क्या वाकई दिल्ली क्राइम कैपिटल है.. इनकी राय है कि दिल्ली को आप हिंदुस्तानी स्टैंडर्ड्स के आधार पर बेशक खतरनाक शहर का दर्जा दे दें पर ये अमेरिकी शहरों के कहीं आसपास भी नहीं ठहरती.. आखिर क्यों.. जरा मुलाहिजा फरमाएं.. दिल्ली और उसके आसपास 2007 में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 495 हत्याएं हुईं जो एक लाख की आबादी पर 2.95 हैं.. मगर उसी साल न्यूयॉर्क में एक लाख की आबादी पर औसत था 5.94 कत्ल का.. और ये भी ध्यान रखें जनाब कि यही वो साल था जब न्यूयॉर्क शहर को पूरे अमेरिका में सबसे सुरक्षित शहर का दर्जा दिया गया था.. यही हाल बलात्कारों का भी है.. 2007 में प्रति एक लाख की आबादी पर दिल्ली में 3.57 बलात्कार दर्ज हुए, तो न्यूयॉर्क में प्रति एक लाख पर 10.48...

आप कहेंगे कि साहब बहुत से अपराध तो दिल्ली में दर्ज ही नहीं होते पुलिस की कृपा से.. लेकिन क्या आपको यकीन आएगा कि हर एक लाख की आबादी पर तीन कत्ल और 7 बलात्कार के मामले दर्ज नहीं किए जाएंगे.. सोचने में कुछ भद्दा लगता है हिंदुस्तानी पुलिस के लिए.. तो ऐसे में बेहद सतही से लगने वाले ये आंकड़े क्या इसकी तसदीक नहीं करते कि दिल्ली को कम से कम अपराध की राजधानी का तमग़ा नहीं दिया जा सकता.. न्यूयॉर्क और दुनिया के दूसरे शहर अपनी दावेदारी में काफी आगे हैं..

मगर अखबारों की हेडलाइनें चीख-चीख कर कहती हैं दिल्ली अपराधियों का स्वर्ग बन चुका है.. यहां जीना मुश्किल होता जा रहा है.. आम शहरी सुरक्षित नहीं है.. और मीडिया जिस अपराध को रिपोर्ट करके बड़ी बड़ी हेडलाइनें बनाता है और सात-सात, आठ-आठ कॉलम की खबरें बुनता है.. उनकी बानगी भी देख लीजिए.. पंजाब के व्यापारी से एक लाख लूटे.. कार तोड़कर 5 लाख की नगदी चोरी..आदि-आदि.. यानी बेहद मामूली चोरियां..जो डकैती की परिभाषा में भी नहीं आतीं.. बेशक शिकार हुए लोगों के लिए यही बड़ी बात है पर ये भी ध्यान रहे कि अमेरिकी अखबारों में ये खबरें एक लाइन की जगह भी नहीं पातीं..

तो क्राइम कैपिटल में क्राइम लम्पसम ही कहा जा सकता है, पूरा नहीं..फिर भी अगर आप कहेंगे कि नहीं हमारे शहर को क्राइम कैपिटल के खिताब से यूं ही नहीं नवाजा गया है..इसके पीछे ठोस वजहें हैं..आपके इन अमेरिकियों की मामूली रिसर्च को क्यों मानें.. ठीक है तो फिर बताएं..

अगर दिल्ली अपराध राजधानी है तो क्यों नहीं यहां की विकट आर्थिक खाई यहां की बहुतायत युवा पीढ़ी को हथियार उठाने के लिए मजबूर करती? क्यों नहीं नौजवान पूरे शहर का नियंत्रण अपने हाथ में ले लेते? क्यों यहां के लोग पार्किंग वालों से महज 10 रुपए की पर्ची लेकर अपनी 8 लाख की कार की चोरी बर्दाश्त कर लेते हैं? क्यों लोग बसों में लड़कियों से हो रही छेड़छाड़ देखकर भी अपना मुंह मोड़ लेते हैं? क्यों यहां पुलिस आपके कागज पूरे होने के बावजूद आपकी गाड़ी रोककर आपके बीवी-बच्चों के सामने आपका चालान काट सकती है और आपका कॉलर पकड़कर आपके गाल पर तमाचा रख सकती है? क्यों कोई भी सरकारी विभाग का आदमी आपके घर के सामने सड़क खोदकर चला जाता है और फिर महीनों वहां आपके घर के बुजुर्ग गड्ढों में गिरकर जख्रमी होते रहते हैं? क्यों पीएफ डिपार्टमेंट का एक मामूली बाबू आपकी जिंदगी भर की कमाई का पैसा आपको सौंपने से पहले अपना कमीशन चाहता है? क्यों..क्यों..क्यों.. क्या यहां की मर्द आबादी नपुंसक हो चली है...या फिर मतलबपरस्त?

29/1/10

आल इज वैल ताबीज़ है!

3 ईडियट्स ने एक नया जुमला क्वायन किया - आल इज वैल (न-न, ऑल इज़ वैल नहीं).. ऐसा नहीं कि ये पहली बार हुआ है..दरअसल हिंदी फिल्मों को हमेशा एक ताबीज़ की जरूरत होती है.. जिसके सहारे वो अपनी नैया पार लगा सकें.. ये बॉलीवुड फिल्मों के लज़ीज़ व्यंजन का एक अहम इन्ग्रेडिएंट (मसाला) है..बहुत ताकतवर.. और प्रोड्यूसर-डायरेक्टर अच्छी तरह जानते हैं कि हिंदी फिल्मों के दर्शकों की याददाश्त काफी कमजोर है..हां, अगर फिल्म को बॉक्स ऑफिस के सबसे ऊंचे पायदान पर खड़ा करना है तो उन्हें ये गंडे-ताबीज याद िदलाने होंगे और वो इन्हें बरसों अपने मन में बसाए रखेंगे.. ज़ाहिर है कि फिल्म बॉलीवुड में बन रही है तो इस ताबीज़ का इस्तेमाल क्योंकर न हो.. थियेटर से बाहर आते ही दर्शक कहता है -

- यार, आल इज वैल तो कमाल की चीज है..जब आमिर बोलता है न तो पिया की बहन के पेट में मौजूद बच्चा लात चलाता है.. और तब तो कमाल ही हो गया जब आमिर ने कहा - आल इज वैल और पिया की बहन का मरा बच्चा अचानक जिंदा हो गया.. कमाल है यार..

चलिए, ये तो हुई आल इज वैल की बात.. जरा फ्लैशबैक में ले चलते हैं आपको.. हो सकता है कि आपको मेरी बात पर कुछ-कुछ यकीन आए.. अगर आप 30 से 40 के हैं..तो 70 के दशक के बाद से आज तक अपनी देखी हुई किसी फिल्म को जेहन में लाएं.. जो भी मशहूर फिल्म देखी हो..(हां, अर्धसत्य टाइप फिल्में छोड़ दीजिएगा).. बहुत मुमकिन है कि आपको शायद ही किसी फिल्म की कहानी, थीम या प्लॉट याद हो... हां, ये जरूर याद आ जाएगा कि जंजीर में अजीत ने अपना पैट डायलॉग किस अंदाज में बोला था - मोना डार्लिंग...अमरीश पुरी ने किस फिल्म में डायलॉग मारा है- मोगैंबो खुश हुआ.. अनिल कपूर ने किस फिल्म में कहा है- झक्कास, या फिर मिथुन चक्रवर्ती का डायलॉग - तेरी जात का भांडा.. आप बता देंगे तुरंत..

शायद मुझे बताने की जरूरत नहीं कि सह अभिनेताओं और कॉमेडियन्स के स्टाइल और डॉयलॉग्स की नकल के अलावा बहुत से लीड अभिनेताओं को अपना स्टाइल इसी ताबीज़ को पहनकर बनाने को मजबूर होना पड़ा.. और उनके मुंह में ऐसे डायलॉग डाले गए, जो उन्हें दर्शकों के दिमागों में जिंदा रख सकें.. (गौरतलब है-धर्मेंद्र का डायलॉग- कुत्ते-कमीने, तेरा खून..) क्योंकि उनके अभिनय की कहानी पर अब झिलमिली पड़ चुकी है..दर्शकों की याददाश्त बहुत कमजोर होती है जनाब..

आइए फिर थ्री ईडियट्स की बात करें.. शायद यही वजह थी कि थ्री ईडियट्स को भी आल इज वैल करना पड़ा.. स्क्रिप्टराइटर को अपने दिमाग को काफी झूले देने पड़े और उसके बाद एक कहानी जन्मी.. रणछोड़दास की एंट्री भी इसी आल इज वैल के भरोसे है..क्योंकि रैगिंग के दौरान अकेला यही ताबीज उसे सीनियरों के अत्याचार से बचा पाता है.. रणछोड़दास इसे आगे इलेबोरेट भी करता है.. गांव के चौकीदार की कहानी सुनाकर.. रैंचो फ्लैशबैक के एक सीन में अपने दोस्तों को बताता है कि कैसे इस चौकीदार के आल इज वैल के भरोसे पूरा गांव चैन की नींद सोया करता था.. लेकिन विरोधाभास देखिए कि आल इज वैल पर टिकी इस फिल्म का स्क्रिप्टराइटर ये नहीं बताता कि जब गांव में डकैती पड़ी तो कैसे और क्यों आल इज वैल का ताबीज हवा हो गया.. और आमिर भी अपने दोस्तों को ये साफ नहीं करते कि आखिर आल इज वैल क्यों नहीं था उस रात..

चूंकि चौकीदार फिल्म स्क्रिप्ट के दायरे से बाहर है.. ये सिर्फ छौंका लगाने के लिए लिया गया.. इसलिए उसकी बात ही छोड़ दी गई और रैंचो ने इस आल इज वैल की घंटी को अपने गले पहन लिया..और ये सुनिश्चित करने की पूरी कोशिश की कि किसी भी हालत में इस ताबीज़ की बदौलत वो फिल्म का आल इज वैल करा दें.. साथ में प्रमोशनल कैंपेन तो था ही.. खैर..

तो क्या आमिर की फिल्म थ्री ईडियट्स आल इज वैल की वजह से याद की जाएगी.. हो सकता है.. क्योंकि इस कोलाज की कहानियां एक दूसरे से इतनी जुदा हैं कि उनके सिरे तो शायद ही आपका दिमाग पकड़ सके..हां, आल इज वैल याद रह जाएगा..

ये सिनेमाई ताबीज़ थ्री ईडियट्स को ब्लॉकबस्टर की तरह याद रखा पाएगा.. फिल्म की कामयाबी में कोई संदेह नहीं.. इसकी वजह भी हैं.. दर्शक वही है जो 80 के दशक से लेकर आज तक फिल्में हिट कराता आया है.. फॉर्मूले भी वही हैं.. हां एक चीज़ और खास जुड़ गई है..आमिर का जादुई प्रमोशनल कैंपेन, जिसने फिल्म इंडस्ट्री में कुछ नए नियम लिखे हैं..और इसके बाद अभिनेताओं को इलीटिज्म का लबादा उतारकर फेंकना पड़ा है.. अब वो फिल्म बनाते हैं सरकार से मिले विकास फंड की तरह और फिर एक राजनीतिज्ञ की तरह मैदान में उतर पड़ते हैं- देखिए हमारे प्यारे दर्शकों, ये फिल्म हमने आपके लिए बनाई है..इसे आपके प्यार (पढ़ें- िटकट खरीदकर देखने) की बहुत जरूरत है.. जगह-जगह सभाएं, अपने दर्शकों तक सीधे पहुंचने की कवायद, उनके दिमाग न सही तो हाथों को पकड़ने की कोशिश.. खैर.. ये बातें फिर किसी वक्त.. फिलहाल अपने दिल पर हाथ रखकर बस इतना ही कहें.. आल इज वैल, आल इज वैल..

25/1/10

3 ईडियट्स: कहानी का गर्भपात!

ऑल इज नॉट वैल..3 ईडियट्स यानी हवाई लफ्फाजी के साथ हिंदी फिल्मों के रटे रटाए फॉर्मूलों का जोड़-घटाव.. पूरी कहानी का गर्भपात.. पैदा तो हुई लेकिन क्षत-विक्षत और मरी हुई.. आदर्शवाद का फिल्मी मसाला..

3 ईडियट, एक कन्फ्यूज्ड फिल्म.. गंभीर बातों को बेहद दुखद ढंग से पेश करने का बहाना करने वाली, दोहराव में उलझी, तार्किक लगने वाले नकली और थोपे गए सीन ईजाद करने वाली..औसत दर्जे की बॉलीवुड मूवी..औकात से ज्यादा प्रचारित फिल्म, जिसने एक अच्छे ख्याल का कत्ल कर दिया.. जिसमें बगैर किसी तर्क या वजह के जबर्दस्ती इस बात पर जोर देने की कोशिश की गई है कि मौजूदा शिक्षण व्यवस्था खुदकुशियों को बढ़ावा देने वाली और मार्क्स का बोझ खड़ा करने वाली चीज है.. ये बात कथानक और उसे कहने के स्टाइल के साथ फिट ही नहीं बैठती..

पूरी फिल्म न तो कॉमेडी है (अगर आप पैंट उतारने वाले और इसी तरह के दूसरे सीन को कॉमेडी मानते हों तो बात अलग है) और न कहीं गंभीरता से उस विषय को आगे बढ़ाने वाली, जिसे लेकर आमिर आजकल इतने चहक रहे हैं.. मानो उन्होंने कोई कल्ट क्लासिक दे दिया हो..

रंग दे बसंती के अपने दोनों साथियों के साथ आमिर ने एक बार फिर टीम बनाई.. माधवन और शर्मन जोशी को साथ लेकर वही किया जो वो चाहते थे.. इसे आप यूं पढ़ें कि जो फिल्म के तीनों ईडियट्स चाहते हैं, वही असल में आमिर, विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हिरानी ने किया है.. अगर यही वो फिल्म है जिसे लेकर आमिर ने इस आयडिया के जन्मदाता (लेखक चेतन भगत) को धता बताई तो चेतन को तो इसका शुक्रिया अदा करना चाहिए..

जो बिकता है, वही चलता है, यही दस्तूर है.. इसलिए बेशक बहुत से लोगों को ये फिल्म अच्छी लगेगी..मगर ये चीज आमिर के दावे कि वो हमेशा हर फिल्म दस्तूर से अलग बनाते हैं, से मेल नहीं खाती.. हो सकता है कि जो दर्शक हल्के-फुल्के मसाले में काम चलाना चाहता है तो उनके लिए ये फिल्म काम करेगी.. मगर फिल्म के कुछ आलोचकों को ये जरूर खलेगा कि आखिर जिस विषय को फिल्म का प्लॉट बनाया गया तो उसी का ठीक से विकास क्यों नहीं किया गया.. क्यों ज्यादातर सीन एक नौसिखियाई अंदाज में निकले लगते हैं.. क्यों छात्रों की जिंदगी और उन पर पढ़ाई के दबाव फिल्म के केंद्र में नहीं है..जिन्हें बार बार उठाया जा रहा है..क्या आमिर के जरिए मशीन की परिभाषा बताने भर से पूरी बात खत्म हो जाती है..

फिल्म का करीब तीन चौथाई हिस्सा फ्लैशबैक में है और सारे के सारे फ्लैशबैक थोपे गए हैं.. उनका किरदारों की वर्तमान जिंदगी से कोई कनेक्ट नहीं दिखता.. अचानक वो प्रकट होते हैं.. और फिर अचानक गायब हो जाते हैं.. मानो अतीत आपके वर्तमान के साथ साथ चल रहा है.. यहां तक कि फिल्म समयकाल को भी स्टैब्लिश नहीं कर पाती..

अगर बात एक्टिंग की करें तो खुद को नॉन कन्फॉर्मिस्ट मानने वाले आमिर की ये फिल्म उनकी ये छवि तो कहीं पेश नहीं करती.. वो तमाम जादू की झप्पियां देने की कोशिश करते हैं और दर्शकों को ये भुलाने की कोशिश करते हैं कि वो 40 साल के आमिर नहीं 20-22 के रणछोड़दास यानी रैंचो हैं.. कॉमेडी या कुछ सीधी नसीहतें छोड़कर वो पूरी फिल्म में कुछ करते नहीं दिखाए गए.. माधवन का किरदार यानी फरहान ठीक से विकसित नहीं हो पाया.. वो अपने पिता (परीक्षित साहनी) का ही ठीक से सामना नहीं कर पाता.. शर्मन जोशी के किरदार में जरूर कुछ ताकत है..लेकिन इसकी वजह महज उसके आसपास बुने गए सीन हैं.. गरीबी, बीमार बाप..वरना ज्यादातर वो भी अपने किरदार से न्याय नहीं कर पाया है.. करीना ने सैट पैटर्न पर काम किया है..न तो उनके किरदार में कोई कशिश है और न जरूरत..हर बार की तरह वो अपनी जब वी मैट की छवि ही पेश करती हैं.. उसमें दर्शकों को एक्टिंग के बजाय फेस वैल्यू ही दिखेगी..प्रिंसीपल साहब (बोमन ईरानी) अपने बेटे का सुसाइड नोट देखकर जो 'भावनाएं' व्यक्त करते हैं, वो शायद दुनिया भर के सिनेमा के इतिहास में अनोखी बात होगी.. कोई कनेक्ट नहीं.. चतुर रामलिंगम के किरदार को कुछ वक्त तक लोग एक 'बलात्कारी' सीन की वजह से शायद याद रखें..वरना उसे इसी ढंग से पेश किया गया है कि वो रट्टू तोता है बस..

पूरी फिल्म देखने से लगता है कि मानो फिल्म को जबरन गले उतारा जा रहा हो..कहानी का कोई नेचुरल प्रोग्रेशन या नैरेटिव नहीं है..कोई भी सीन कुदरती मौत नहीं मरता..उनकी हत्या की गई है.. ऐसे में किसी सीन के खूबसूरत अंत की तो बात ही न करें..हवा में लिखी गई कई कहानियों का एक कोलाज है ये फिल्म..जिन्हें फ्रेम में लगाकर पर्दे पर टांग दिया गया.. (इसे यूं पढ़ें कि लगता है कि स्क्रीनप्ले लिखने वाले एक से ज्यादा थे और इन सबके ऊपर बैठे थे खुद आमिर खान, जिन्हें फ्रेम को पर्दे पर रखना था)

रणछोड़दास यानी रैंचो को कोई चुनौती नहीं दे सकता..चाहे वो जो करे..वो मौजूदा एजूकेशन सिस्टम में मिसफिट नहीं है..यहां तक कि फर्स्ट क्लास हासिल करता है..वो भी सिर्फ भाषण देकर..इंजीनियरिंग कॉलेज के प्रिंसीपल को छोड़कर उसका विरोधी कोई नहीं (क्योंकि बॉलीवुड फिल्म में एक एंटागोनिस्ट और कन्फ्लिक्ट की बहुत जरूरत होती है, वरना दर्शक भाग जाएगा..) यही प्रिंसीपल सिर्फ उस शिक्षण पद्धति का प्रतीक है, जिसे आमिर पूरी फिल्म में कोस रहे हैं.. लेकिन उससे आमिर को कोई चुनौती नहीं मिलती क्योंकि वो अनुशासन को ज्यादा अहमियत देता है न कि शिक्षा को.. ऐसे में चूंकि विलेन ही ताकतवर नहीं है इसीलिए आमिर का किरदार भी कमजोर है..

रैंचो यानी रणछोड़दास सिर्फ डायलॉग के जरिए किसी को भी मना सकता है.. रैंचो के भाषणों के आगे सब अचानक नतमस्तक हैं..एकदम गैर वास्तविक.. प्रिंसीपल की बेटी पिया रैंचो की दीवानी है, फरहान और राजू उसके आगे हार जाते हैं, फरहान के पिता को फरहान की दलीलें एकदम समझ आ जाती हैं और वो उसके लिए प्रोफेशनल कैमरा खरीदने को तैयार हो गए हैं.. रणछोड़ के कहने पर पिया एकदम अपने मंगेतर को छोड़ देती है.. रैंचो पर पिया को इतना यकीन है कि वो एक वैक्यूम क्लीनर के जरिए तूफानी रात में पिंग पॉंग टेबल पर रैंचो के हाथों अपनी बहन की डिलीवरी कराती है..और वो भी वैबकैम के जरिए..इंजीनियरिंग कॉलेज का प्रिंसीपल एकदम उसके आगे हार मान जाता है.. और ये सारी चुनौतियां इसलिए खत्म की गईं ताकि आमिर फिल्म को जल्द से आगे ले जा सकें..यानी ये सभी किरदारों का कत्ल भी है..क्योंकि ये फिल्म सिर्फ आमिर से संबंधित है..छात्रों पर पड़ रहे मौजूदा एजुकेशन सिस्टम के दबाव से नहीं.. फिल्म का सारा जोर भाषणों और आदर्शों के बखान में है न कि विषय पर..

इसका मतलब ये नहीं कि स्टोरी ईडियट है.. नहीं.. ये कहानी कहनी जरूरी है.. पर इस ईडियट तरीके से कही जाएगी.. किसे पता था..

दरअसल आमिर को झंडा बुलंद करना था कि वो सिर्फ गैर पारंपरिक और ईडियट फिल्में ही बनाते हैं..वो जानते हैं कि दर्शक ईडियट हैं, जो ईडियट फॉर्मूला फिल्में देखने थियेटर चले आएंगे..

16/1/10

बेच सकते हैं 'पाप'?

मार्केटिंग का सबसे बड़ा पैमाना क्या है (अगर आप पोर्नोग्राफी के बिजनेस में नहीं हैं तो)- पोर्नोग्राफी के पैमाने पर अपना प्रोडक्ट बेचने की क्षमता.. यह एक चुनौती है जिसे कोई भी मार्केटिंग प्रोफेशनल स्वीकार करता है..हालांकि यह अलिखित है मगर समझदारी यही है कि अगर आप अपना प्रोडक्ट पोर्न प्रोडक्ट के बराबर ताकतवर नहीं बना पाते तो शायद वो नहीं बिकेगा.. वजह है कि सेक्स बिकाऊ है..पोर्न का मार्केट किसी भी प्रोडक्ट के मार्केट से बहुत बड़ा है..10 बिलियन से 14 बिलियन डॉलर का..(फॉरेस्टर रिसर्च) और यह बाजार पूरी तरह लाभ का है.. यहां कोई लुढ़कता नहीं, कोई मंदी नहीं.. (पता नहीं ये कंपनियां शेयर बाजार में सूचीबद्ध हैं या नहीं)

ये मेरा ख्याल है जो शायद बहुत से लोगों को पूरी तरह सही न लगे.. अच्छा भी न लगे लेकिन फ्रायड के वंशज इस बात से जरूर सहमत होंगे..

अपनी बात के समर्थन में मैं एक सर्वे के कुछ आंकड़े पेश कर रहा हूं..(ये बात अच्छी तरह जानते हुए कि कोई भी सर्वे सच का अंश ही बता सकता है, पूरा सच नहीं..मगर किसी भी कल्पना से तो बेहतर ही होगा).. शिकागो यूनिवर्सिटी का नेशनल ओपिनियन रिसर्च सेंटर 1972 से जनरल सोशल सर्वे कराता रहा है.. इसके आंकड़े अमेरिकी समाज के बदलते मूड को बताने वाले सबसे ज्यादा प्रामाणिक स्रोत माने जाते हैं.. 1973 से 2000 के आंकड़े बताते हैं कि 1973 में हाईस्कूल से नीचे के 17.8 फीसदी बच्चों ने पोर्न फिल्म देखी थी तो 2000 तक उनका फीसद 22.9 हो चुका था..ग्रेजुएट उपभोक्ता कुछ स्थिर हो गए थे.. 1973 में 40.9 के मुकाबले 2000 में उनका प्रतिशत हो गया था 23.7... चाहे शादीशुदा हों या नहीं, या फिर विधवा-विधुर सभी के लिए पोर्न मार्केट मौजूद रहा है..पुरुषों के मुकाबले (1973 में 32 के बजाय 2000 में 32.3 फीसदी) महिलाओं की तादाद कुछ कम (1973 में 21 के मुकाबले 2000 में 17.9 फीसदी) हुई है.. (पूरी रिपोर्ट - http://www.pbs.org/wgbh/pages/frontline/shows/porn/business/haveseen.html)

ये तो मुजाहिरा है पोर्न के उपभोक्तावर्ग का.. बेशक ये अमेरिकी तस्वीर है, लेकिन हिंदुस्तान में अगर सर्वे नहीं हुआ तो इसका मतलब यह कतई नहीं कि यहां देह के शौकीन उपभोक्ता नहीं हैं..अगर ऐसा न होता तो मीडिया के अलग-अलग प्लेटफार्म्स पर उसकी बिक्री इतनी नहीं होती..एनसीआरबी के व्यभिचार के आंकड़े आसमान न छू रहे होते.. (हाल ही में जबरन बंद की गई सविता भाभी वेबसाइट की याद आई आपको?)..

जब उपभोक्ता है तो यकीनन बाजार भी होगा ही.. और यह सच भी है.. सीएनबीसी ने पोर्न बिजनेस पर अपनी गहरी पड़ताल के बाद कुछ ऐसे खुलासे किए कि शायद आप भी चौंक जाएंगे..

"Pornography has been around since the time of the caveman" and that "it's a $13 billion industry where the bottom line has always been sex sells."

सीएनबीसी रिपोर्टर मैलिसा ली की पोर्नस्टार जैसी जेन से मुलाकात

मार्केटिंग का एक उसूल एकदम साफ है-एग्रेसिवनेस.. चाहे जो हो उस उपभोक्ता तक पहुंचना है जो प्रोडक्ट का या तो इंतजार कर रहा है.. या इस बात का कि ऐसा प्रोडक्ट आए.. ऑनलाइन पोर्न उपभोक्ताओं की मांग पूरी करने वाली दुनिया की मशहूर कंपनी डैनीज़ हार्ड ड्राइव के डायरेक्टर ऑफ मार्केटिंग सैम एगबूला क्या कह रहे हैं, जरा इस पर भी नजर डालें..

We're very profitable ourselves. We don't make as much profit as we could because we're picky about how we do things. We'll have a model in for a day and maybe get 20-40 stills out of that day. There are people who are getting a thousand stills on a digital camera. But I would say that profits of 30 percent plus were relatively commonplace.... I'd say we're on the very top tier...
(डैनीज हार्ड ड्राइव की सीईओ डैनी का इंटरव्यू- http://www.pbs.org/wgbh/pages/frontline/shows/porn/interviews/ashe.html)

अगर और आंकड़े हासिल करने की तमन्ना है.. तो जरा कुछ गूगल कीजिए.. और आपके सामने कई सवालों के राज खुलेंगे .. मसलन क्या हार्ड कॉपी के मुकाबले इंटरनेट पर पोर्न का सर्कुलेशन ज्यादा है.. (http://www.sics.se/~psm/kr9512-english.html) प्रोडक्ट बेचने वाली कंपनियां किस तरह माल बेचती हैं.. बाजार का पता कैसे लगाया जाता है.. सॉफ्ट और हार्ड पोर्न क्या है.. कानून क्या कहते हैं.. और क्या होने वाली है कुछ साल बाद की तस्वीर.. भूल जाइए संस्कृति पर हमले का आलाप..सिर्फ जानिए कि आपके बच्चे क्या देख रहे हैं और उनके लिए बाजार खुद को किस तरह कस्टमाइज कर रहा है.. क्योंकि एडल्ट साइट पर जाने वाले लोगों में 20-30 फीसदी तक बच्चे हैं.. (http://www.forbes.com/2001/05/25/0524porn.html)

ताजा बहस इस बात पर है कि पोर्नोग्राफी और कला यानी आर्ट को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता.. और अगर आप पोर्नोग्राफी पर रोक लगाते हैं तो यह कला पर प्रतिबंध होगा.. जो समाज को आकार-प्रकार देने, उसकी सोच को आगे बढ़ाने, उसे विकसित करने का काम करती है.. पोर्नोग्राफी (या कला के) हिमायती कहते हैं कि किसी भी देश में अगर ऐसा कानून बनाया जाता है तो इसका पुरजोर विरोध किया जाएगा..इनका कहना है कि पोर्नोग्राफी के अकादमिक मूल्यों को सहेजकर रखना होगा..

मगर एक सवाल पूछा जाएगा और जरूर पूछा जाना चाहिए कि आखिर पोर्न प्रोडक्ट में ऐसा क्या है, जिसे हर मार्केटिंग प्रोफेशनल कॉपी करना चाहता है.. वह क्या इन्ग्रेडिएंट्स होते हैं जो पोर्न हाथों-हाथ बिकने की ताकत रखता है, जबकि आपका साबुन, तेल, किताब, वाहन और मकान नहीं.. अगर एक लाइन में कहना हो तो बस यूं समझिए कि - इनमें सेक्स नहीं है.. यानी ये चीजें तभी बिक सकती हैं जब वो सेक्सी हों..(ये जुमले आजकल यूं ही नहीं चल रहे - बड़ी सेक्सी कार है, बड़ी सेक्सी बिल्डिंग है..आदि-आदि)

अगर आप संभावित पोर्न उपभोक्ता हैं तो पहले आपको एक झलक मुहैया कराई जाती है.. इसके बाद आपकी खिदमत में कुछ मुफ्त वीडियो क्लिप्स पेश की जाती हैं.. अगर आप मुतमईन हैं तो फिर अगला चरण है मुफ्त रजिस्ट्रेशन.. आप अपना कोई भी फर्जी नाम रखकर इस दुनिया में प्रवेश कर सकते हैं..ये पे पर क्लिक का ऑनलाइन बिजनेस है.. इसके अलावा अगर आप क्वालिटी प्रोडक्ट और कुछ सुविधाएं चाहते हैं तो ढेरों विकल्प मौजूद हैं..

पोर्न प्रोडक्ट की सबसे बड़ी खासियत है.. आपकी उस प्रोडक्ट के लिए उपयोगिता, उपादेयता की पहचान.. इसी के मुताबिक कस्टमाइज्ड प्रोडक्ट आपको दिया जाता है.. आप जो चाहते हैं अपने लिए वैसी ही चीज होगी.. चाहे वो वीडियो हो, पिक्चर हो, टैक्स्ट हो या फिर देह.. इतना कस्टमाइजेशन और वैरायटी शायद ही आप किसी दूसरे उपयोगी प्रोडक्ट में पाएंगे..दूसरी चीज है इस प्रोडक्ट की पहुंच.. अगर आप आयलैंड पर भी हैं तो वहां भी ये पहुंच सकता है.. हर मीडिया प्लेटफार्म पर यह मौजूद है.. स्टैंडर्ड का कोई प्रश्न ही नहीं है.. अगर आप मुफ्त पा रहे हैं तो भी उसके स्टैंडर्ड का ख्याल रखा जाता है.. साथ ही टैक्नीकल एडवांसमेंट.. और इन सब पर बाकायदा नियंत्रण और सुधार..

इसे पोर्न मार्केटिंग की वकालत न समझा जाए... मंतव्य महज इतना है कि दुनिया भर में मार्केटिंग प्रोफेशनल्स के सामने पोर्न एक चुनौती खड़ी करता है.. और जो पोर्न ट्रेड में नहीं हैं वो तमाम कारीगरी करने के बावजूद अपना प्रोडक्ट पोर्न प्रोडक्ट की लोकप्रियता के बराबर खड़ा नहीं कर पाते.. हां, अगर वो अपना माल बेचने के लिए इसे कॉपी करते हैं तो या तो उन्हें ब्लैकलिस्ट होना पड़ता है या फिर मार्केट से बाहर.. यानी अगर आप पाप का कारोबार नहीं कर सकते तो कृपया पाप के कारोबार से कुछ सीखें.. क्या आपका प्रोडक्ट इतना 'सेक्सी' है कि वो बिक जाएगा?

नदी

क्या नदी बहती है  या समय का है प्रवाह हममें से होकर  या नदी स्थिर है  पर हमारा मन  खिसक रहा है  क्या नदी और समय वहीं हैं  उस क्षैतिज रेखा पर...