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11/5/09

किसे चाहिए अखबार?

किसे चाहिए वो अखबार, जिसमें एक कमांड के जरिए खबरें सर्च न की जा सकें...
किसे चाहिए वो खबर जो आपके कंप्यूटर, मोबाइल और पामटॉप पर सेव न की जा सके..
किसे चाहिए वो खबर जिसे आप 21वीं सदी में भी किसी को भेजकर पढ़ा ही न सकें...
किसे चाहिए वो खबर जिस पर आप दूसरों के साथ राय-मश्विरा न कर सकें, बगैर कंटेंट की तर्जुमानी किए...
किसे चाहिए वो खबर, जिसे आप दूसरी खबरों के साथ नाप-तोल न कर सकें, लिंक न कर सकें...
किसे चाहिए वो अखबार जो सुबह ऑफिस जाने से पहले न पढ़ा जा सके और रात तक सड़ जाए..
किसे चाहिए वो अखबार जो आपको ध्वनि और दृश्य से दूर रखकर सिर्फ सोचने तक छोड़ दे...

ये बहस के कुछ बिंदु हैं जो शुरू हुई है और चल रही है...लेकिन न्यूजपेपरमैन का ही इससे सरोकार नहीं क्योंकि वो अपनी नौकरी से ज्यादा नहीं सोचता...(हालांकि अखबार का उपभोक्ता वो भी है).. मालिक को इसलिए नहीं कि अभी कोई सीधी चुनौती नहीं मिली है...

ये बहस टैक्नोलॉजी की नहीं है...अगर लोग ये सोचते हैं तो शायद गलत होगा...ये बहस है स्वाद की...बदले हुए जायके की...ये बहस है हमारे वक्त में अखबारों के लगातार जायके में रुकावट पैदा करने की...

देश में बड़े-बड़े कई अखबार हैं... हिंदी के भी और अंग्रेजी के भी.. लेकिन उनमें न तो ठीक से इंटरनेशनल कवरेज होता है (हिंदी में तकरीबन नहीं) और न पूरी तरह नेशनल (नेशनल में पश्चिमोत्तर, पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत भी शामिल है, केवल उत्तर नहीं, हिंदी में ये बिल्कुल नहीं)...सभी खुद को राष्ट्रीय कहने में जरा भी शर्म महसूस नहीं करते..जबकि ज्यादातर का फोकस लोकल है.. या महानगरीय.. ज्यादातर के फ्रंटपेज पर सबसे बड़ी और अहम खबरें एजेंसी की छपती हैं...उनके पास या तो रिपोर्टर्स नहीं हैं या फिर उनका फोकस नहीं है.. इन्वेस्टिगेशन के नाम पर सिटी के बेहद मामूली विभागीय घोटाले या फिर किसी से स्पांसर्ड खबर का प्रस्तुतिकरण...

तो क्यों न इनकी मौत होगी..सिर्फ सूचना पाने के लिए तो बहुत से और माध्यम और रास्ते हैं.. जो तकरीबन मुफ्त हैं.. एडवर्टीजमेंट के सस्ते और कारगर उपाय और माध्यम अभी एडवर्टाइजर्स को पता नहीं चले हैं, या बहुत नवजात हालत में हैं... जैसे रीयल इस्टेट, ऑटोमोटिव, एजूकेशन आदि के विज्ञापन धीरे धीरे ऑनलाइन हो रहे हैं.. और ये भी तय है कि अखबार केवल एडवर्टाइजर के लिए नहीं छप रहे.. तो किसके लिए छप रहे हैं.. इस सवाल का जवाब आगे...पहले उन बिंदुओं पर बात कर ली जाए जो शुरू में उठाए गए थे...

अखबारों को बचाने की कोशिश या उनके हक में हर आवाज दरअसल एक तरह का नॉस्टेल्जिया ही है.. जो हमारी पीढ़ी तक चल रहा है.. लेकिन हमारे बाद? 

पत्रकारिता चाहे अखबार में हो, लैपटॉप या डेस्कटॉप पर, ब्लैकबेरी पर या पॉडकास्ट के बतौर या फिर किंडल (बुक रीडर) पर...हर जगह उसे साबित करना ही होता है..कि वो जनता की आवाज के हक में खड़ी है.. और स्टेट का विकल्प दे रही है... लेकिन फिर अखबार ही क्यों? 

यकीनन कंटेंट अपने माध्यम के साथ बदल जाता है...चाहे वो घटिया ढंग से बदले या बेहतर से.. हम खबर के रूपांतरण के दौर में जी रहे हैं.. शायद कल न तो अखबार होगा और न टेलीविजन.. 
और ये अखबार इस देश में आज अगर बिक रहे हैं तो उनकी वजह से जिनके लिए वो छापे ही नहीं जा रहे...शायद 

27/4/09

गूगल मार रहा है अखबारों को

अखबार संकट में हैं...उनके रेट नीचे गिर रहे  हैं और ज्यादा से ज्यादा लोग इंटरनेट की तरफ बढ़ रहे हैं... और इसका दोष है गूगल  के माथे... वो मुफ्त में ऐसा कंटेंट दे रहा है, जिसके लिए अब तक अखबार और  मैग्जीन पैसा वसूलते थे... तो क्या गूगल अखबारों को खत्म करने में जुटा है...

दरअसल, अगर आप साफ तौर पर देखें तो ये गूगल की  गलती नहीं...बल्कि ये गलती है अखबारों और मैग्जीन की, जो खुद को वक्त के साथ ढाल पाने में नाकाम रहे हैं...देखा जाए तो गूगल अखबारों की मदद कर रहा है...मुफ्त में ढेर सारा कंटेंट मुहैया कराकर... जिसके लिए अखबार को कोई पैसा नहीं देना  पड़ता...गूगल न्यूज समेत ढेरों वेबसाइट्स पर मौजूद खबरें और एडऑन जानकारियां  अखबारों को और ज्यादा समृद्ध बना रही हैं... 

दूसरी बात गूगल खबरें चुराता नहीं, बल्कि वो  उनमें से बेहतरीन को छांटता है और उनके लिंक उठाकर लोगों तक पहुंचा देता है... गूगल न्यूज के पेज पर कोई विज्ञापन भी नहीं होता.. अब अगर ऐसे में किसी अखबार के रेट गिर रहे हैं और विज्ञापनदाता उससे हाथ खींच रहे हैं तो गलती किसकी है… गलती अखबार की है…

तरीका है… अखबार के इलेक्ट्रॉनिक वर्शन को मानक बनाकर प्रिंटेड वर्शन को महंगा और स्तरीय बनाना… इस बात को आप भूल जाएं कि लोगों को अखबारी कागज की खुशबू और उसका अहसास अच्छा लगता है इसलिए वो इसे खरीद रहे हैं… वो दरअसल खबर पाने के आसान से आसान तरीके की तलाश में हैं और जैसे ही इंटरनेट ने उन्हें ये मुहैया कराया वो वहां चले गए…

इसलिए अखबार के इलेक्ट्रॉनिक वर्शन को जल्द से जल्द ईमेल के जरिए अपने सब्सक्राइबर के मेलबॉक्स में पहुंचाना जरूरी है… और इसमें भी आसान तरीका इख्तियार करना जरूरी होगा..केवल दिन की खबरें देने से हटकर ऐसी खबरें देनी होंगी जो रियलटाइम हैं… जिनकी अहमियत इंसान के दिन और उसकी सोच पर असर डालती हो…लेकिन ब्रेकिंग खबरों के साथ साथ न्यूज डाइजेस्ट भी जरूरी होंगी… 

गूगल से लड़ने के बजाय उससे फायदा उठाने का तरीका अपनाना होगा… उसके पास ऐसे ढेरों उपकरण हैं जो अखबार की मदद कर सकते हैं…तो एक अखबार को क्या गूगल से लड़ना चाहिए या गूगल की  मदद लेने का तरीका ढूंढना चाहिए…

9/4/09

उन दिनों विश्वविद्यालय हुआ करते थे...

अखबार मर रहे हैं... क्या अगला नंबर यूनिवर्सिटी का है... ये सवाल भारत में भारतीयों के लिए अहमियत बेशक न रखता हो... लेकिन वो वक्त दूर नहीं जब जल्द ही ये हमारे दरपेश भी होगा... पश्चिमी दुनिया अखबारों की मौत को नहीं रोक पा रही...लेकिन इससे बहुत परेशान तो है ही...(क्योंकि अभी भी कागज से रोमांस बाकी है...) तो क्या पश्चिम में यूनिवर्सिटीज भी अखबारों के रास्ते पर हैं...शायद... 

लॉस एंजेलेस टाइम्स और शिकागो ट्रिब्यून की मालिक कंपनी ट्रिब्यून दिवालिया हो चुकी है...यही हाल फिलाडेल्फिया इन्क्वायरर का है... रॉकी माउंटेन न्यूज डेढ़ सौ साल के सफर के बाद हाल ही में मर गया... सिएटल पोस्ट इंटेलीजेंसर भी असल दुनिया से साइबर दुनिया में शिफ्ट हो चुका है... सेन फ्रैंसिस्को क्रॉनिकल शायद साल का अंत न देख सके... न्यूयॉर्क टाइम्स का कर्ज इतना बढ़ चुका है कि वो उसके नीचे कराह रहा है... हमारी अर्थव्यवस्था तकरीबन इसी ढांचे पर है तो बहुत मुमकिन है कि किसी अगली मंदी या बाजार की गिरावट में आप भारत में भी किसी सौ साल के उम्रदराज अखबार को दम तोड़ता देखें... ये तो साफ ही है कि भारत में भी अखबार अब घाटे के सौदे में तब्दील हो रहा है...

लेकिन ये तो बात हुई अखबारों की... उन्हें कौन मार रहा है ये आप भी जानते हैं...हम बात कर रहे हैं सालाना लाखों पढ़े लिखे लोगों की फौज तैयार करने वाली यूनिवर्सिटीज की...हाल ही में इसकी चर्चा देखने को मिली...वाशिंगटन के एक थिंकटैंक ने ये सवाल उठाया है... उसका कहना है कि दोनों ही इंडस्ट्री इन्फॉर्मेशन यानी सूचना के निर्माण और संचार में जुटी हैं... 

मगर पढ़ाने का काम पीआर और एडवर्टाइजिंग के मुकाबले ज्यादा जटिल है...वहां दिमाग को तराशने-संवारने का काम होता रहा है...इसलिए थोड़ी दिक्कतें हैं...इसके अलावा ज्यादातर विश्वविद्यालय अभी तक सरकारी मदद और सरकारी ढांचे के सहयोग से ही चलते हैं...अभी तक विश्वविद्यालय किसी खुले बाजार की प्रतियोगिता में नहीं उतरे हैं...उनके पास राष्ट्रीय कमीशनों की जो मान्यताएं हैं, वो उस आजादी को भोग रहे हैं...तो उन्हें खतरा कहां से है...विश्वविद्यालयों को कौन मार सकता है...

कुछ बातों पर गौर करें...जो शख्स इंटरनेट पर क्लासीफाइड विज्ञापन बेच सकता है, विचारों के कॉलम चला सकता है, खबरों का विश्लेषण कर सकता है, वो इंटरनेट पर मान्यता प्राप्त डिग्री भी बेच सकता है... बाकायदा आपके यूनिवर्सिटी जाए बिना आपको घर बैठे कोर्स करा सकता है... करा रहा है...और सब चीजें सिर्फ क्रैडिट या डेबिट कार्ड के जरिए...भरोसेमंद ढंग से...बेशक आज विश्वविद्यालय खुद पर उतना ही नाज कर सकते हैं और कर रहे हैं जितना 10 साल पहले तक अखबारों को अपने ऊपर था...ये यकीन कई मायनों में ठीक भी था...क्योंकि उनकी जरूरतें पूरी करने के तरीके को सीधे कोई चुनौती नहीं थी... मगर अब है... 

अगर विश्वविद्यालयों को जिंदा रहना है और फलना-फूलना है तो उन्हें टैक्नोलॉजी और शिक्षण को इस तरह बुनना पड़ेगा कि सीखने-जानने का अनुभव उसके छात्रों पर बोझ की तरह न लद जाए...जो अभी हर जगह देखने में आ रहा है...उन्हें अपनी ट्यूशन फी भी घटानी ही होंगी...इसलिए क्योंकि अब सबसे तेज और जहीन छात्र भी एक भी बोरिंग लैक्चर अटैंड किए बगैर सबसे ज्यादा नंबर पाने की ख्वाहिश रखता है...वो सीखने के और तरीके जानता है... जिसमें एकतरफा तौर पर पैसिव ढंग से सिर्फ मूर्खों की तरह सुनने से ज्यादा इंटरेक्टिव तरीके शामिल हैं...जहां उसे भी सुनने वाले हैं...

सीखने के बारे में अभी तक यूनिवर्सिटी मानती रही हैं कि एक ही पाजामा सभी को पहनाया जा सकता है... ऐसी शिक्षण पद्धति जिसमें शिक्षक केंद्र में होता है और हाशिए पर होते हैं छात्र, जिनके लिए वो यूनिवर्सिटी चल रही है... जो साल दर साल जमाने का उच्छिष्ट बांट रही हैं... और लाखों-करोड़ों बेरोजगारों की फौज खड़ी कर रही हैं... जिनके पास इस फौज को उम्मीद की एक किरण भी देने के लिए नहीं है... इसलिए ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि अगर पूरी की पूरी पीढ़ी ही इस मॉडल का बायकॉट कर दे...ताज्जुब नहीं कि एक दिन विश्वविद्यालयों की बातें आत्मकथाओं का हिस्सा बन जाएं...कुछ इस तरह... उन दिनों विश्वविद्यालय हुआ करते थे...

16/3/09

जब एक अखबार मरता है...

हाँ, जब एक अखबार मरता है तो सिर्फ अखबार ही नहीं मरता...
समय का वो टुकड़ा हमेशा के लिए मर जाता है...जिसे हम जानते आए हैं...
जब एक अखबार मरता है तो उस शहर की चेतना का एक हिस्सा भी उसके साथ खत्म हो जाता है
जब एक अखबार मरता है तो उस समाज और समुदाय का एक पक्ष विक्षत हो जाता है
जब एक अखबार मरता है तो किसी की जीत नहीं होती, पूरा शहर हार जाता है
जब एक अखबार मरता है तो उस समुदाय की कहानियां मर जाती हैं किस्सागो के साथ
जब एक अखबार मरता है तो उस शहर की स्मृति भी छिन्न-भिन्न हो जाती है
जब एक अखबार मरता है तो वो स्वर और प्रतीक गायब हो जाते हैं जो पूरे समुदाय के लिए अहमियत रखते थे

अमेरिका के डेढ़ सौ साल के उम्रदराज अखबार 
रॉकी माउंटेन न्यूज की 3 मार्च 2009 को मौत हो गई...रॉकी के साथ ही कोलोरैडो और डेनवर के ऐतिहासिक समय, स्मृतियों और चेतना का एक हिस्सा भी दफन हो गया... रॉकी अमेरिका का 21वां सबसे पुराना अखबार था...

इन डेढ़ सौ साल के वक्त में इस अखबार के कई संपादक अगवा हुए, उन्हें गोली मारी गई, उनको पीटा गया और उन्हें जलाया गया... उन्होंने कॉमनवेल्थ बनाए, विश्वविद्यालय खड़े किए, वो पहाड़ों पर चढ़े...उन्हें अपने दफ्तर पहुंचने से रोका गया...लेकिन वो कभी नहीं डरे, कभी झुके नहीं...तब भी नहीं जब शायद सिर्फ यही एक रास्ता बचा था...

तो ऐसा क्या हुआ कि इतने बेखौफ अखबार के डेढ़ सौ साल के सुनहरे अतीत पर एकदम झिलमिली पड़ गई... खुद अखबार के संपादक मानते हैं कि उन्हें बुरे लोगों और विरोधियों ने नहीं उनके ही पाठकों ने परास्त कर दिया... उन्हें इंटरनेट ने हरा दिया...क्योंकि लोग डेढ़ सौ साल से कागज पर छपते अखबार को पढ़कर ऊब गए थे...आप इसे दुखद कह सकते हैं...लेकिन रॉकी माउंटेन न्यूज ने अमेरिकी पूंजीवाद का वार भी झेल लिया था... उसे उन्हीं ने हरा दिया, जिनके लिए वो छपता रहा...

इस अखबार ने सिर्फ कोलोरैडो के इतिहास की गौरवगाथाएं ही दर्ज नहीं कीं... उसके पन्नों पर शहर की बर्बरता और उसका अत्याचार भी दर्ज हुए...सभी मील के पत्थरों की रिकॉर्डिंग और तकरीबन सभी मसलों पर बेबाक राय भी उसी स्याही से दर्ज की गई... लेकिन अब ये एक इतिहास हो चुका है... कुछ भी हो, कोलोरैडो का कोई भी बाशिंदा रॉकी माउंटेन न्यूज पर कभी ये आरोप नहीं लगा सकेगा कि उसने उनके हक के लिए जद्दोजहद छोड़ दी थीं...रॉकी के संपादकों का कहना है कि बेशक कई बार वो अपने झुकाव की वजह से जनहित में गलत भी साबित हुए लेकिन फिर भी ज्यादातर ऐसे मौके आए, जब अखबार और उसके रिपोर्टरों ने जो भी कदम उठाया, कोलोरैडो के हित में ही गया...

इस अखबार की मौत की खबर अखबार के लोगों को पहले ही मिल चुकी थी...जो भी अखबार से जुड़ा था, चपरासी से लेकर रिपोर्टर और एडिटर तक...सभी के लिए रॉकी माउंटेन न्यूज एक ऐसी संस्था थी, जिसके बगैर उनकी जिंदगी अधूरी थी...

कुछ लोग कहते हैं कि वो अखबारों से पीछा छुड़ाना चाहते हैं... उन्हें दूसरे रास्तों से मिल रही सूचनाओं और खबरों की बाढ़ के बीच अब और ज्यादा अखबारों की जरूरत नहीं है... उनका ये भी कहना है कि वो खबरें खरीदें ही क्यों जब उन्हें वो मुफ्त में हासिल हैं...इन लोगों के लिए रॉकी के संपादकों का कहना था कि वो जनता के इन तर्कों को अच्छी तरह समझते हैं कि पिछले एक दशक में सूचना पाना कितना आसान और सस्ता हो गया है... और उन्होंने भी बतौर अखबार इसका फायदा उठाया है...जाहिर है अपनी खबरों के चुनाव और झुकाव में कोई अखबार गलती करता है और कर सकता है...लेकिन औसतन वो दूसरे माध्यमों जैसे टीवी के मुकाबले कम सेलेक्टिव और कम झुकाव रखने वाला होता है...और इस वक्त इस कमी को पूरा करने में कोई खबर माध्यम सक्षम नहीं है...

इस अखबार के संपादकों की असल चिंता है स्थानीय पत्रकारिता... और उसका भविष्य...उन्हें रॉकी की मौत का इतना दुख नहीं जितना 
rocky_news.jpgशहर की जिंदगी को दर्ज करने वाली एक संस्था के बंद होने का है...और पूरे अमेरिका में लोग स्थानीय अखबारों को बंद होता देख रहे हैं... लेकिन ये सवाल क्यों उठा रहे हैं... उनकी राय में एक अखबार जिस तरह मेहनत के साथ छोटे-छोटे स्कूलो, जिलों, शहर प्रशासन, पुलिस एजेंसियों और कानूनी सवालों पर लोगों की  नजर में लाता है... वो दूसरे माध्यमों के लिए अभी भी काफी मुश्किल है...क्योंकि अच्छी रिपोर्टिंग ही वो चीज है जिस पर स्थानीय स्तर पर लोकतंत्र काम करता है...

रॉकी को बनाने में उसके रिपोर्टरों और संपादकों ने अपना खून और पसीना दोनों लगाए... बेहद प्रतिस्पर्धा में रॉकी पर जबर्दस्त अनिश्चितता हावी रही लेकिन रॉकी को चलाना कोई रहस्य या जादू नहीं था, ये सब जानते थे...लोग अखबारों की प्रतिस्पर्धा को तो समझते हैं लेकिन वो नहीं जानते कि दो अखबारों की दुश्मनी की गहराई कितनी और कैसी होती है...रॉकी ने डेनवर में अपने प्रतिद्वंद्वियों से कुछ ऐसे युद्ध लड़े, जिन्हें आज भी अमेरिकी अखबारों के सबसे जुझारू संघर्षों के बतौर याद किया जाता है...कई बार उसने अस्तित्व के संकट का सामना किया और हर बार वो विजयी होकर निकला...खुद को उसने फिर से तराशा, संवारा और फिर से पाठकों के हाथ में पहुंचा नए कलेवर के साथ...

अखबार में लगातार घाटा बढ़ रहा था... जो 2008 में 1 अरब 50 करोड़ रुपए तक पहुंच गया... क्लासीफाइड रेवेन्यू लगातार घटती गई...पिछले एक दशक से सर्कुलेशन भी कम हो रहा था क्योंकि लोगों की आदतें बदल रही थीं...2007 में कोलोरैडो से ज्यादा सिर्फ 8 ऐसे राज्य थे जहाँ अखबारों का सर्कुलेशन ज्यादा दर्ज किया गया...खास बात ये थी कि डेढ़ सौ साल पहले जिन चीजों की वजह से रॉकी माउंटेन न्यूज में उसके मालिक विलियम बायर्स ने जान फूंकी थी, वही चीजें अब उसकी मौत की वजह बन गईं...

सब जानते हैं कि ये बुरा दौर है... बहुत से उद्योग बंद हो रहे हैं.. ऐसे वक्त में हम आपको बता दें कि अखबार बंद नहीं होते... वो बस मर जाते हैं.. दुनिया बाकी व्यवसायों के बगैर काम चला लेती है...लेकिन लोगों के जीवन को दर्ज करने वालों की जरूरत हर दिन होती है...यूं तो हर बिजनेस हाउस के पास तिमाही दर तिमाही अपनी कामयाबी दिखाने का मौका होता है लेकिन एक अखबार की कामयाबी का पैमाना होती हैं उसकी स्टोरीज, उसकी खबरें... हालांकि अखबार के पास इतिहास दर्ज करने के लिए इतिहासकारों जैसा नहीं होती... वो आपका भोगा हुआ इतिहास तुरंत आप तक पहुंचा देते हैं...चूंकि कोई भी अखबार कभी गलती मुक्त या परफेक्ट नहीं होता, लेकिन ये अखबार ही होता है जो हमेशा सही होने की कोशिश करता रहता है...इसके बावजूद कि उसे सही होने में 24 घंटे लगते हैं...

पाठक और रॉकी के विरोधियों दोनों को ही रॉकी की कमी खलेगी और बुरी तरह सालेगी...डेनवर शहर को अब सिर्फ एक अखबार से काम चलाना होगा, 100 साल में पहली बार...
(hindimedia.in पर 7 मार्च 2009 को प्रकाशित)

नदी

क्या नदी बहती है  या समय का है प्रवाह हममें से होकर  या नदी स्थिर है  पर हमारा मन  खिसक रहा है  क्या नदी और समय वहीं हैं  उस क्षैतिज रेखा पर...