13/5/09

जिंदगी का आखिरी इम्तिहान बनाम नेचुरल सेलेक्शन

पापा कहते थे बड़ा नाम करेगा.. लेकिन वही बेटा अब खामोश है.. बेटी खामोश हो गई है हमेशा के लिए.. और जानते हैं पापा की तमन्ना क्यों पूरी नहीं होगी.. उन लोगों की वजह से जिनको न तो पापा जानते हैं और न वो बेटा.. जो अब कभी नहीं उठेगा..क्या दसवीं का रिजल्ट इतना घातक हो सकता है..इधर दसवीं के नतीजे आ रहे थे और उधर रीवा के संजय गांधी अस्पताल में एक के बाद एक बच्चे पहुंच रहे थे..सबकी एक ही दास्तां..सबकी एक ही कहानी...मध्य प्रदेश में इस साल 10वीं के रिजल्ट ने 6 बच्चों की जिंदगी छीन ली है..

इतने घातक इम्तिहान कि एक के बाद एक किशोर जिंदगियों को दुनिया से बेजार करके रख दें.. क्या इम्तिहान इतना खतरनाक हो सकता है कि मासूम के दिमाग को इस दुनिया के लिए नफरत से भर दे..हां, ये मुमकिन है.. बिल्कुल मुमकिन है.. क्योंकि अभी तक तो हमारा पैमाना परीक्षाएं ही रही हैं जो तय करती हैं कि हम कितने होशियार हैं.. हम कितने जहीन हैं.. कितने समझदार हैं.. और कितने इंटेलेक्चुअल हैं..इम्तिहान लेने वाला दिमाग भी खुद को बहुत इंटेलेक्चुअल इसीलिए महसूस करता है क्योंकि उसने इम्तिहान दिए हैं और पास किए हैं..जाहिर है उसके लिए एक और अकेला यही पैमाना है.. 

मुझे लगता है कि ये अकेडमिक आतंकवाद है.. और इम्तिहान लेने वाले, उनके आधार पर किसी भी व्यक्ति की जिंदगी को सफल-असफल करार देने वाले अकेडमिक आतंकवादी.. ये आतंकवादी आपके बच्चों के दिमाग को जहर से भर रहे हैं.. और चेतन तौर पर ये महसूस करा रहे हैं कि बगैर किसी परीक्षा को पास किए ये जिंदगी बेकार होगी.. ये बात आपको भी मंजूर है और आपने मन ही मन कबूल कर ली है..क्योंकि जैसे-तैसे आपने भी इम्तिहान तो पास किया ही था.. और अब बारी है आपके मासूमों की... 

नतीजे आए तो रीवा में दो, छतरपुर, दतिया, गुना औऱ राजगढ़ में कुछ बच्चों ने पाया कि वो फेल हो गए हैं.. और वो जिंदगी भी क्या जो फेल होकर, अपने मां-बाप और अकेडमिक आतंकवादियों की नजर में दोयम बनकर जीनी पड़े..(ये तर्जुमानी मेरी है..हो सकता है इन मासूमों ने इन्हीं शब्दों में न सोचा हो, लेकिन तकरीबन ऐसा ही सोचा होगा).. इन छह बच्चों ने खुदकुशी कर ली... 

स्नेहा डॉक्टर बनने का सपना पाल रही थी...सत्रह साल की स्नेहा रीवा के रेवांचल पब्लिक स्कूल में पढ़ती थी.. लेकिन डॉक्टर बनने का सपना तभी टूट गया जब उसने पाया कि वो दसवीं में फेल हो गई है..लगा कि ये तो बहुत बड़ा सितम है..उसने किसी तरह जहर हासिल किया और खा लिया..डॉक्टर के अधूरे सपने के साथ ही स्नेहा चली गई.. 
रविकांत चक्रधर हायर सेकण्डरी स्कूल में पढ़ता था.. उसने भी दसवीं की परीक्षा दी थी..वही परीक्षा जो उसके लिए मौत का संदेश लेकर आई थी..ज़हर खाकर उसने जान दे दी.. 
विष्णु ने दोबारा दसवीं का इम्तिहान दिया था..पिछली बार फेल होने पर इतनी लानत-मलामत हुई थी कि इस बार वो कोई चांस नहीं लेना चाहता था.. इस किशोर ने भी फाँसी लगा ली..लेकिन मां-बाप को वक्त पर पता चला और वो उसे लेकर अस्पताल पहुंच गए.. किस्मत से विष्णु बच गया.. 
लेकिन दतिया का रिंकेश खुशनसीब नहीं था...16 साल के रिंकेश को मौत का एक रास्ता दिखाई दिया..सामने से आती ट्रेन..जो उसे उसके सपनों के साथ रौंदकर निकल गई...चिरूला हाईस्कूल में पढ़ने वाला रिंकेश भी सदमे में था..वजह थी बिजली, जो परीक्षाओं से ऐन पहले गुल हो गई थी और तब आई जब रिंकेश की जिंदगी खत्म हो चुकी थी...
राजगढ़ ज़िले के खिलचीपुर में शिवचरण ने ज़हर खाया.. अपनी मां को वो ये कहकर चला गया कि 'छोटे भाई को पढ़ाना, मैं इस काबिल नहीं'.. 
गुना में राजकुमार ने पंखे से लटककर फांसी लगा ली..उसकी मेज पर इंटरनेट से निकाली गई उसकी दसवीं की मार्कशीट मिली.. 
छतरपुर में पूनम ने भी फांसी लगाकर जान दे दी.. किसी भी साइकिएट्रिस्ट ने ये नहीं कहा कि ये गलती अकेडमिक टैररिस्ट की है.. सबने इसके लिए मां-बाप की जिम्मेदारी तय कर दी..

ये कुछ नाम भर हैं और वो भी सिर्फ एक राज्य के..हर बार जब इम्तिहान होंगे..इस सूची में कुछ और नाम जुड़ जाएंगे..ये सिलसिला साल दर साल चलेगा, लेकिन क्या इसका मलाल होना चाहिए कि आपके बच्चे इम्तिहान में खरे नहीं उतरे..
जब तक इम्तिहान हैं, खुदकुशी होंगी, क्योंकि सभी पास नहीं होंगे..जो पास नहीं होंगे वो डार्विन के नेचुरल सेलेक्शन के नियम को चुनेंगे..जो बच जाएंगे, वो योद्धा कहलाएंगे..क्योंकि हम इम्तिहान इसलिए देते हैं कि हमें जीतना है..लेकिन शायद ये भी कहीं लिखा है कि कोई भी इम्तिहान जिंदगी का आखिरी इम्तिहान नहीं होता...

11/5/09

किसे चाहिए अखबार?

किसे चाहिए वो अखबार, जिसमें एक कमांड के जरिए खबरें सर्च न की जा सकें...
किसे चाहिए वो खबर जो आपके कंप्यूटर, मोबाइल और पामटॉप पर सेव न की जा सके..
किसे चाहिए वो खबर जिसे आप 21वीं सदी में भी किसी को भेजकर पढ़ा ही न सकें...
किसे चाहिए वो खबर जिस पर आप दूसरों के साथ राय-मश्विरा न कर सकें, बगैर कंटेंट की तर्जुमानी किए...
किसे चाहिए वो खबर, जिसे आप दूसरी खबरों के साथ नाप-तोल न कर सकें, लिंक न कर सकें...
किसे चाहिए वो अखबार जो सुबह ऑफिस जाने से पहले न पढ़ा जा सके और रात तक सड़ जाए..
किसे चाहिए वो अखबार जो आपको ध्वनि और दृश्य से दूर रखकर सिर्फ सोचने तक छोड़ दे...

ये बहस के कुछ बिंदु हैं जो शुरू हुई है और चल रही है...लेकिन न्यूजपेपरमैन का ही इससे सरोकार नहीं क्योंकि वो अपनी नौकरी से ज्यादा नहीं सोचता...(हालांकि अखबार का उपभोक्ता वो भी है).. मालिक को इसलिए नहीं कि अभी कोई सीधी चुनौती नहीं मिली है...

ये बहस टैक्नोलॉजी की नहीं है...अगर लोग ये सोचते हैं तो शायद गलत होगा...ये बहस है स्वाद की...बदले हुए जायके की...ये बहस है हमारे वक्त में अखबारों के लगातार जायके में रुकावट पैदा करने की...

देश में बड़े-बड़े कई अखबार हैं... हिंदी के भी और अंग्रेजी के भी.. लेकिन उनमें न तो ठीक से इंटरनेशनल कवरेज होता है (हिंदी में तकरीबन नहीं) और न पूरी तरह नेशनल (नेशनल में पश्चिमोत्तर, पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत भी शामिल है, केवल उत्तर नहीं, हिंदी में ये बिल्कुल नहीं)...सभी खुद को राष्ट्रीय कहने में जरा भी शर्म महसूस नहीं करते..जबकि ज्यादातर का फोकस लोकल है.. या महानगरीय.. ज्यादातर के फ्रंटपेज पर सबसे बड़ी और अहम खबरें एजेंसी की छपती हैं...उनके पास या तो रिपोर्टर्स नहीं हैं या फिर उनका फोकस नहीं है.. इन्वेस्टिगेशन के नाम पर सिटी के बेहद मामूली विभागीय घोटाले या फिर किसी से स्पांसर्ड खबर का प्रस्तुतिकरण...

तो क्यों न इनकी मौत होगी..सिर्फ सूचना पाने के लिए तो बहुत से और माध्यम और रास्ते हैं.. जो तकरीबन मुफ्त हैं.. एडवर्टीजमेंट के सस्ते और कारगर उपाय और माध्यम अभी एडवर्टाइजर्स को पता नहीं चले हैं, या बहुत नवजात हालत में हैं... जैसे रीयल इस्टेट, ऑटोमोटिव, एजूकेशन आदि के विज्ञापन धीरे धीरे ऑनलाइन हो रहे हैं.. और ये भी तय है कि अखबार केवल एडवर्टाइजर के लिए नहीं छप रहे.. तो किसके लिए छप रहे हैं.. इस सवाल का जवाब आगे...पहले उन बिंदुओं पर बात कर ली जाए जो शुरू में उठाए गए थे...

अखबारों को बचाने की कोशिश या उनके हक में हर आवाज दरअसल एक तरह का नॉस्टेल्जिया ही है.. जो हमारी पीढ़ी तक चल रहा है.. लेकिन हमारे बाद? 

पत्रकारिता चाहे अखबार में हो, लैपटॉप या डेस्कटॉप पर, ब्लैकबेरी पर या पॉडकास्ट के बतौर या फिर किंडल (बुक रीडर) पर...हर जगह उसे साबित करना ही होता है..कि वो जनता की आवाज के हक में खड़ी है.. और स्टेट का विकल्प दे रही है... लेकिन फिर अखबार ही क्यों? 

यकीनन कंटेंट अपने माध्यम के साथ बदल जाता है...चाहे वो घटिया ढंग से बदले या बेहतर से.. हम खबर के रूपांतरण के दौर में जी रहे हैं.. शायद कल न तो अखबार होगा और न टेलीविजन.. 
और ये अखबार इस देश में आज अगर बिक रहे हैं तो उनकी वजह से जिनके लिए वो छापे ही नहीं जा रहे...शायद 

नदी

क्या नदी बहती है  या समय का है प्रवाह हममें से होकर  या नदी स्थिर है  पर हमारा मन  खिसक रहा है  क्या नदी और समय वहीं हैं  उस क्षैतिज रेखा पर...