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25/2/11

मिलिटेंट इस्लाम को चुनौती!

मिस्री क्रांति का मतलब है मुस्लिम ब्रदरहुड की ताकत में इज़ाफ़ा जो मध्यपूर्व में अल कायदा के लिए मुसीबत का सबब होने वाला है..
18 दिन की जद्दोजहद के बाद तहरीर स्क्वेयर पर एक तहरीर लिखी गई- मुबारक के रुख़्सतनामे की। ट्यूनीशिया में एक बेरोजगार की ख़ुदकुशी ने राष्ट्रपति ज़िने अल आबेदीन बेन अली को इतना मजबूर कर दिया कि उन्हें 14 जनवरी को गद्दी छोड़नी पड़ी। ट्यूनीशिया में 23 साल की तानाशाही का अंत मिस्री अवाम को इतनी ताकत दे गया कि राष्ट्रपति होसनी मुबारक को 30 साल की हुकूमत को बेमन से ही सही, अलविदा कहना पड़ा।

अरब मुमालिक में मिस्र का ढहना पूरे अरब में लोकतंत्र के नाम पर चल रही राजशाहियों के लिए ख़तरे की घंटी है। नई दुनिया में और वो भी अरब में जम्हूरी तौर-तरीकों के ज़रिये तख़्तापलट ताज्जुब से कम नहीं, लेकिन यही हक़ीक़त है। सवाल ये है कि दुनिया के लिए मिस्री बग़ावत के मतलब क्या हैं। एक तो यह कि खून बहाए बिना भी अवाम हक की आवाज बुलंद कर सकती है और अगर चाहे तो टैंकों की नालें झंडे फहराने के काम में लाई जा सकती हैं। दूसरे, अब बम और गोलियां नहीं, फेसबुक, ट्विटर और सोशल नेटवर्किंग इन्किलाब का हथियार हैं। तीसरे, अरब दुनिया में बैठे तानाशाह अपनी उम्र पूरी कर चुके हैं। चौथे, अब अमेरिका को अरबों का दिल जीतने में एक सदी लग जाएगी। पांचवें, पैट्रो डॉलर की सियासत और कारोबार अब अमेरिका तय नहीं कर पाएगा। छठे, अरब दुनिया में लोकतंत्र की बुनियाद राजनीतिक इस्लाम के साथ डाली जाएगी। सातवेंअरब का सबसे पुराना सियासी संगठन अल इख्वान अल मुस्लिमीन यानी मुस्लिम ब्रदरहुड पूरी ताकत के साथ खड़ा होगा और आठवीं अहम बात, अल कायदा के मिलिटेंट इस्लाम को चुनौती देगा ख़ुद अल क़ायदा का मादरेवतन, उसकी अपनी ज़मीन।

अगर मिस्री बग़ावत को पेशेनज़र रखें तो इसकी शुरुआत महज़ एक इंटरनेट बिगुल से हुई थी, जो बाद में काहिरा, इस्कंदरिया और स्वेज से आगे बढ़कर पूरे मिस्र में बजने लगा। काहिरा की तहरीर स्क्वेयर इसका सेंटरस्टेज बनी, जिस पर लड़ी गई 18 दिन की जंग ने मुबारक से उनका ताज छीन लिया। मगर, असल में तहरीर की जंग में अवाम के साथ था एक ऐसा संगठन जिसे 30 साल से मुबारक ने दबा-कुचल रखा था। ये है- अल इख्वान अल मुस्लिमीन यानी मुस्लिम ब्रदरहुड। इख्वान ने पर्दे के पीछे रहकर मिस्री अवाम को हौसला दिया और एक प्लेटफॉर्म पर खड़े होने की ताकत दी। यहां तक कि वह वक्त भी आया जब होसनी मुबारक ने अपनी गद्दी बचाने की आखिरी कोशिश में अल इख्वान अल मुस्लिमीन को बातचीत की टेबल पर बुलाया। मगर तब तक देर हो चुकी थी।

होसनी मुबारक की हुकूमत ने मुल्क को निचोड़कर रख दिया था। मिडिल ईस्ट में अमन का वास्ता देकर वह शाहों की तरह बर्ताव करता रहा। लेकिन मुस्लिम ब्रदरहुड का दामन भी पाक नहीं था। उस पर एक प्रधानमंत्री और एक राष्ट्रपति के खून का दाग़ था। राष्ट्रपति अनवर सादात की हत्या के बाद मुबारक ने सत्ता हासिल की और आते ही पहला काम किया मुस्लिम ब्रदरहुड पर पाबंदी। इख्वान से जुड़ा शख्स जब और जहां मिला, कैद में डाल दिया गया। बहुतों का सफाया कर दिया गया और बड़ी तादाद में ब्रदर्स मिस्र छोड़कर भाग गए। कुछ अंडरग्राउंड हो गए। 30 साल बाद वो होसनी मुबारक को चुनौती देने के लिए फिर पूरी ताकत से उठे और उन्हें साथ मिला आम मिस्री का। दोनों का मकसद एक था और दुश्मन एक।

1928 में एक एलीमेंट्री टीचर हसन अल बन्ना के दिमाग की उपज था अल इख्वान अल मुस्लिमीन। खिलाफत के खात्मे के बाद पैदा हुए निर्वात को भरने के लिए ऐसे निज़ाम की ज़रूरत थी- जो पूरी दुनिया के मुसलमानों को एक झंडे के नीचे खड़ा कर सके और खलीफा जैसी मरकज़ी ताकत और अहमियत हासिल कर सके। मुस्लिम ब्रदरहुड का नारा था- इस्लाम इज़ सॉल्यूशन.. यानी इस्लाम ही अकेला हल है। अल इख्वान को मुसलमानों की मज़हबी, समाजी और सियासी जरूरतों के लिए लाइटहाउस के बतौर देखा गया। जिसकी चाहत थी दुनिया में सुन्ना और शरिया का राज। सिर्फ 20 साल में ही मुस्लिम ब्रदरहुड पूरे मध्यपूर्व में फैल गया। ये कोई संगठन नहीं बल्कि एक आंदोलन था। मज़हब और एजुकेशन के साथ-साथ सियासत में भी उन्होंने पैठ बना ली।

मिस्र पर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ अल इख्वान ने जंग छेड़ दी। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान इनके संबंध नाज़ियों से भी रहे, जिसका पता काफी दस्तावेज़ों से चलता है। यहां तक कि मुस्लिम ब्रदरहुड ने हिटलर की आत्मकथा का अरबी में तर्जुमा कर बंटवाया था जिसने यहूदियों और पश्चिमी दुनिया के देशों के खिलाफ मुसलमानों के मन में ज़हर भरने का काम किया 1948 में अरब-इज़रायल युद्ध में हार से भी अल इख्वान तिलमिला गया। उसने मिस्री सरकार पर आरोप लगाया कि वो इज़रायल से हाथ मिला चुकी है। खुद मुस्लिम ब्रदरहुड ने इज़रायल के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया और पूरे मिस्र में दहशतगर्दी कायम कर दी। मिस्री सरकार ने अल इख्वान पर पाबंदी लगा दी। दिसंबर 1948 में मिस्री प्रधानमंत्री महमूद फहमी नूकराशी की हत्या कर दी गई। फिर खुद इख्वान का जन्मदाता बन्ना 1949 में सरकारी एजेंट्स के हाथों मारा गया। अपने जन्म के वक्त हिंसा के खिलाफ रहे अल इख्वान अल मुस्लिमीन के जन्मदाता की मौत ख़ुद गोली से हुई।

मिस्र में 1952 की क्रांति के बाद नासिर ने सत्ता हाथ में ली। मुस्लिम ब्रदरहुड ने इस क्रांति का समर्थन किया क्योंकि उसे लगा कि राजशाही ब्रिटिश साम्राज्यवाद की पिट्ठू थी। मुस्लिम ब्रदरहुड को यकीन था कि अब मिस्र में इस्लामी राज कायम होगा.. लेकिन राष्ट्रपति गमाल अब्दुल नासिर ने साफ इनकार कर दिया। इसके बाद 1954 में नासिर की हत्या की कोशिश की गई। नतीजतन 1954 से लेकर 1970 तक नासिर सरकार ने मुस्लिम ब्रदरहुड को पूरी तरह बिखेर दिया। इसके सदस्यों के खिलाफ बाकायदा दमन का सिलसिला चला। फांसी और गिरफ्तारियों के दौरान बहुत से ब्रदरहुड सदस्य जॉर्डन, सीरिया, सऊदी अरब और लेबनन भाग गए। नासिरी दमनचक्र में सैयद कुत्ब भी गिरफ्तार हुआ, जो अल इख्वान के अख़बार का संपादक था। जेल में रहते हुए कुत्ब ने मुस्लिम ब्रदरहुड के लिए इंटेलेक्चुअल आधार तैयार किया- 30 खंडों में कुरान पर कमेंट्री फी ज़िलाल अल कुरान और माइलस्टोंस यानी मआलिम फी अल तारीक। कुत्ब को इराक के प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप की वजह से रिहा कर दिया गया लेकिन अपनी किताब माइलस्टोंस की वजह से उसके खिलाफ फिर मुकदमा दर्ज हुआ और उसे मौत की सजा सुना दी गई। माइलस्टोंस वो किताब है जिसमें नासिर सरकार को इस्लामी चरमपंथ की बू रही थी।

नासिर के बाद अनवर अल सादात ने मिस्र की हुकूमत संभाली और शरिया लागू करने का आश्वासन देकर मुस्लिम ब्रदरहुड सदस्यों को रिहा कर दिया। मगर अनवर अल सादात के साथ अल इख्वान अल मुस्लिमीन के रिश्ते बार-बार बन-बिगड़ रहे थे क्योंकि 1979 में सादात ने इजरायल के साथ अमन का करार कर लिया। अल इख्वान अल मुस्लिमीन का भरोसा डोल गया और 1981 में अनवर अल सादात की हत्या कर दी गई।

इख्वान अल मुस्लिमीन का मकसद कभी उसकी आंखों से ओझल नहीं हुआ। जरूरत के मुताबिक वो दहशतगर्दी को हथियार की तरह इस्तेमाल करता रहा। साथ-साथ मिस्र की सियासी ज़मीन पर वह अपने लिए मक़बूलियत तैयार करता रहा। जब होसनी मुबारक ने मुल्क की बागडोर संभाली तो मुस्लिम ब्रदरहुड को उनसे कोई उम्मीद बाकी नहीं रह गई थी।
मुबारक के सत्ता संभालते ही अल इख्वान ने सियासत के गलियारों में पहुंचने की कोशिशें शुरू कर दी थीं। चूंकि मिस्र में धार्मिक पार्टियों के चुनाव लड़ने पर रोक है इसलिए उसने निर्दलीयों के बतौर पार्लियामेंट में जगह बनाई। जाहिर है इस ऐसे में ब्रदरहुड को संसदीय सुरक्षा हासिल हो गई और मीडिया तक उनकी पहुंच आसान हो गई। तकनीकी तौर पर पाबंद होने के बावजूद अल इख्वान अल मुस्लिमीन संसद में एक ताकत बनकर होसनी मुबारक के सामने खड़ा हो गया। इस वजह से सरकार कभी उससे निपटने में पूरी तरह कामयाब नहीं हो सकी। 2005 के चुनावों में उनकी ताकत देखकर खुद मुबारक सरकार इतना चौंकी कि उसने उनके खिलाफ दमन का नया चक्र चला दिया क्योंकि ब्रदरहुड ने देश की पार्लियामेंट में 20 फीसदी जगह हासिल कर ली थी।

मुस्लिम ब्रदरहुड से डरने की जरूरत!
दुनियाभर में लाखों समर्थकों और हमदर्दों को समेटे इख्वान अमेरिका को दूसरे शिया ईरान की तरह डराता है। अमेरिकी नीति निर्माताओं और सियासी जानकारों ने मिस्री क्रांति के पीछे लोकतंत्र विरोधी ताकतों के हाथ होने की भविष्यवाणी की थी। उनका कहना था कि मिस्र में थियोक्रेसी यानी धर्मराज्य दूर नहीं है। फिलहाल अल इख्वान अल मुस्लिमीन ने सत्ता में भागीदारी से इनकार किया है लेकिन मध्यपूर्व में सत्ता संतुलन कायम रखने वाले अमेरिका के सामने सवाल है कि वो ऐसी लोकतांत्रिक क्रांति को कैसे देखे जिसके पीछे थियोक्रेसी के हिमायती मुस्लिम ब्रदरहुड का हाथ रहा है।

हालांकि घरेलू और विदेश नीतियों को लेकर इख्वान की पोजीशन काफी हद तक जायज़ है। मुस्लिम ब्रदरहुड ने भी पिछले कुछ वक्त से अपने ऐतिहासिक नज़रिए से पीछा छुड़ाने की कोशिश की है। एक वक्त था जब इख्वान के नेता ततबीक-अल-शरिया यानी शरिया लागू करने की वकालत करते रहते थे। लेकिन आज उनकी शब्दावली बदल गई है। अब वो थियोक्रेसी नहीं बल्कि इस्लामिक आदर्शों की रोशनी में खड़े होने वाले नागरिक और लोकतांत्रिक राज्य के समर्थक बन चुके हैं।

ये भी सच है कि ब्रदरहुड कभी भी उदारवादी नहीं होगा। अल इख्वान अल मुस्लिमीन का नजरिया काफी हद तक ऐसा है, जिससे अमेरिका ही नहीं दुनिया के दूसरे देशों को परेशानी महसूस होती है। चाहे वो औरतों के हक की बात हो या लिंगभेद की। हालांकि अमेरिकी दिक्कत सिर्फ ये सोच नहीं है बल्कि ये है कि मिडिल ईस्ट में अमेरिका की सैन्य सोच कमज़ोर पड़ जाएगी। सवाल ये है कि क्या मुस्लिम ब्रदरहुड अमेरिका के क्षेत्रीय हितों के खिलाफ काम करेगा। क्या मिस्र और इज़रायल के बीच चला रहा अमन का करार उलट जाएगा। क्या अल इख्वान अल मुस्लिमीन को अपने सियासी स्टैंड की कीमत पर मिस्र को मिल रहे बिलियंस डॉलरों का नुकसान मंज़ूर है।

मिस्र में जम्हूरियत की तस्वीर अभी साफ नहीं है और इसकी कोई गारंटी भी नहीं। क्योंकि मिस्र में अल इख्वान अल मुस्लिमीन को दरकिनार कर जम्हूरियत की बात सोचना मुमकिन नहीं। वैसे भी अरब दुनिया में जम्हूरियत और सियासी इस्लाम एक दूसरे में गुंथे सवाल हैं। दोनों जुदा नहीं किए जाते और किए जा सकते हैं। मिस्र में बनने वाली कोई भी सरकार, जिसमें इस्लामिस्ट नहीं हैं मिस्रियों की नुमाइंदगी नहीं करेगी और उनकी नज़र में ग़ैरक़ानूनी होगी। दूसरी तरफ मिस्र को एकजुट रखने के काम में मुस्लिम ब्रदरहुड का रोल कितना है, वह साबित कर चुका है।

अल-कायदा को फायदा या नुकसान?
तहरीर स्क्वेयर में मिस्रियों की बहादुरी से भरी तस्वीरें ओसामा के लिए ख़तरे का सबब हैं तो मौका भी हैं। अल कायदा के दिल में मिस्र की खास जगह रही है क्योंकि उसके कई मास्टरमाइंड उसे इसी ज़मीन से मिले हैं। इनमें से कई ने ओसामा की टीम में जगह पाने से पहले मुबारक की हुकूमत से दो-दो हाथ किए हैं। बिन लादेन का दाहिना हाथ आयमन अल जवाहिरी इस्लामिक ग्रुप के साथ साथ ईजिप्शियन इस्लामिक जिहाद जैसे ऑर्गनाइज़ेशन इसी जमीन से चलाता रहा है। जवाहिरी के जिहादियों ने 1990 में मुबारक को एक निरंकुश शासक का खिताब दिया था और ईसाइयों, धर्मनिरपेक्ष मिस्रियों और विदेशी सैलानियों के साथ-साथ सरकारी फौजों के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया था। ये बात अलग है कि दशक का अंत होते-होते मुबारक ने बेरहमी से इन्हें कुचल दिया था। कुछ बाद में जाकर ओसामा के लड़ाकों से मिल गए। आइडियोलॉजी के स्तर पर इस्लामिक जिहाद, इस्लामिक ग्रुप और अल कायदा के बीच मतभेद रहे लेकिन जिहादी हमलों का सिलसिला चलता रहा। मसलन, शर्म अल शेख में 2005 का हमला, जिसमें 88 लोगों की मौत हुई थी।

मुबारक के जाने के बाद अब अल कायदा के सामने कुछ मुश्किलें दरपेश हैं। इनमें पहली है मुस्लिम ब्रदरहुड। अलकायदा के कई नेता इसी की उपज रहे हैं लेकिन आज दोनों एकदूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते। अल कायदा 1978 से 82 के बीच सीरिया के खिलाफ चले मुस्लिम ब्रदरहुड के खूनी संघर्ष का विरोध करता रहा है। दूसरी तरफ ब्रदरहुड के थियोलॉजियन सैयद कुत्ब जैसे लोग अल जवाहिरी के आदर्श रहे हैं। अपनी किताब ' बिटर हार्वेस्ट' में जवाहिरी ने मुस्लिम ब्रदरहुड की इस बात के लिए मज़म्मत की है कि उसने होसनी मुबारक के निरंकुश शासन के खिलाफ हिंसा का इस्तेमाल नहीं किया और मुख्यधारा की राजनीति में हिस्सा लेने की कोशिश की। इज़रायल के खिलाफ लड़ रहा फिलिस्तीनी ग्रुप हमास भी मुस्लिम ब्रदरहुड से ही उपजा है, जिसने गाज़ा में अल कायदा को काफी नुकसान पहुंचाया है और बदले में अल कायदा के कोप का भाजन बना है।

अलकायदा के सामने दूसरी चुनौती हैं वो मिस्री जो इस्लाम के नाम पर नहीं बल्कि मुबारक के अत्याचारी शासन के खिलाफ तहरीर स्क्वेयर में इकट्ठे हुए। लोकतंत्र विरोधी और बंदूक़ की बदौलत सत्ता हासिल करने के हिमायती अल कायदा के इंटेलीजेंसिया को डर है कि ऐसे लोगों पर खड़ी सरकारें असल में इंसान की इच्छा को ख़ुदा की इच्छा से ऊपर रखने वाली होंगी और आखिर में गैरइस्लामी कानून-कायदों को जन्म देंगी।

फिर भी मुबारक विरोधी बग़ावत अल कायदा के लिए कुछ मौके भी लाई है। मसलन मुबारक की विदाई के दौरान जिस फौज ने मुल्क की सीमाओं से जिहादियों की घुसपैठ रोकी थी, अब उसकी पकड़ ढीली पड़ गई है। फौज खुद जनता के गुस्से का शिकार बनेगी क्योंकि उसने प्रदर्शनकारियों पर ज़ोर-ज़बर किया था। जाहिर है अल कायदा अराजकता का फायदा उठाने की कोशिश करेगा। अफगानिस्तान, इराक, पाकिस्तान और सोमालिया में अल कायदा ऐसे मौकों का फायदा उठा चुका है।
दूसरी तरफ अगर मुस्लिम ब्रदरहुड सरकार का हिस्सा बनी तो वह कमोबेश मिस्र के इस्लामीकरण की आवाज उठाएगी जो एक तरह से अल कायदा के मिशन को पूरा करेगा। अगर मुस्लिम ब्रदरहुड सेना और नई सरकार की आंख में किरकिरी बनी तो वो मिस्री नौजवानों में रेडिकल आवाज का काम करेगी और उन्हें सरकार के खिलाफ भड़काएगी।

इसलिए मुबारक के बाद मिस्र में सत्ता का सफर कांटों भरा है क्योंकि अल कायदा को एक लोकतांत्रिक और स्थिर मिस्र से खतरा है। तहरीर स्क्वेयर में खड़े मिस्रियों की तस्वीरें आम मुसलमानों को उम्मीद देती हैं कि केवल जिहाद नहीं स्थिर लोकतांत्रिक सरकारें भी उन्हें अच्छी जिंदगी दे सकती हैं।

नदी

क्या नदी बहती है  या समय का है प्रवाह हममें से होकर  या नदी स्थिर है  पर हमारा मन  खिसक रहा है  क्या नदी और समय वहीं हैं  उस क्षैतिज रेखा पर...