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17/6/09

'काश मैं कुछ और जिंदगियां खरीद सकता'

छाया-प्रतिच्छाया, ब्लैक एंड व्हाइट और अंधेरे-उजाले की कहानी शिंडलर्स लिस्ट...एक ऐसी फिल्म जिसने महज दो रंगों में इतिहास के सबसे धारदार और कड़वे सच को बयान किया है.. हालांकि फिल्म इस सोच के साथ मेल खाती है कि शुरुआत और अंत हमेशा रंगीन होते हैं..अंधेरा तो कहीं बीच में है..यही नहीं, पूरी फिल्म में रंग सिर्फ दो जगहों पर काले-सफेद और ग्रे के साथ खिलवाड़ करते नजर आते हैं..नाजियों के 'कीड़ों' के खून का काला रंग भी मन में अजीबोगरीब अहसास छोड़ जाता है..मगर आपको उबकाई नहीं आएगी..अगर आप नाजी नहीं हैं तो सिर्फ एक ही भाव उठेगा...करुणा..

काले-सफेद के विरोधाभास और रंगों के साथ यथार्थ का इस्तेमाल स्पीलबर्ग का अपना चुनाव था..रोशनी और छाया के बीच बुनी गई शिंडलर्स लिस्ट सिनेमाई सच की एक अभूतपूर्व परिभाषा की तरह बुनी गई..जिसे जब भी आप देखेंगे बेहद ताज्जुब में पड़ जाएंगे... 

शिंडलर्स लिस्ट तीन बड़ी समानांतर ऐतिहासिक सच्चाइयां बयान करती चलती है..साथ ही नाजी इतिहास के बेहद मामूली पर अहम चरित्रों को उजागर भी करती है.. पहली कहानी है होलोकास्ट की.. जो बाद में नाजी आतंक की यूएसपी बनकर उभरा.. अपने पूरे नंगेपन, घातक असर और कटु असलियत के साथ.. 60 लाख से ज्यादा यहूदियों की पूरी नस्ल को खत्म करने की इस कोशिश की तुलना नागासाकी और हिरोशिमा पर गिराए गए बमों से ज्यादा ताकतवर मानी जा सकती है.. क्योंकि ये मशीन का नहीं इंसान का कहर था..स्पीलबर्ग ने कहीं भी ये कोशिश नहीं की कि उनका दर्शक हालात के किसी भी कोण से वंचित रहे..या उनका दर्शक निर्ममता को कम करके आंके.. इसलिए फिल्म में जहां भी आप फव्वारे की तरह किसी लाचार यहूदी की गर्दन या खोपड़ी से निकलता खून देखेंगे तो आपके हाथ एक पैमाना आ जाएगा..निर्ममता का पैमाना...बेशक इस खून का रंग काला है, मगर असल रंग से ज्यादा ताकतवर है.. 

दूसरी कहानी है ऑस्कर शिंडलर की, नाजी पार्टी का सदस्य और एक बिजनेसमैन जो इस काले वक्त में भी अकेले 1200 यहूदियों को उनकी आसन्न मौत से बचाने में कामयाब रहा.. एक बेहद आत्मकेंद्रित जर्मन उद्यमी, जिसे सिर्फ पैसे से मतलब था.. उसे यहूदी कामगार चाहिए थे क्योंकि वो पोलिश कामगार से ज्यादा सस्ते थे.. इसलिए नहीं कि वो यहूदियों को पसंद करता है.. या उन्हें नाजियों के हाथ पड़ने से बचाना चाहता था.. पर धीरे-धीरे उसका नजरिया बदला.. अब वह कुछ भी गंवाकर अपनी फैक्टरी के यहूदी कामगारों को बचाने की कोशिश में था.. उसने लालची नाजी अफसरों को खरीदा..उनके साथ समझौते किए..अपनी दौलत को लुटाया, ताकि वो जिंदा रहें.. और जब जर्मनी की जंग में हार हुई तो वो उनके सामने दिल को थमा देने वाली बातें कहता है..अपनी जिंदगी में पहली बार.. उसे इसका अफसोस रहा कि वो अपनी कार और अंगूठी से कुछ और यहूदियों की जिंदगी खरीद सकता था..मगर वो ऐसा कर न सका.. 

तीसरी कहानी है एक ऐसे नाजी अफसर की जो यहूदियों का शिकारी है..जिसे कीड़ों को मारने में मजा आता है, जिसे बहता हुआ खून देखने में मजा आता है..जिसने क्राकोव कस्बे में 600 साल से बसे यहूदियों को इसलिए मिटा देने की तमन्ना है क्योंकि वो सोचता है कि इसके बाद वो इतिहास में अमर हो जाएगा.. एमोन गोएथ नाम का ये नाजी अफसर यहूदियों से तमाम नफरत के बावजूद अपनी यहूदी नौकरानी हेलेन हर्श की तरफ आकर्षित है.. गोएथ में एक आत्महीन शैतान के तमाम गुण मौजूद हैं लेकिन स्पीलबर्ग ने उसके चरित्र के इंसानी पहलुओं को बारीकी से उभारकर सामने रखा है..

इनके साथ ही कुछ स्फुट बिखरे हुए सच भी शिंडलर्स लिस्ट बयान करती है.. ये हैं वो मामूली इंसान जिन्हें इतिहास ने इसलिए याद नहीं रखा क्योंकि उनका उसे बनाने में सीधे कोई योगदान नहीं था.. मगर ये स्पीलबर्ग की कारीगरी है कि वो उन चरित्रों की अहमियत और इतिहास के लिए उनकी जरूरत उजागर कर देते हैं.. जैसे एक प्रोफेसर और दार्शनिक जिसे शिंडलर के कारखाने का मैनेजर चतुराई से मरने से बचा लेता है.. ये कहकर कि वो बर्तनों का नायाब कारीगर है.. नाजी अफसर का प्रेम हेलेन हर्श, एक बच्चा डांका ड्रेसनेर और उसकी मां.. जो मौत से बचने के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं.. एक यहूदी जोड़ा जो नाजियों के प्लाज़ो कैंप में शादी करता है.. और वो भी तब जब उन्हें अच्छी तरह पता है कि उनके बचने के मौके बेहद कम हैं.. और एक रब्बी जो नाजियों की गोली का शिकार होने से बाल-बाल बचता है.. एक यहूदी ग्रेजुएट इंजीनियर लड़की जो इमारत ख़ड़ी करने का विरोध करती है और एमोन गोएथ के सिपाही की गोली का शिकार हो जाती है.. स्पीलबर्ग की फिल्म इतिहास लिखने वालों को एक नसीहत भी है.. केवल ओहदेदारों के किस्सों से ही इतिहास नहीं बनता..वो दरअसल बेहद मामूली लोगों के अनुभवों का जोड़-घटाव है.. 

यहूदियों के साथ हुए नाजी सुलूक की तस्वीरें अंदर तक हिलाने की ताकत रखती हैं.. सबसे अहम तस्वीर है मास ग्रेव्ज यानी इधर-उधर मारे गए यहूदियों की लाशों का एक साथ दाह संस्कार.. इसे नहीं भूलना चाहिए कि ये दाह ही था, संस्कार नहीं.. इस शॉट की शुरुआत फिल्म को पहली बार देख रहे इंसान को भी शायद समझ नहीं आएगी.. जब लाशों से निकली राख और धुआं इस कदर गिर रहा है मानो पूरे कस्बे पर बर्फबारी हो रही हो.. शिंडलर अपनी कार पर जमी इस राख को हाथ से उठाता है, तो उसे सारा माजरा समझ आ जाता है.. और इसके बाद वो सीन हैं जो शायद पूरी दुनिया के इतिहास के सबसे घृणास्पद हालात को उजागर करते हैं... 

जाहिर है हर अभिनय हीरोइक है.. शिंडलर के चरित्र, उसकी कमजोरियों और ताकत को उजागर करने में लियाम नीसन एकदम फिट साबित हुए हैं.. उन्होंने शिंडलर की शख्सियत को साकार कर दिया है.. कहीं भी दर्शन की बड़ी बड़ी बातें नहीं, सिर्फ आत्मावलोचन..जो किरदार को खोलता है..एक आत्मकेंद्रित बिजनेसमैन के मसीहा में रूपांतरण को नीसन ने बखूबी पेश किया है.. 

बेन किंग्सले शिंडलर के कारखाने का मैनेजर है...शायद उससे बेहतर ये रोल कोई नहीं निभा सकता था.. राल्फ फिएंस ने नाजी कमांडर गोएथ के अंदर मौजूद शैतान को स्क्रीन पर पूरी ताकत के साथ उतारा है..जिसे सत्ता और हत्या से बेहद प्यार है.. उसका किरदार इतना असरदार है कि अगर आपने राल्फ की कोई और फिल्म देखी भी होगी तो भी आपको गोएथ का किरदार ही याद आएगा.. 

नाजियों की क्रूरता और घृणित इच्छाओं को साकार करने के बावजूद शिंडलर्स लिस्ट एक उम्मीद जगा रही होती है.. अपने नैरेटिव में हर वक्त..जान बचाने के लिए बच्चों का भागकर छिपना.. ट्रेन के जरिए ऑशविज कैंप में मौत का सामना कर रही नंगी यहूदी औरतों की तस्वीरें..जानवरों की तरह ट्रेन में ठूंसे गए यहूदियों की पानी के लिए बाहर निकली बाहें ..हर तरफ संघर्ष की ललक झलकती है..इंसानी कमजोरियों की तल्खबयानी भी करती है ये फिल्म.. नफरत, लालच, प्यास, ईर्ष्या और गुस्से के साथ-साथ और सबसे ऊपर उसके मानवीय पक्षों की... 

सितंबर 1939 में पॉलेंड के क्राकोव कस्बे से फिल्म शुरू होती है जहां यहूदी समुदाय पर लगातार नाजी दबाव बढ़ा रहे हैं.. तभी एक बिजनेसमैन ऑस्कर शिंडलर यहूदी कामगारों की मदद से एक फैक्टरी चलाने का विचार कर रहा है...वो यहूदी एकाउंटेंट इजाक स्टर्न को इसके लिए मनाता है.. मार्च 1941 में क्राकोव के यहूदी समुदाय को नाजी एक घैटो में धकेल देते हैं..इसी दौरान कुछ यहूदी शिंडलर की फैक्टरी में पैसा लगाने को तैयार हो जाते हैं.. और तब जन्म लेती है डीईएफ यानी ड्यूश ईमेलवारेनफैब्रीक... एक कारखाना जहां बड़ी तादाद में यहूदी बर्तन बनाते हैं... इन बर्तनों की सबसे बड़ी खरीदार है जर्मन सेना.. मार्च 1943 में नाजी तय करते हैं कि अब इन यहूदी 'कीड़ों' को खत्म कर दिया जाए.. यहूदियों का घैटो खाली कराया गया और उन्हें जबरन प्लाजोव कैंप भेज दिया जाता है...कई सीधे गोली से उड़ा दिए जाते हैं और बाकी ट्रेनों के जरिए अनजान जगहों पर भेज दिए जाते हैं..इसके बाद शिंडलर शुरू करता है यहूदी कामगारों की जिंदगी की खरीदारी..

23/2/09

धारावी तो कुनैन है!

हॉलीवुड ने भारत की गंदगी को रेड कार्पेट पर ले जाकर सम्मानित कर दिया है... जो गंदगी हमें कालीन के नीचे रखनी मंजूर थी, हॉलीवुड ने उसने उघाड़कर दुनिया के सामने खड़ा कर दिया है...स्लमडॉग मिलियॉनेयर को 8 एकेडमी अवार्ड से नवाजा जाना उस सच का सम्मान लगता है, जिसे हम कबूलने से साफ इनकार करते हैं... अगर इसे बदजुबानी न माना जाए तो शायद हमारे किसी फिल्मकार में अभी भी ये दम नहीं कि वो विश्वमंच पर ऐसा सिनेमाई यथार्थ उतारने की हिम्मत रखता हो...
स्लमडॉग को लेकर राष्ट्वादी भारतीयों की आवाजें आईं थीं कि ये गंदगी को सिर पर रखने जैसा है... लेकिन डायरेक्टर डैनी बॉयल को इसकी परवाह नहीं थी...उनकी प्रतिबद्धता सिर्फ कला के प्रति थी और उन्होंने वही किया भी...लेकिन भारत में इस फिल्म को लेकर जो होहल्ला मचा था, जो विरोध हुआ उस पर आप क्या कहेंगे... मेरे ख्याल में स्लमडॉग को गंदगी का पोर्न सिनेमा कहने वालों के लिए ये वैसा ही था जैसे किसी अतिथि ने आपको आपके टॉयलेट में बैठे देख लिेया हो...

घोर गरीबी में कुलबुलाते धारावी को भी उसी हिंदुस्तान ने खड़ा किया है जो इसका विरोध करता है... वो आर्थिक ऊंचाइयां छूते इसी भारत का बाय प्रोडक्ट है... लेकिन आसमान से बातें करता कामयाब हिंदुस्तान दुनिया के सामने इस सच को नहीं लाना चाहता... लेकिन इससे धारावी और ऐसे दूसरे स्लम का अस्तित्व खत्म नहीं हो जाएगा... वो रहेंगे और आपकी कामयाबी को मुंह चिढ़ाते रहेंगे... 

स्लमडॉग मिलियॉनेयर ने मुंबई जैसे लाजवाब शहर की जीवंतता और कामयाबी के शिखर चूमते शहर के दो बड़े सच सामने रखे हैं... एक सच है ताकत और शोहरत की दौड़ में जुटे शहर का तो दूसरी तरफ है अपनी जिंदगी से जद्दोजहद करते शहर का... स्लम में जवान होता नायक खुद कामयाब होने का सपना देख रहा है...चाहे वो अपनी महबूब को पाने की हो या फिर कौन बनेगा करोड़पति के जरिए नई जिंदगी की शुरुआत की...

डैनी बॉयल की फिल्म किसी कल्पना या हीरोइज्म का सहारा नहीं लेती... जैसा कि आप दूसरी स्लम आधारित फिल्मों में देखते आए हैं... चाहे वो पुलिस बर्बरता हो, झुग्गीबस्ती में गुजर-बसर कर रहे लोगों की दयनीय हालत हो, धर्मों के नाम पर होने वाले दंगे हों, भीख मंगवाने के लिए बच्चों का अपहरण हो... आप हर चीज पर सौ फीसदी यकीन कर सकते हैं... कहानी में कुछ मोड़ जरूर हैं, जो शायद हर किसी की जिंदगी में नहीं आते... लेकिन जिंदगी फिल्म का प्लॉट भी तो तभी बन सकती है, जब फिल्मकार इस जिंदगी में कुछ अनयूजुअल, अनोखा ढूंढ निकाले... यही इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत भी है...

हां, डैनी बॉयल ने भारत में फिल्म बनाते वक्त एक बात का पूरा ख्याल रखा... भारतीय प्रतीकों का... उन्होंने जहां जरूरी समझा उन्हें इस्तेमाल कर लिया... चाहे वो प्यार की मिसाल ताजमहल हो या बदलती महानगरीय जिंदगी की पहचान कॉल सेंटर हों...हो सकता है कि आप कहें कि उन्होंने विदेशों में भारत की तस्वीरों में सबसे ज्यादा दिखने वाले सपेरों का इस्तेमाल कहीं नहीं किया है... जाहिर है भारत से पूरी तरह नावाकिफ डैनी बॉयल को ज्यादातर भारतीय प्रतीक अपने पूर्ववर्ती फिरंगियों से ही लेने पड़े... वरना इतनी जल्द इस देश की मिट्टी को समझ पाना आसान भी तो नहीं था...और इसके बावजूद उन्होंने अपनी फिल्म में संतुलन नहीं खोया...
 
शायद भारत में हायतोबा की एक वजह ये भी रही कि स्लमडॉग मिलियॉनेयर ने भारतीय मध्यवर्ग की अनदेखी की है... इसने तरक्की करते भारत के उस हिस्से को सामने रखा है, जिसके एक पैर में गैंग्रीन हो चुका है...जमाने के साथ कदमताल की कोशिश कर रहे तरक्कीपसंद हिंदुस्तान को अपने पैर में हुए इस गैंग्रीन की परवाह नहीं है... 
ये वो चीज है जो हम ज्यादातर मध्यवर्गीय भारतीयों के गले नहीं उतरती...हम सपनों में रहने वाले, सपने देखने वाले लोग हैं...पिछले सौ साल से पर्दे पर हमें प्यार-मोहब्बत की कहानियां ही अच्छी लगती रही हैं... धारावी के शहर के फिल्मकारों ने भी हमें कमोबेश यही दिया है... और धारावी तो कुनैन है... 

नदी

क्या नदी बहती है  या समय का है प्रवाह हममें से होकर  या नदी स्थिर है  पर हमारा मन  खिसक रहा है  क्या नदी और समय वहीं हैं  उस क्षैतिज रेखा पर...