पत्रकारिता मेरा पेशा है, मेरा धर्म है... पत्रकारिता से मैं हूं... पत्रकारिता मेरी पहचान है... वो कार्ड नहीं जो मुझे मेरे ऑफिस से मिलता है गले में लटकाने को... बल्कि वो दिल और दिमाग जो मेरे अंदर धड़कते हैं... लेकिन मैं कभी भी सच के साथ नहीं बोलता... क्योंकि मैं पत्रकार हूं... मैं बोलता हूं लेकिन वो मेरा ही बनाया एक सच होता है... सच के खिलाफ एक सच... इसी की मुझसे दरकार है... यही मेरी कंपनी मुझसे चाहती है... और मैं वही उसे देता हूं... इसीलिए मेरी कंपनी में मेरी जरूरत है... और मुझे मेरी कंपनी की... जो मुझे तनख्वाह, परिचय, पहचान, इज्जत सब दिलाती है... उस जनता के बीच जिसके बारे में मैं लिखता हूं... तो ये मैं हूं...
लेकिन मैं अपने बारे में नहीं उस जनता के बारे में कुछ कहना चाहता हूं... जिसके बारे में मैं रोज लिखता हूं... उस जनता को नंगा करना चाहता हूं जिसे मैं अपने ऑफिस में बैठकर नहीं कर पाता... लेकिन ये मेरी जगह है, मेरा कोना है और मैं यहां खुलकर बोल सकता हूं... क्योंकि मैं एक पत्रकार हूं...
दरअसल जिस जनता के लिए हम रोज मरते-खटते हैं... जिस बहुसंख्यक 'लोकतांत्रिक' व्यवस्थावादी जनता के हक में लिखते हैं, वो इस काबिल ही नहीं कि उसकी लड़ाई लड़ी जाए... क्योंकि वो अपनी लड़ाई कभी खुद नहीं लड़ना चाहती... वो चाहती है कि उसकी लड़ाई या तो नेता लड़े या फिर पत्रकार... चूंकि सामान्य और ईमान वाले न रखने के होते हैं न उठाने के, इसलिए वो अपने बीच के सबसे भ्रष्ट लोगों को चुनकर भेजती है... जिन्हें हर तरह का खेल करके उनका काम कराना आता हो... ये काम कोई सार्वजनिक हित नहीं होते... पूर्णत: व्यक्तिगत होते हैं... ये भारतीय जनता है... भीरु और कायर... भ्रष्टाचार में गले तक डूबी हुई...
भारतीय जनता कभी विद्रोह नहीं करती... क्योंकि कोई भ्रष्टाचारी विद्रोह नहीं करता... कर ही नहीं सकता... उसके लिए रीढ़ की हड्डी का होना पहली शर्त है... इसलिए कोई सार्वजनिक काम नहीं होता... सभी सरकारी दफ्तरों में रोज के घंटे अगर गिन लिए जाएं तो व्यक्तिगत काम के लिए पहुंचने वालों की तादाद किसी सड़क, नल लगाने जैसे कामों के लिए पहुंचने वालों के मुकाबले ९८ फीसदी तक होगी... और ये ९८ फीसदी अपने कामों को भी सरकारी कर्मचारियों की जेब गर्म करके करा रहे होंगे...
बहुत कुछ कहा जा सकता है... लेकिन एक बात जरूर कहूंगा कि भ्रष्टाचार जैसी कोई चीज नहीं रह गई है अब... अब पूरा समाज ही भ्रष्टाचारी हो गया है... इसलिए भ्रष्टाचार हटाने के नारे भी अप्रासंगिक होकर मर चुके हैं... क्योंकि भ्रष्टाचार अब ऊपर से नहीं, नीचे से जाता है... क्योंकि भ्रष्ट जनता, भ्रष्ट नेता चुनती है... क्योंकि भ्रष्टतम वहीं हैं...
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