19/6/08

पहेली की आवाज

एनिग्मा, किसे पुकारेंगे आप... पहेली को... या किसी ऐसे पेचदार नमूने को...जिसे समझने में आप के दिमाग के तंतु जवाब दे जाते हैं... या फिर कोई ऐसी चीज जिसे महसूस करने लायक संवेदनशीलता आपके पास नहीं है... हां, मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है कि एनिग्मा एक गूढ़ रहस्य है... और रहस्य वही जो मेरी समझ से परे है... एनिग्मा सिरीज के गीत भी कुछ ऐसे ही हैं... एनिग्मा तभी खत्म हो जाता है, जब आप उसका ये रहस्य समझ जाते हैं... मुझे इस बार एनिग्मा के कुछ गीत सुनने को मिले..... इनमें कुछ बेहद गूढ़ लगे... यानी मेरी समझ से परे... कुछ ऐसे थे... जिन्हें कोई भी समझ सकता है... एनिग्मा गीतों की श्रंखला मुझे काफी पहले से ही पहेली की तरह लगती रही है... सो इस बार भी ऐसा ही हुआ...
इसी श्रेणी का एक गीत है 'वॉयस ऑफ एनिग्मा'.... यानी पहेली की आवाज... है न अजीब सा नाम और अजीब ही गीत है... मेरे ख्याल से एनिग्मा को सुनते वक्त आप अपने दिमाग को कहीं और रख दें... सिर्फ सुनें.... न, न, सोचें नहीं... बिल्कुल भी... तब शायद आप उस आवाज को पकड़ पाएं... पहेली की आवाज को.... हालांकि इसके फैन बहुत से हैं... कुछ ऐसे भी हैं, जो सिर्फ इसलिए फैन हो जाते हैं क्योंकि उसके बहुत से फैन होते हैं... लेकिन कुछ सच में फैन होते हैं...

15/6/08

प्रेम की जरूरत?

आखिर प्रेम करने की जरूरत क्या है... दरअसल जानवर तो प्रेम करते नहीं... अगर आदमी भी जानवरों के ही विकासक्रम से आया है तो ये दिमाग का फितूर ही कहा जाएगा... वो दिमाग जो जानवरों के पास नहीं है... हम किसी न किसी वजह से जीना चाहते हैं... क्यों नहीं बेवजह जी पाते...क्यों नहीं हम सामान्य होकर जी पाते... जानवरों की तरह भोले, एकदम निरीह होकर... अगर आप ये कहते हैं कि आदमी के लिए निरीह होकर जीने के खतरे बहुत हैं तो जानवरों की दुनिया में भी कम नहीं... वहां मेरे ख्याल से ज्यादा खतरे हैं... इसलिए अगर हम जी रहे हैं तो हमें खतरों से खेलना आना चाहिए... और अगर हमारे पास दिमाग है तो हमें इसे सिर्फ खतरों से खेलने पर ही लगाना चाहिए... हमारी असुरक्षा को कॉम्बैट करने में खर्च होनी चाहिए हमारी बुद्धि... न कि प्रेम जैसी कृत्रिम चीजों में...
प्रेम करना बेहद कृत्रिम लगता है मुझे... क्योंकि ये भाव प्रकृति प्रदत्त नहीं है... ये हमें नैसर्गिक तौर पर नहीं मिला है... ये ओढ़ी हुई चादर है... अति उन्नत खुराफाती दिमागों की उपज... प्रेम को उपजाने में बेवजह शक्तियों का नाश हो रहा है... जिन्हें हम अपने जीवन को उन्नत बनाने में लगा सकते थे...

नदी

क्या नदी बहती है  या समय का है प्रवाह हममें से होकर  या नदी स्थिर है  पर हमारा मन  खिसक रहा है  क्या नदी और समय वहीं हैं  उस क्षैतिज रेखा पर...