प्रेम की जरूरत?
आखिर प्रेम करने की जरूरत क्या है... दरअसल जानवर तो प्रेम करते नहीं... अगर आदमी भी जानवरों के ही विकासक्रम से आया है तो ये दिमाग का फितूर ही कहा जाएगा... वो दिमाग जो जानवरों के पास नहीं है... हम किसी न किसी वजह से जीना चाहते हैं... क्यों नहीं बेवजह जी पाते...क्यों नहीं हम सामान्य होकर जी पाते... जानवरों की तरह भोले, एकदम निरीह होकर... अगर आप ये कहते हैं कि आदमी के लिए निरीह होकर जीने के खतरे बहुत हैं तो जानवरों की दुनिया में भी कम नहीं... वहां मेरे ख्याल से ज्यादा खतरे हैं... इसलिए अगर हम जी रहे हैं तो हमें खतरों से खेलना आना चाहिए... और अगर हमारे पास दिमाग है तो हमें इसे सिर्फ खतरों से खेलने पर ही लगाना चाहिए... हमारी असुरक्षा को कॉम्बैट करने में खर्च होनी चाहिए हमारी बुद्धि... न कि प्रेम जैसी कृत्रिम चीजों में...
प्रेम करना बेहद कृत्रिम लगता है मुझे... क्योंकि ये भाव प्रकृति प्रदत्त नहीं है... ये हमें नैसर्गिक तौर पर नहीं मिला है... ये ओढ़ी हुई चादर है... अति उन्नत खुराफाती दिमागों की उपज... प्रेम को उपजाने में बेवजह शक्तियों का नाश हो रहा है... जिन्हें हम अपने जीवन को उन्नत बनाने में लगा सकते थे...
प्रेम करना बेहद कृत्रिम लगता है मुझे... क्योंकि ये भाव प्रकृति प्रदत्त नहीं है... ये हमें नैसर्गिक तौर पर नहीं मिला है... ये ओढ़ी हुई चादर है... अति उन्नत खुराफाती दिमागों की उपज... प्रेम को उपजाने में बेवजह शक्तियों का नाश हो रहा है... जिन्हें हम अपने जीवन को उन्नत बनाने में लगा सकते थे...
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