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26/2/10

फिल्म है या ये ढोलक है..

ओमकारा की दूर की रिश्तेदार इश्किया आपको याद रहेगी पर फिल्म के बतौर नहीं, कुछ सीनों में, गुलजार के लिखे एक गाने में। यकीनन अभिषेक चौबे के लिए अपने गुरु विशाल भारद्वाज के सामने उत्तर प्रदेश की सैटिंग्स वाले इलाके को बैकग्राउंड बनाना चुनौती रही होगी। अभिषेक ने एक तेज रफ्तार के लाइट कॉमेडी थ्रिलर के साथ फिल्म इंडस्ट्री में कदम तो रखा, मगर विशाल की ओमकारा का नया अवतार पैदा करने में नाकामयाब रहे।

इश्किया में फिल्मी ड्रामा है, पर अर्थहीन, जिसका न कोई ओर है और न छोर। चुटीले संवाद हैं, मगर इन संवादों को पृष्ठभूमि का सपोर्ट हासिल नहीं है। तेज रफ्तार घटनाएं एक के बाद एक आपकी आंखों के सामने से गुजरती दिखती हैं, लेकिन आपको पकड़ती नहीं। हर घटना एक कहानी कहती लगती है, मगर पूरी फिल्म खुद में कोई मुकम्मल कहानी नहीं कहती। हां, अगर अब किसी फिल्म में कहानी की जरूरत नहीं तो फिर इसे आप दूसरे नजरिए से देख सकते हैं।

इश्किया की कोई मंजिल नहीं, उसी तरह जैसे फिल्म की हीरोइन विद्या बालन की पूरी फिल्म में कोई मंजिल नहीं। दरअसल, फिल्म का कोई किरदार अपने सफर पर भी नहीं दिखता यानी वह पूरी तरह विकसित नहीं हो पाता। लगता है कि फिल्म विद्या बालन के ग्लैमर को स्थापित करने और उनकी परिणीता इमेज को तोड़ने के लिए तैयार की गई है। डायरेक्टर ने विद्या की खूबसूरती फिल्माने के लिए कैमरे को जितनी जुंबिश दी है, उससे कृष्णा का चरित्र कतई छाप नहीं छोड़ पाता। न तो वह गॉड मदर बन पाईं और न विद्याधर वर्मा की बीवी कृष्णा। कृष्णा सिर्फ आवेगों के आधार पर काम कर रही है। उसकी मन:स्थिति क्या है और वह असल में क्या चाहती है, इसका आप आखिर तक पता नहीं लगा सकेंगे। एक अधूरा किरदार।

फिल्म का कोई नायक नहीं है। खैर, जरूरी नहीं कि फिल्म में नायक हो ही। मगर इसकी जरूरत वहां जरूर दिखती है जहां नायिका भी न हो। नसीर और अरशद वारसी के जो किरदार हैं, वह नायक की जरूरत पूरी करने को नहीं रखे गए हैं, हालांकि हैं काफी सशक्त। नसीर को जो किरदार मिला है, वह उसे बेहद कम वक्त में भी खोलकर रखने में कामयाब रहे हैं लेकिन अरशद का किरदार कहीं भी पूरी तरह विकसित नहीं हो सका। हालांकि अरशद को जो समय मिला, उसमें उन्होंने इसकी भरसक कोशिश की।

फिल्म आपको किसी भी किरदार का अतीत जानने का मौका नहीं देगी। इन चरित्रों के बारे में आप उतना ही जानते हैं जितना खुद फिल्म का स्क्रिप्टराइटर। ये सभी किरदार क्यों हैं और क्यों वही सब करते दिखाए गए हैं, इसका मतलब ढूंढने की कतई कोशिश न करें। वो बस हैं, क्योंकि उन्हें इस फिल्म के उन कुछ खास प्लॉट्स में होना ही था। हालांकि इस बात को इश्किया के चाहने वाले कुछ यूं पेश करते हैं कि जितना करेक्टर को खोलने की जरूरत है, उतना ही उसे दिखाया किया गया है। बेवजह उसके इतिहास-भूगोल की पड़ताल नहीं की गई है। तो क्या किसी खास चरित्र के होने के लिए किसी रेफरेंस की जरूरत भी नहीं। हो सकता है कि अभिषेक चौबे मंडली को इसकी जरूरत न महसूस हुई हो।

फिल्म में न तो उत्तर प्रदेश का गोरखपुर इलाका इस्टेब्लिश होता है, न सेनाएं बनाने की वजह, न हथियारों की सप्लाई के पीछे कारण पता चलते हैं। भोपाली-गोरखपुरी अंदाज के संवाद डालकर पूर्वी उत्तर प्रदेश को छूने की कोशिश जरूर की गई है।

डायरेक्टर अभिषेक चौबे ने अपनी डायरेक्टोरियल पारी की शुरुआत के लिए एक मजबूत फिल्म चुनी, पर अपने तमाम इंटेलेक्चुअलिज्म में फिल्म ही मिस हो गई। उनके पास कथ्य तो था पर कथानक नहीं, मध्य है लेकिन कोई सुनिश्चित अंत नहीं। हॉलीवुड फिल्मों के अनप्रिडेक्टेबल सीक्वेंस को ओढ़ने का प्रयास भी आपको दिखेगा। मगर पूरी फिल्म अपने दर्शकों से क्या कहना चाहती है, उन्हें कहां ले जाना चाहती है, समझना कुछ मुश्किल होगा। सीन तेजी से उलटते-पलटते हैं, इसलिए उनमें रफ्तार तो है लेकिन उनका मकसद दर्शकों को चौंकाना भर है। इसलिए फिल्म एक किस्म की असंतुष्टि का अहसास कराती है अंत में। हां, तकनीकी तौर पर फिल्म काफी मजबूत है। कैमरा ऐंगिल्स की आपको तारीफ करनी पड़ेगी।

इश्किया को देखें तो एक बात जरूर महसूस होगी, अगर आप सिर्फ तमाशा देखने गए हैं तो समझिए पैसे वसूल। रफ्तार, सुंदर कैमरा, अरशद-विद्या लवमेकिंग सीन, दो अच्छे गाने..ये सारी चीजें वहां हैं। बस नहीं है तो वजह कि ये फिल्म बनाई क्यों गई (इसका जवाब आपको खुद पाना है)।

31/1/10

दिल्ली में है दम, क्योंकि क्राइम यहां है लम्पसम!


देश का दिल या राजधानी जो चाहें कहें आप, पर क्या आपको ताज्जुब नहीं होगा अगर कहें कि दिल्ली में अपराध बहुत कम है.. हमारा परंपरागत विवेक, हमारे प्रबुद्ध क्रिमिनोलॉजिस्ट्स, हमारी सरकार, हमारे समाजविज्ञानी, हमारा मीडिया, हमारे साथी और पड़ोसियों का कहना है कि इस शहर का चप्पा-चप्पा अपराधियों की पदचाप से गूंज रहा है.. कौन-कहां-कब-कैसे शिकार बनेगा, कोई नहीं जानता.. (माफ कीजिएगा, फिल्म आनंद के डायलॉग की तर्ज पर)

जब इतनी बहस-मुबाहिसे चल ही रहे हैं तो हमें इसका दूसरा पक्ष भी देखना चाहिए.. दिल्ली घूमकर यूएस लौटे कुछ अमेरिकियों के अनुभव क्या कहते हैं क्राइम कैपिटल के हालात पर.. आखिर उनकी नजर को तो आप निष्पक्ष मानेंगे ही..इस शहर में कदम रखने से पहले ही उन्हें उनके दूसरे अमेरिकी साथियों ने सावधानी बरतने की हिदायतें दे दी थीं.. क्योंकि उन्हें मिली खबरें बताती थीं कि दिल्ली क्राइम कैपिटल है.. सो जैसे ही इन अमेरिकियों ने एयरपोर्ट पर कदम रखा और ऑटो के लिए बाहर आए, उनके कान खड़े थे..इसके बाद जब तक वो दिल्ली में रहे खौफज़दा रहे.. शहर के मीडिया में आईं अपराध की खबरें उनके रौंगटे खड़़ी करती रहीं..मगर दिल्ली में 18 महीने गुजारने के दौरान उनका वास्ता सिर्फ चार चोरों से पड़ा..और जानते हैं ये चोर कौन थे.. शनि महाराज के नाम पर शनिवार को भीख मांगने वाले बच्चे.. जो फिरंगी चमड़ी देखकर उनके पीछे हो लिए थे.. 'क्राइम कैपिटल' से वापस लौटकर उनकी राय कुछ और ही दास्तां बयां कर रही है..

दिल्ली की जनसंख्या और आर्थिक हालात ये कहते हैं कि इस शहर में ज्यादा अपराध होना चाहिए.. और इनके आधार ये हैं..
पहला, दिल्ली में 55 फीसदी आबादी पुरुषों की है.. जबकि पूरे देश में 52 फीसदी और दुनिया भर में 50 फीसदी से कुछ ज्यादा..
दूसरे, आबादी का 53 फीसदी से ज्यादा 25 साल से कम उम्र का है.. जिसकी अगर न्यूयॉर्क से तुलना करें तो वो 33 फीसदी आती है..
तीसरे, गरीब लड़के अपनी ऊर्जा और गुस्सा निकालने के लिए अमेरिका में दो ही रास्ते इख्तियार करते हैं सैक्स अपराध या हिंसा.. पर दिल्ली में ऐसा नहीं होता..
चौथे, शहर में आर्थिक खाई इतनी बड़ी और साफ दिखने वाली है कि आप उसे दूर से भांप सकते हैं..
पांचवें मौसम और पर्यावरण की मुश्किलें.. मसलन, कहर की गर्मी, जबर्दस्त ठंड, ट्रैफिक, प्रदूषण, पानी-बिजली की किल्लत, आबादी का ज्यादा घनत्व, नाइंसाफी और बेइज्जती..

इन सभी दिक्कतों को वो भी झेल जाते हैं जो आराम से इनसे निपट सकते हैं.. दुनियाभर में बहुत से शहर इन सामाजिक दिक्कतों से टूट रहे हैं लेकिन दिल्ली नहीं.. मगर क्यों?

इन अमेरिकियों ने बाकायदा खोजबीन की और पता लगाने की कोशिश की कि क्या वाकई दिल्ली क्राइम कैपिटल है.. इनकी राय है कि दिल्ली को आप हिंदुस्तानी स्टैंडर्ड्स के आधार पर बेशक खतरनाक शहर का दर्जा दे दें पर ये अमेरिकी शहरों के कहीं आसपास भी नहीं ठहरती.. आखिर क्यों.. जरा मुलाहिजा फरमाएं.. दिल्ली और उसके आसपास 2007 में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 495 हत्याएं हुईं जो एक लाख की आबादी पर 2.95 हैं.. मगर उसी साल न्यूयॉर्क में एक लाख की आबादी पर औसत था 5.94 कत्ल का.. और ये भी ध्यान रखें जनाब कि यही वो साल था जब न्यूयॉर्क शहर को पूरे अमेरिका में सबसे सुरक्षित शहर का दर्जा दिया गया था.. यही हाल बलात्कारों का भी है.. 2007 में प्रति एक लाख की आबादी पर दिल्ली में 3.57 बलात्कार दर्ज हुए, तो न्यूयॉर्क में प्रति एक लाख पर 10.48...

आप कहेंगे कि साहब बहुत से अपराध तो दिल्ली में दर्ज ही नहीं होते पुलिस की कृपा से.. लेकिन क्या आपको यकीन आएगा कि हर एक लाख की आबादी पर तीन कत्ल और 7 बलात्कार के मामले दर्ज नहीं किए जाएंगे.. सोचने में कुछ भद्दा लगता है हिंदुस्तानी पुलिस के लिए.. तो ऐसे में बेहद सतही से लगने वाले ये आंकड़े क्या इसकी तसदीक नहीं करते कि दिल्ली को कम से कम अपराध की राजधानी का तमग़ा नहीं दिया जा सकता.. न्यूयॉर्क और दुनिया के दूसरे शहर अपनी दावेदारी में काफी आगे हैं..

मगर अखबारों की हेडलाइनें चीख-चीख कर कहती हैं दिल्ली अपराधियों का स्वर्ग बन चुका है.. यहां जीना मुश्किल होता जा रहा है.. आम शहरी सुरक्षित नहीं है.. और मीडिया जिस अपराध को रिपोर्ट करके बड़ी बड़ी हेडलाइनें बनाता है और सात-सात, आठ-आठ कॉलम की खबरें बुनता है.. उनकी बानगी भी देख लीजिए.. पंजाब के व्यापारी से एक लाख लूटे.. कार तोड़कर 5 लाख की नगदी चोरी..आदि-आदि.. यानी बेहद मामूली चोरियां..जो डकैती की परिभाषा में भी नहीं आतीं.. बेशक शिकार हुए लोगों के लिए यही बड़ी बात है पर ये भी ध्यान रहे कि अमेरिकी अखबारों में ये खबरें एक लाइन की जगह भी नहीं पातीं..

तो क्राइम कैपिटल में क्राइम लम्पसम ही कहा जा सकता है, पूरा नहीं..फिर भी अगर आप कहेंगे कि नहीं हमारे शहर को क्राइम कैपिटल के खिताब से यूं ही नहीं नवाजा गया है..इसके पीछे ठोस वजहें हैं..आपके इन अमेरिकियों की मामूली रिसर्च को क्यों मानें.. ठीक है तो फिर बताएं..

अगर दिल्ली अपराध राजधानी है तो क्यों नहीं यहां की विकट आर्थिक खाई यहां की बहुतायत युवा पीढ़ी को हथियार उठाने के लिए मजबूर करती? क्यों नहीं नौजवान पूरे शहर का नियंत्रण अपने हाथ में ले लेते? क्यों यहां के लोग पार्किंग वालों से महज 10 रुपए की पर्ची लेकर अपनी 8 लाख की कार की चोरी बर्दाश्त कर लेते हैं? क्यों लोग बसों में लड़कियों से हो रही छेड़छाड़ देखकर भी अपना मुंह मोड़ लेते हैं? क्यों यहां पुलिस आपके कागज पूरे होने के बावजूद आपकी गाड़ी रोककर आपके बीवी-बच्चों के सामने आपका चालान काट सकती है और आपका कॉलर पकड़कर आपके गाल पर तमाचा रख सकती है? क्यों कोई भी सरकारी विभाग का आदमी आपके घर के सामने सड़क खोदकर चला जाता है और फिर महीनों वहां आपके घर के बुजुर्ग गड्ढों में गिरकर जख्रमी होते रहते हैं? क्यों पीएफ डिपार्टमेंट का एक मामूली बाबू आपकी जिंदगी भर की कमाई का पैसा आपको सौंपने से पहले अपना कमीशन चाहता है? क्यों..क्यों..क्यों.. क्या यहां की मर्द आबादी नपुंसक हो चली है...या फिर मतलबपरस्त?

29/1/10

आल इज वैल ताबीज़ है!

3 ईडियट्स ने एक नया जुमला क्वायन किया - आल इज वैल (न-न, ऑल इज़ वैल नहीं).. ऐसा नहीं कि ये पहली बार हुआ है..दरअसल हिंदी फिल्मों को हमेशा एक ताबीज़ की जरूरत होती है.. जिसके सहारे वो अपनी नैया पार लगा सकें.. ये बॉलीवुड फिल्मों के लज़ीज़ व्यंजन का एक अहम इन्ग्रेडिएंट (मसाला) है..बहुत ताकतवर.. और प्रोड्यूसर-डायरेक्टर अच्छी तरह जानते हैं कि हिंदी फिल्मों के दर्शकों की याददाश्त काफी कमजोर है..हां, अगर फिल्म को बॉक्स ऑफिस के सबसे ऊंचे पायदान पर खड़ा करना है तो उन्हें ये गंडे-ताबीज याद िदलाने होंगे और वो इन्हें बरसों अपने मन में बसाए रखेंगे.. ज़ाहिर है कि फिल्म बॉलीवुड में बन रही है तो इस ताबीज़ का इस्तेमाल क्योंकर न हो.. थियेटर से बाहर आते ही दर्शक कहता है -

- यार, आल इज वैल तो कमाल की चीज है..जब आमिर बोलता है न तो पिया की बहन के पेट में मौजूद बच्चा लात चलाता है.. और तब तो कमाल ही हो गया जब आमिर ने कहा - आल इज वैल और पिया की बहन का मरा बच्चा अचानक जिंदा हो गया.. कमाल है यार..

चलिए, ये तो हुई आल इज वैल की बात.. जरा फ्लैशबैक में ले चलते हैं आपको.. हो सकता है कि आपको मेरी बात पर कुछ-कुछ यकीन आए.. अगर आप 30 से 40 के हैं..तो 70 के दशक के बाद से आज तक अपनी देखी हुई किसी फिल्म को जेहन में लाएं.. जो भी मशहूर फिल्म देखी हो..(हां, अर्धसत्य टाइप फिल्में छोड़ दीजिएगा).. बहुत मुमकिन है कि आपको शायद ही किसी फिल्म की कहानी, थीम या प्लॉट याद हो... हां, ये जरूर याद आ जाएगा कि जंजीर में अजीत ने अपना पैट डायलॉग किस अंदाज में बोला था - मोना डार्लिंग...अमरीश पुरी ने किस फिल्म में डायलॉग मारा है- मोगैंबो खुश हुआ.. अनिल कपूर ने किस फिल्म में कहा है- झक्कास, या फिर मिथुन चक्रवर्ती का डायलॉग - तेरी जात का भांडा.. आप बता देंगे तुरंत..

शायद मुझे बताने की जरूरत नहीं कि सह अभिनेताओं और कॉमेडियन्स के स्टाइल और डॉयलॉग्स की नकल के अलावा बहुत से लीड अभिनेताओं को अपना स्टाइल इसी ताबीज़ को पहनकर बनाने को मजबूर होना पड़ा.. और उनके मुंह में ऐसे डायलॉग डाले गए, जो उन्हें दर्शकों के दिमागों में जिंदा रख सकें.. (गौरतलब है-धर्मेंद्र का डायलॉग- कुत्ते-कमीने, तेरा खून..) क्योंकि उनके अभिनय की कहानी पर अब झिलमिली पड़ चुकी है..दर्शकों की याददाश्त बहुत कमजोर होती है जनाब..

आइए फिर थ्री ईडियट्स की बात करें.. शायद यही वजह थी कि थ्री ईडियट्स को भी आल इज वैल करना पड़ा.. स्क्रिप्टराइटर को अपने दिमाग को काफी झूले देने पड़े और उसके बाद एक कहानी जन्मी.. रणछोड़दास की एंट्री भी इसी आल इज वैल के भरोसे है..क्योंकि रैगिंग के दौरान अकेला यही ताबीज उसे सीनियरों के अत्याचार से बचा पाता है.. रणछोड़दास इसे आगे इलेबोरेट भी करता है.. गांव के चौकीदार की कहानी सुनाकर.. रैंचो फ्लैशबैक के एक सीन में अपने दोस्तों को बताता है कि कैसे इस चौकीदार के आल इज वैल के भरोसे पूरा गांव चैन की नींद सोया करता था.. लेकिन विरोधाभास देखिए कि आल इज वैल पर टिकी इस फिल्म का स्क्रिप्टराइटर ये नहीं बताता कि जब गांव में डकैती पड़ी तो कैसे और क्यों आल इज वैल का ताबीज हवा हो गया.. और आमिर भी अपने दोस्तों को ये साफ नहीं करते कि आखिर आल इज वैल क्यों नहीं था उस रात..

चूंकि चौकीदार फिल्म स्क्रिप्ट के दायरे से बाहर है.. ये सिर्फ छौंका लगाने के लिए लिया गया.. इसलिए उसकी बात ही छोड़ दी गई और रैंचो ने इस आल इज वैल की घंटी को अपने गले पहन लिया..और ये सुनिश्चित करने की पूरी कोशिश की कि किसी भी हालत में इस ताबीज़ की बदौलत वो फिल्म का आल इज वैल करा दें.. साथ में प्रमोशनल कैंपेन तो था ही.. खैर..

तो क्या आमिर की फिल्म थ्री ईडियट्स आल इज वैल की वजह से याद की जाएगी.. हो सकता है.. क्योंकि इस कोलाज की कहानियां एक दूसरे से इतनी जुदा हैं कि उनके सिरे तो शायद ही आपका दिमाग पकड़ सके..हां, आल इज वैल याद रह जाएगा..

ये सिनेमाई ताबीज़ थ्री ईडियट्स को ब्लॉकबस्टर की तरह याद रखा पाएगा.. फिल्म की कामयाबी में कोई संदेह नहीं.. इसकी वजह भी हैं.. दर्शक वही है जो 80 के दशक से लेकर आज तक फिल्में हिट कराता आया है.. फॉर्मूले भी वही हैं.. हां एक चीज़ और खास जुड़ गई है..आमिर का जादुई प्रमोशनल कैंपेन, जिसने फिल्म इंडस्ट्री में कुछ नए नियम लिखे हैं..और इसके बाद अभिनेताओं को इलीटिज्म का लबादा उतारकर फेंकना पड़ा है.. अब वो फिल्म बनाते हैं सरकार से मिले विकास फंड की तरह और फिर एक राजनीतिज्ञ की तरह मैदान में उतर पड़ते हैं- देखिए हमारे प्यारे दर्शकों, ये फिल्म हमने आपके लिए बनाई है..इसे आपके प्यार (पढ़ें- िटकट खरीदकर देखने) की बहुत जरूरत है.. जगह-जगह सभाएं, अपने दर्शकों तक सीधे पहुंचने की कवायद, उनके दिमाग न सही तो हाथों को पकड़ने की कोशिश.. खैर.. ये बातें फिर किसी वक्त.. फिलहाल अपने दिल पर हाथ रखकर बस इतना ही कहें.. आल इज वैल, आल इज वैल..

25/1/10

3 ईडियट्स: कहानी का गर्भपात!

ऑल इज नॉट वैल..3 ईडियट्स यानी हवाई लफ्फाजी के साथ हिंदी फिल्मों के रटे रटाए फॉर्मूलों का जोड़-घटाव.. पूरी कहानी का गर्भपात.. पैदा तो हुई लेकिन क्षत-विक्षत और मरी हुई.. आदर्शवाद का फिल्मी मसाला..

3 ईडियट, एक कन्फ्यूज्ड फिल्म.. गंभीर बातों को बेहद दुखद ढंग से पेश करने का बहाना करने वाली, दोहराव में उलझी, तार्किक लगने वाले नकली और थोपे गए सीन ईजाद करने वाली..औसत दर्जे की बॉलीवुड मूवी..औकात से ज्यादा प्रचारित फिल्म, जिसने एक अच्छे ख्याल का कत्ल कर दिया.. जिसमें बगैर किसी तर्क या वजह के जबर्दस्ती इस बात पर जोर देने की कोशिश की गई है कि मौजूदा शिक्षण व्यवस्था खुदकुशियों को बढ़ावा देने वाली और मार्क्स का बोझ खड़ा करने वाली चीज है.. ये बात कथानक और उसे कहने के स्टाइल के साथ फिट ही नहीं बैठती..

पूरी फिल्म न तो कॉमेडी है (अगर आप पैंट उतारने वाले और इसी तरह के दूसरे सीन को कॉमेडी मानते हों तो बात अलग है) और न कहीं गंभीरता से उस विषय को आगे बढ़ाने वाली, जिसे लेकर आमिर आजकल इतने चहक रहे हैं.. मानो उन्होंने कोई कल्ट क्लासिक दे दिया हो..

रंग दे बसंती के अपने दोनों साथियों के साथ आमिर ने एक बार फिर टीम बनाई.. माधवन और शर्मन जोशी को साथ लेकर वही किया जो वो चाहते थे.. इसे आप यूं पढ़ें कि जो फिल्म के तीनों ईडियट्स चाहते हैं, वही असल में आमिर, विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हिरानी ने किया है.. अगर यही वो फिल्म है जिसे लेकर आमिर ने इस आयडिया के जन्मदाता (लेखक चेतन भगत) को धता बताई तो चेतन को तो इसका शुक्रिया अदा करना चाहिए..

जो बिकता है, वही चलता है, यही दस्तूर है.. इसलिए बेशक बहुत से लोगों को ये फिल्म अच्छी लगेगी..मगर ये चीज आमिर के दावे कि वो हमेशा हर फिल्म दस्तूर से अलग बनाते हैं, से मेल नहीं खाती.. हो सकता है कि जो दर्शक हल्के-फुल्के मसाले में काम चलाना चाहता है तो उनके लिए ये फिल्म काम करेगी.. मगर फिल्म के कुछ आलोचकों को ये जरूर खलेगा कि आखिर जिस विषय को फिल्म का प्लॉट बनाया गया तो उसी का ठीक से विकास क्यों नहीं किया गया.. क्यों ज्यादातर सीन एक नौसिखियाई अंदाज में निकले लगते हैं.. क्यों छात्रों की जिंदगी और उन पर पढ़ाई के दबाव फिल्म के केंद्र में नहीं है..जिन्हें बार बार उठाया जा रहा है..क्या आमिर के जरिए मशीन की परिभाषा बताने भर से पूरी बात खत्म हो जाती है..

फिल्म का करीब तीन चौथाई हिस्सा फ्लैशबैक में है और सारे के सारे फ्लैशबैक थोपे गए हैं.. उनका किरदारों की वर्तमान जिंदगी से कोई कनेक्ट नहीं दिखता.. अचानक वो प्रकट होते हैं.. और फिर अचानक गायब हो जाते हैं.. मानो अतीत आपके वर्तमान के साथ साथ चल रहा है.. यहां तक कि फिल्म समयकाल को भी स्टैब्लिश नहीं कर पाती..

अगर बात एक्टिंग की करें तो खुद को नॉन कन्फॉर्मिस्ट मानने वाले आमिर की ये फिल्म उनकी ये छवि तो कहीं पेश नहीं करती.. वो तमाम जादू की झप्पियां देने की कोशिश करते हैं और दर्शकों को ये भुलाने की कोशिश करते हैं कि वो 40 साल के आमिर नहीं 20-22 के रणछोड़दास यानी रैंचो हैं.. कॉमेडी या कुछ सीधी नसीहतें छोड़कर वो पूरी फिल्म में कुछ करते नहीं दिखाए गए.. माधवन का किरदार यानी फरहान ठीक से विकसित नहीं हो पाया.. वो अपने पिता (परीक्षित साहनी) का ही ठीक से सामना नहीं कर पाता.. शर्मन जोशी के किरदार में जरूर कुछ ताकत है..लेकिन इसकी वजह महज उसके आसपास बुने गए सीन हैं.. गरीबी, बीमार बाप..वरना ज्यादातर वो भी अपने किरदार से न्याय नहीं कर पाया है.. करीना ने सैट पैटर्न पर काम किया है..न तो उनके किरदार में कोई कशिश है और न जरूरत..हर बार की तरह वो अपनी जब वी मैट की छवि ही पेश करती हैं.. उसमें दर्शकों को एक्टिंग के बजाय फेस वैल्यू ही दिखेगी..प्रिंसीपल साहब (बोमन ईरानी) अपने बेटे का सुसाइड नोट देखकर जो 'भावनाएं' व्यक्त करते हैं, वो शायद दुनिया भर के सिनेमा के इतिहास में अनोखी बात होगी.. कोई कनेक्ट नहीं.. चतुर रामलिंगम के किरदार को कुछ वक्त तक लोग एक 'बलात्कारी' सीन की वजह से शायद याद रखें..वरना उसे इसी ढंग से पेश किया गया है कि वो रट्टू तोता है बस..

पूरी फिल्म देखने से लगता है कि मानो फिल्म को जबरन गले उतारा जा रहा हो..कहानी का कोई नेचुरल प्रोग्रेशन या नैरेटिव नहीं है..कोई भी सीन कुदरती मौत नहीं मरता..उनकी हत्या की गई है.. ऐसे में किसी सीन के खूबसूरत अंत की तो बात ही न करें..हवा में लिखी गई कई कहानियों का एक कोलाज है ये फिल्म..जिन्हें फ्रेम में लगाकर पर्दे पर टांग दिया गया.. (इसे यूं पढ़ें कि लगता है कि स्क्रीनप्ले लिखने वाले एक से ज्यादा थे और इन सबके ऊपर बैठे थे खुद आमिर खान, जिन्हें फ्रेम को पर्दे पर रखना था)

रणछोड़दास यानी रैंचो को कोई चुनौती नहीं दे सकता..चाहे वो जो करे..वो मौजूदा एजूकेशन सिस्टम में मिसफिट नहीं है..यहां तक कि फर्स्ट क्लास हासिल करता है..वो भी सिर्फ भाषण देकर..इंजीनियरिंग कॉलेज के प्रिंसीपल को छोड़कर उसका विरोधी कोई नहीं (क्योंकि बॉलीवुड फिल्म में एक एंटागोनिस्ट और कन्फ्लिक्ट की बहुत जरूरत होती है, वरना दर्शक भाग जाएगा..) यही प्रिंसीपल सिर्फ उस शिक्षण पद्धति का प्रतीक है, जिसे आमिर पूरी फिल्म में कोस रहे हैं.. लेकिन उससे आमिर को कोई चुनौती नहीं मिलती क्योंकि वो अनुशासन को ज्यादा अहमियत देता है न कि शिक्षा को.. ऐसे में चूंकि विलेन ही ताकतवर नहीं है इसीलिए आमिर का किरदार भी कमजोर है..

रैंचो यानी रणछोड़दास सिर्फ डायलॉग के जरिए किसी को भी मना सकता है.. रैंचो के भाषणों के आगे सब अचानक नतमस्तक हैं..एकदम गैर वास्तविक.. प्रिंसीपल की बेटी पिया रैंचो की दीवानी है, फरहान और राजू उसके आगे हार जाते हैं, फरहान के पिता को फरहान की दलीलें एकदम समझ आ जाती हैं और वो उसके लिए प्रोफेशनल कैमरा खरीदने को तैयार हो गए हैं.. रणछोड़ के कहने पर पिया एकदम अपने मंगेतर को छोड़ देती है.. रैंचो पर पिया को इतना यकीन है कि वो एक वैक्यूम क्लीनर के जरिए तूफानी रात में पिंग पॉंग टेबल पर रैंचो के हाथों अपनी बहन की डिलीवरी कराती है..और वो भी वैबकैम के जरिए..इंजीनियरिंग कॉलेज का प्रिंसीपल एकदम उसके आगे हार मान जाता है.. और ये सारी चुनौतियां इसलिए खत्म की गईं ताकि आमिर फिल्म को जल्द से आगे ले जा सकें..यानी ये सभी किरदारों का कत्ल भी है..क्योंकि ये फिल्म सिर्फ आमिर से संबंधित है..छात्रों पर पड़ रहे मौजूदा एजुकेशन सिस्टम के दबाव से नहीं.. फिल्म का सारा जोर भाषणों और आदर्शों के बखान में है न कि विषय पर..

इसका मतलब ये नहीं कि स्टोरी ईडियट है.. नहीं.. ये कहानी कहनी जरूरी है.. पर इस ईडियट तरीके से कही जाएगी.. किसे पता था..

दरअसल आमिर को झंडा बुलंद करना था कि वो सिर्फ गैर पारंपरिक और ईडियट फिल्में ही बनाते हैं..वो जानते हैं कि दर्शक ईडियट हैं, जो ईडियट फॉर्मूला फिल्में देखने थियेटर चले आएंगे..

नदी

क्या नदी बहती है  या समय का है प्रवाह हममें से होकर  या नदी स्थिर है  पर हमारा मन  खिसक रहा है  क्या नदी और समय वहीं हैं  उस क्षैतिज रेखा पर...