3 ईडियट्स: कहानी का गर्भपात!

ऑल इज नॉट वैल..3 ईडियट्स यानी हवाई लफ्फाजी के साथ हिंदी फिल्मों के रटे रटाए फॉर्मूलों का जोड़-घटाव.. पूरी कहानी का गर्भपात.. पैदा तो हुई लेकिन क्षत-विक्षत और मरी हुई.. आदर्शवाद का फिल्मी मसाला..

3 ईडियट, एक कन्फ्यूज्ड फिल्म.. गंभीर बातों को बेहद दुखद ढंग से पेश करने का बहाना करने वाली, दोहराव में उलझी, तार्किक लगने वाले नकली और थोपे गए सीन ईजाद करने वाली..औसत दर्जे की बॉलीवुड मूवी..औकात से ज्यादा प्रचारित फिल्म, जिसने एक अच्छे ख्याल का कत्ल कर दिया.. जिसमें बगैर किसी तर्क या वजह के जबर्दस्ती इस बात पर जोर देने की कोशिश की गई है कि मौजूदा शिक्षण व्यवस्था खुदकुशियों को बढ़ावा देने वाली और मार्क्स का बोझ खड़ा करने वाली चीज है.. ये बात कथानक और उसे कहने के स्टाइल के साथ फिट ही नहीं बैठती..

पूरी फिल्म न तो कॉमेडी है (अगर आप पैंट उतारने वाले और इसी तरह के दूसरे सीन को कॉमेडी मानते हों तो बात अलग है) और न कहीं गंभीरता से उस विषय को आगे बढ़ाने वाली, जिसे लेकर आमिर आजकल इतने चहक रहे हैं.. मानो उन्होंने कोई कल्ट क्लासिक दे दिया हो..

रंग दे बसंती के अपने दोनों साथियों के साथ आमिर ने एक बार फिर टीम बनाई.. माधवन और शर्मन जोशी को साथ लेकर वही किया जो वो चाहते थे.. इसे आप यूं पढ़ें कि जो फिल्म के तीनों ईडियट्स चाहते हैं, वही असल में आमिर, विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हिरानी ने किया है.. अगर यही वो फिल्म है जिसे लेकर आमिर ने इस आयडिया के जन्मदाता (लेखक चेतन भगत) को धता बताई तो चेतन को तो इसका शुक्रिया अदा करना चाहिए..

जो बिकता है, वही चलता है, यही दस्तूर है.. इसलिए बेशक बहुत से लोगों को ये फिल्म अच्छी लगेगी..मगर ये चीज आमिर के दावे कि वो हमेशा हर फिल्म दस्तूर से अलग बनाते हैं, से मेल नहीं खाती.. हो सकता है कि जो दर्शक हल्के-फुल्के मसाले में काम चलाना चाहता है तो उनके लिए ये फिल्म काम करेगी.. मगर फिल्म के कुछ आलोचकों को ये जरूर खलेगा कि आखिर जिस विषय को फिल्म का प्लॉट बनाया गया तो उसी का ठीक से विकास क्यों नहीं किया गया.. क्यों ज्यादातर सीन एक नौसिखियाई अंदाज में निकले लगते हैं.. क्यों छात्रों की जिंदगी और उन पर पढ़ाई के दबाव फिल्म के केंद्र में नहीं है..जिन्हें बार बार उठाया जा रहा है..क्या आमिर के जरिए मशीन की परिभाषा बताने भर से पूरी बात खत्म हो जाती है..

फिल्म का करीब तीन चौथाई हिस्सा फ्लैशबैक में है और सारे के सारे फ्लैशबैक थोपे गए हैं.. उनका किरदारों की वर्तमान जिंदगी से कोई कनेक्ट नहीं दिखता.. अचानक वो प्रकट होते हैं.. और फिर अचानक गायब हो जाते हैं.. मानो अतीत आपके वर्तमान के साथ साथ चल रहा है.. यहां तक कि फिल्म समयकाल को भी स्टैब्लिश नहीं कर पाती..

अगर बात एक्टिंग की करें तो खुद को नॉन कन्फॉर्मिस्ट मानने वाले आमिर की ये फिल्म उनकी ये छवि तो कहीं पेश नहीं करती.. वो तमाम जादू की झप्पियां देने की कोशिश करते हैं और दर्शकों को ये भुलाने की कोशिश करते हैं कि वो 40 साल के आमिर नहीं 20-22 के रणछोड़दास यानी रैंचो हैं.. कॉमेडी या कुछ सीधी नसीहतें छोड़कर वो पूरी फिल्म में कुछ करते नहीं दिखाए गए.. माधवन का किरदार यानी फरहान ठीक से विकसित नहीं हो पाया.. वो अपने पिता (परीक्षित साहनी) का ही ठीक से सामना नहीं कर पाता.. शर्मन जोशी के किरदार में जरूर कुछ ताकत है..लेकिन इसकी वजह महज उसके आसपास बुने गए सीन हैं.. गरीबी, बीमार बाप..वरना ज्यादातर वो भी अपने किरदार से न्याय नहीं कर पाया है.. करीना ने सैट पैटर्न पर काम किया है..न तो उनके किरदार में कोई कशिश है और न जरूरत..हर बार की तरह वो अपनी जब वी मैट की छवि ही पेश करती हैं.. उसमें दर्शकों को एक्टिंग के बजाय फेस वैल्यू ही दिखेगी..प्रिंसीपल साहब (बोमन ईरानी) अपने बेटे का सुसाइड नोट देखकर जो 'भावनाएं' व्यक्त करते हैं, वो शायद दुनिया भर के सिनेमा के इतिहास में अनोखी बात होगी.. कोई कनेक्ट नहीं.. चतुर रामलिंगम के किरदार को कुछ वक्त तक लोग एक 'बलात्कारी' सीन की वजह से शायद याद रखें..वरना उसे इसी ढंग से पेश किया गया है कि वो रट्टू तोता है बस..

पूरी फिल्म देखने से लगता है कि मानो फिल्म को जबरन गले उतारा जा रहा हो..कहानी का कोई नेचुरल प्रोग्रेशन या नैरेटिव नहीं है..कोई भी सीन कुदरती मौत नहीं मरता..उनकी हत्या की गई है.. ऐसे में किसी सीन के खूबसूरत अंत की तो बात ही न करें..हवा में लिखी गई कई कहानियों का एक कोलाज है ये फिल्म..जिन्हें फ्रेम में लगाकर पर्दे पर टांग दिया गया.. (इसे यूं पढ़ें कि लगता है कि स्क्रीनप्ले लिखने वाले एक से ज्यादा थे और इन सबके ऊपर बैठे थे खुद आमिर खान, जिन्हें फ्रेम को पर्दे पर रखना था)

रणछोड़दास यानी रैंचो को कोई चुनौती नहीं दे सकता..चाहे वो जो करे..वो मौजूदा एजूकेशन सिस्टम में मिसफिट नहीं है..यहां तक कि फर्स्ट क्लास हासिल करता है..वो भी सिर्फ भाषण देकर..इंजीनियरिंग कॉलेज के प्रिंसीपल को छोड़कर उसका विरोधी कोई नहीं (क्योंकि बॉलीवुड फिल्म में एक एंटागोनिस्ट और कन्फ्लिक्ट की बहुत जरूरत होती है, वरना दर्शक भाग जाएगा..) यही प्रिंसीपल सिर्फ उस शिक्षण पद्धति का प्रतीक है, जिसे आमिर पूरी फिल्म में कोस रहे हैं.. लेकिन उससे आमिर को कोई चुनौती नहीं मिलती क्योंकि वो अनुशासन को ज्यादा अहमियत देता है न कि शिक्षा को.. ऐसे में चूंकि विलेन ही ताकतवर नहीं है इसीलिए आमिर का किरदार भी कमजोर है..

रैंचो यानी रणछोड़दास सिर्फ डायलॉग के जरिए किसी को भी मना सकता है.. रैंचो के भाषणों के आगे सब अचानक नतमस्तक हैं..एकदम गैर वास्तविक.. प्रिंसीपल की बेटी पिया रैंचो की दीवानी है, फरहान और राजू उसके आगे हार जाते हैं, फरहान के पिता को फरहान की दलीलें एकदम समझ आ जाती हैं और वो उसके लिए प्रोफेशनल कैमरा खरीदने को तैयार हो गए हैं.. रणछोड़ के कहने पर पिया एकदम अपने मंगेतर को छोड़ देती है.. रैंचो पर पिया को इतना यकीन है कि वो एक वैक्यूम क्लीनर के जरिए तूफानी रात में पिंग पॉंग टेबल पर रैंचो के हाथों अपनी बहन की डिलीवरी कराती है..और वो भी वैबकैम के जरिए..इंजीनियरिंग कॉलेज का प्रिंसीपल एकदम उसके आगे हार मान जाता है.. और ये सारी चुनौतियां इसलिए खत्म की गईं ताकि आमिर फिल्म को जल्द से आगे ले जा सकें..यानी ये सभी किरदारों का कत्ल भी है..क्योंकि ये फिल्म सिर्फ आमिर से संबंधित है..छात्रों पर पड़ रहे मौजूदा एजुकेशन सिस्टम के दबाव से नहीं.. फिल्म का सारा जोर भाषणों और आदर्शों के बखान में है न कि विषय पर..

इसका मतलब ये नहीं कि स्टोरी ईडियट है.. नहीं.. ये कहानी कहनी जरूरी है.. पर इस ईडियट तरीके से कही जाएगी.. किसे पता था..

दरअसल आमिर को झंडा बुलंद करना था कि वो सिर्फ गैर पारंपरिक और ईडियट फिल्में ही बनाते हैं..वो जानते हैं कि दर्शक ईडियट हैं, जो ईडियट फॉर्मूला फिल्में देखने थियेटर चले आएंगे..

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