किसे चाहिए अखबार?

किसे चाहिए वो अखबार, जिसमें एक कमांड के जरिए खबरें सर्च न की जा सकें...
किसे चाहिए वो खबर जो आपके कंप्यूटर, मोबाइल और पामटॉप पर सेव न की जा सके..
किसे चाहिए वो खबर जिसे आप 21वीं सदी में भी किसी को भेजकर पढ़ा ही न सकें...
किसे चाहिए वो खबर जिस पर आप दूसरों के साथ राय-मश्विरा न कर सकें, बगैर कंटेंट की तर्जुमानी किए...
किसे चाहिए वो खबर, जिसे आप दूसरी खबरों के साथ नाप-तोल न कर सकें, लिंक न कर सकें...
किसे चाहिए वो अखबार जो सुबह ऑफिस जाने से पहले न पढ़ा जा सके और रात तक सड़ जाए..
किसे चाहिए वो अखबार जो आपको ध्वनि और दृश्य से दूर रखकर सिर्फ सोचने तक छोड़ दे...

ये बहस के कुछ बिंदु हैं जो शुरू हुई है और चल रही है...लेकिन न्यूजपेपरमैन का ही इससे सरोकार नहीं क्योंकि वो अपनी नौकरी से ज्यादा नहीं सोचता...(हालांकि अखबार का उपभोक्ता वो भी है).. मालिक को इसलिए नहीं कि अभी कोई सीधी चुनौती नहीं मिली है...

ये बहस टैक्नोलॉजी की नहीं है...अगर लोग ये सोचते हैं तो शायद गलत होगा...ये बहस है स्वाद की...बदले हुए जायके की...ये बहस है हमारे वक्त में अखबारों के लगातार जायके में रुकावट पैदा करने की...

देश में बड़े-बड़े कई अखबार हैं... हिंदी के भी और अंग्रेजी के भी.. लेकिन उनमें न तो ठीक से इंटरनेशनल कवरेज होता है (हिंदी में तकरीबन नहीं) और न पूरी तरह नेशनल (नेशनल में पश्चिमोत्तर, पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत भी शामिल है, केवल उत्तर नहीं, हिंदी में ये बिल्कुल नहीं)...सभी खुद को राष्ट्रीय कहने में जरा भी शर्म महसूस नहीं करते..जबकि ज्यादातर का फोकस लोकल है.. या महानगरीय.. ज्यादातर के फ्रंटपेज पर सबसे बड़ी और अहम खबरें एजेंसी की छपती हैं...उनके पास या तो रिपोर्टर्स नहीं हैं या फिर उनका फोकस नहीं है.. इन्वेस्टिगेशन के नाम पर सिटी के बेहद मामूली विभागीय घोटाले या फिर किसी से स्पांसर्ड खबर का प्रस्तुतिकरण...

तो क्यों न इनकी मौत होगी..सिर्फ सूचना पाने के लिए तो बहुत से और माध्यम और रास्ते हैं.. जो तकरीबन मुफ्त हैं.. एडवर्टीजमेंट के सस्ते और कारगर उपाय और माध्यम अभी एडवर्टाइजर्स को पता नहीं चले हैं, या बहुत नवजात हालत में हैं... जैसे रीयल इस्टेट, ऑटोमोटिव, एजूकेशन आदि के विज्ञापन धीरे धीरे ऑनलाइन हो रहे हैं.. और ये भी तय है कि अखबार केवल एडवर्टाइजर के लिए नहीं छप रहे.. तो किसके लिए छप रहे हैं.. इस सवाल का जवाब आगे...पहले उन बिंदुओं पर बात कर ली जाए जो शुरू में उठाए गए थे...

अखबारों को बचाने की कोशिश या उनके हक में हर आवाज दरअसल एक तरह का नॉस्टेल्जिया ही है.. जो हमारी पीढ़ी तक चल रहा है.. लेकिन हमारे बाद? 

पत्रकारिता चाहे अखबार में हो, लैपटॉप या डेस्कटॉप पर, ब्लैकबेरी पर या पॉडकास्ट के बतौर या फिर किंडल (बुक रीडर) पर...हर जगह उसे साबित करना ही होता है..कि वो जनता की आवाज के हक में खड़ी है.. और स्टेट का विकल्प दे रही है... लेकिन फिर अखबार ही क्यों? 

यकीनन कंटेंट अपने माध्यम के साथ बदल जाता है...चाहे वो घटिया ढंग से बदले या बेहतर से.. हम खबर के रूपांतरण के दौर में जी रहे हैं.. शायद कल न तो अखबार होगा और न टेलीविजन.. 
और ये अखबार इस देश में आज अगर बिक रहे हैं तो उनकी वजह से जिनके लिए वो छापे ही नहीं जा रहे...शायद 

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