जब एक अखबार मरता है...
हाँ, जब एक अखबार मरता है तो सिर्फ अखबार ही नहीं मरता...
समय का वो टुकड़ा हमेशा के लिए मर जाता है...जिसे हम जानते आए हैं...
जब एक अखबार मरता है तो उस शहर की चेतना का एक हिस्सा भी उसके साथ खत्म हो जाता है
जब एक अखबार मरता है तो उस शहर की चेतना का एक हिस्सा भी उसके साथ खत्म हो जाता है
जब एक अखबार मरता है तो उस समाज और समुदाय का एक पक्ष विक्षत हो जाता है
जब एक अखबार मरता है तो किसी की जीत नहीं होती, पूरा शहर हार जाता है
जब एक अखबार मरता है तो उस समुदाय की कहानियां मर जाती हैं किस्सागो के साथ
जब एक अखबार मरता है तो उस शहर की स्मृति भी छिन्न-भिन्न हो जाती है
जब एक अखबार मरता है तो वो स्वर और प्रतीक गायब हो जाते हैं जो पूरे समुदाय के लिए अहमियत रखते थे
अमेरिका के डेढ़ सौ साल के उम्रदराज अखबार रॉकी माउंटेन न्यूज की 3 मार्च 2009 को मौत हो गई...रॉकी के साथ ही कोलोरैडो और डेनवर के ऐतिहासिक समय, स्मृतियों और चेतना का एक हिस्सा भी दफन हो गया... रॉकी अमेरिका का 21वां सबसे पुराना अखबार था...
इन डेढ़ सौ साल के वक्त में इस अखबार के कई संपादक अगवा हुए, उन्हें गोली मारी गई, उनको पीटा गया और उन्हें जलाया गया... उन्होंने कॉमनवेल्थ बनाए, विश्वविद्यालय खड़े किए, वो पहाड़ों पर चढ़े...उन्हें अपने दफ्तर पहुंचने से रोका गया...लेकिन वो कभी नहीं डरे, कभी झुके नहीं...तब भी नहीं जब शायद सिर्फ यही एक रास्ता बचा था...
तो ऐसा क्या हुआ कि इतने बेखौफ अखबार के डेढ़ सौ साल के सुनहरे अतीत पर एकदम झिलमिली पड़ गई... खुद अखबार के संपादक मानते हैं कि उन्हें बुरे लोगों और विरोधियों ने नहीं उनके ही पाठकों ने परास्त कर दिया... उन्हें इंटरनेट ने हरा दिया...क्योंकि लोग डेढ़ सौ साल से कागज पर छपते अखबार को पढ़कर ऊब गए थे...आप इसे दुखद कह सकते हैं...लेकिन रॉकी माउंटेन न्यूज ने अमेरिकी पूंजीवाद का वार भी झेल लिया था... उसे उन्हीं ने हरा दिया, जिनके लिए वो छपता रहा...
इस अखबार ने सिर्फ कोलोरैडो के इतिहास की गौरवगाथाएं ही दर्ज नहीं कीं... उसके पन्नों पर शहर की बर्बरता और उसका अत्याचार भी दर्ज हुए...सभी मील के पत्थरों की रिकॉर्डिंग और तकरीबन सभी मसलों पर बेबाक राय भी उसी स्याही से दर्ज की गई... लेकिन अब ये एक इतिहास हो चुका है... कुछ भी हो, कोलोरैडो का कोई भी बाशिंदा रॉकी माउंटेन न्यूज पर कभी ये आरोप नहीं लगा सकेगा कि उसने उनके हक के लिए जद्दोजहद छोड़ दी थीं...रॉकी के संपादकों का कहना है कि बेशक कई बार वो अपने झुकाव की वजह से जनहित में गलत भी साबित हुए लेकिन फिर भी ज्यादातर ऐसे मौके आए, जब अखबार और उसके रिपोर्टरों ने जो भी कदम उठाया, कोलोरैडो के हित में ही गया...
इस अखबार की मौत की खबर अखबार के लोगों को पहले ही मिल चुकी थी...जो भी अखबार से जुड़ा था, चपरासी से लेकर रिपोर्टर और एडिटर तक...सभी के लिए रॉकी माउंटेन न्यूज एक ऐसी संस्था थी, जिसके बगैर उनकी जिंदगी अधूरी थी...
कुछ लोग कहते हैं कि वो अखबारों से पीछा छुड़ाना चाहते हैं... उन्हें दूसरे रास्तों से मिल रही सूचनाओं और खबरों की बाढ़ के बीच अब और ज्यादा अखबारों की जरूरत नहीं है... उनका ये भी कहना है कि वो खबरें खरीदें ही क्यों जब उन्हें वो मुफ्त में हासिल हैं...इन लोगों के लिए रॉकी के संपादकों का कहना था कि वो जनता के इन तर्कों को अच्छी तरह समझते हैं कि पिछले एक दशक में सूचना पाना कितना आसान और सस्ता हो गया है... और उन्होंने भी बतौर अखबार इसका फायदा उठाया है...जाहिर है अपनी खबरों के चुनाव और झुकाव में कोई अखबार गलती करता है और कर सकता है...लेकिन औसतन वो दूसरे माध्यमों जैसे टीवी के मुकाबले कम सेलेक्टिव और कम झुकाव रखने वाला होता है...और इस वक्त इस कमी को पूरा करने में कोई खबर माध्यम सक्षम नहीं है...
इस अखबार के संपादकों की असल चिंता है स्थानीय पत्रकारिता... और उसका भविष्य...उन्हें रॉकी की मौत का इतना दुख नहीं जितना शहर की जिंदगी को दर्ज करने वाली एक संस्था के बंद होने का है...और पूरे अमेरिका में लोग स्थानीय अखबारों को बंद होता देख रहे हैं... लेकिन ये सवाल क्यों उठा रहे हैं... उनकी राय में एक अखबार जिस तरह मेहनत के साथ छोटे-छोटे स्कूलो, जिलों, शहर प्रशासन, पुलिस एजेंसियों और कानूनी सवालों पर लोगों की नजर में लाता है... वो दूसरे माध्यमों के लिए अभी भी काफी मुश्किल है...क्योंकि अच्छी रिपोर्टिंग ही वो चीज है जिस पर स्थानीय स्तर पर लोकतंत्र काम करता है...
रॉकी को बनाने में उसके रिपोर्टरों और संपादकों ने अपना खून और पसीना दोनों लगाए... बेहद प्रतिस्पर्धा में रॉकी पर जबर्दस्त अनिश्चितता हावी रही लेकिन रॉकी को चलाना कोई रहस्य या जादू नहीं था, ये सब जानते थे...लोग अखबारों की प्रतिस्पर्धा को तो समझते हैं लेकिन वो नहीं जानते कि दो अखबारों की दुश्मनी की गहराई कितनी और कैसी होती है...रॉकी ने डेनवर में अपने प्रतिद्वंद्वियों से कुछ ऐसे युद्ध लड़े, जिन्हें आज भी अमेरिकी अखबारों के सबसे जुझारू संघर्षों के बतौर याद किया जाता है...कई बार उसने अस्तित्व के संकट का सामना किया और हर बार वो विजयी होकर निकला...खुद को उसने फिर से तराशा, संवारा और फिर से पाठकों के हाथ में पहुंचा नए कलेवर के साथ...
अखबार में लगातार घाटा बढ़ रहा था... जो 2008 में 1 अरब 50 करोड़ रुपए तक पहुंच गया... क्लासीफाइड रेवेन्यू लगातार घटती गई...पिछले एक दशक से सर्कुलेशन भी कम हो रहा था क्योंकि लोगों की आदतें बदल रही थीं...2007 में कोलोरैडो से ज्यादा सिर्फ 8 ऐसे राज्य थे जहाँ अखबारों का सर्कुलेशन ज्यादा दर्ज किया गया...खास बात ये थी कि डेढ़ सौ साल पहले जिन चीजों की वजह से रॉकी माउंटेन न्यूज में उसके मालिक विलियम बायर्स ने जान फूंकी थी, वही चीजें अब उसकी मौत की वजह बन गईं...
सब जानते हैं कि ये बुरा दौर है... बहुत से उद्योग बंद हो रहे हैं.. ऐसे वक्त में हम आपको बता दें कि अखबार बंद नहीं होते... वो बस मर जाते हैं.. दुनिया बाकी व्यवसायों के बगैर काम चला लेती है...लेकिन लोगों के जीवन को दर्ज करने वालों की जरूरत हर दिन होती है...यूं तो हर बिजनेस हाउस के पास तिमाही दर तिमाही अपनी कामयाबी दिखाने का मौका होता है लेकिन एक अखबार की कामयाबी का पैमाना होती हैं उसकी स्टोरीज, उसकी खबरें... हालांकि अखबार के पास इतिहास दर्ज करने के लिए इतिहासकारों जैसा नहीं होती... वो आपका भोगा हुआ इतिहास तुरंत आप तक पहुंचा देते हैं...चूंकि कोई भी अखबार कभी गलती मुक्त या परफेक्ट नहीं होता, लेकिन ये अखबार ही होता है जो हमेशा सही होने की कोशिश करता रहता है...इसके बावजूद कि उसे सही होने में 24 घंटे लगते हैं...
पाठक और रॉकी के विरोधियों दोनों को ही रॉकी की कमी खलेगी और बुरी तरह सालेगी...डेनवर शहर को अब सिर्फ एक अखबार से काम चलाना होगा, 100 साल में पहली बार...
अमेरिका के डेढ़ सौ साल के उम्रदराज अखबार रॉकी माउंटेन न्यूज की 3 मार्च 2009 को मौत हो गई...रॉकी के साथ ही कोलोरैडो और डेनवर के ऐतिहासिक समय, स्मृतियों और चेतना का एक हिस्सा भी दफन हो गया... रॉकी अमेरिका का 21वां सबसे पुराना अखबार था...
इन डेढ़ सौ साल के वक्त में इस अखबार के कई संपादक अगवा हुए, उन्हें गोली मारी गई, उनको पीटा गया और उन्हें जलाया गया... उन्होंने कॉमनवेल्थ बनाए, विश्वविद्यालय खड़े किए, वो पहाड़ों पर चढ़े...उन्हें अपने दफ्तर पहुंचने से रोका गया...लेकिन वो कभी नहीं डरे, कभी झुके नहीं...तब भी नहीं जब शायद सिर्फ यही एक रास्ता बचा था...
तो ऐसा क्या हुआ कि इतने बेखौफ अखबार के डेढ़ सौ साल के सुनहरे अतीत पर एकदम झिलमिली पड़ गई... खुद अखबार के संपादक मानते हैं कि उन्हें बुरे लोगों और विरोधियों ने नहीं उनके ही पाठकों ने परास्त कर दिया... उन्हें इंटरनेट ने हरा दिया...क्योंकि लोग डेढ़ सौ साल से कागज पर छपते अखबार को पढ़कर ऊब गए थे...आप इसे दुखद कह सकते हैं...लेकिन रॉकी माउंटेन न्यूज ने अमेरिकी पूंजीवाद का वार भी झेल लिया था... उसे उन्हीं ने हरा दिया, जिनके लिए वो छपता रहा...
इस अखबार ने सिर्फ कोलोरैडो के इतिहास की गौरवगाथाएं ही दर्ज नहीं कीं... उसके पन्नों पर शहर की बर्बरता और उसका अत्याचार भी दर्ज हुए...सभी मील के पत्थरों की रिकॉर्डिंग और तकरीबन सभी मसलों पर बेबाक राय भी उसी स्याही से दर्ज की गई... लेकिन अब ये एक इतिहास हो चुका है... कुछ भी हो, कोलोरैडो का कोई भी बाशिंदा रॉकी माउंटेन न्यूज पर कभी ये आरोप नहीं लगा सकेगा कि उसने उनके हक के लिए जद्दोजहद छोड़ दी थीं...रॉकी के संपादकों का कहना है कि बेशक कई बार वो अपने झुकाव की वजह से जनहित में गलत भी साबित हुए लेकिन फिर भी ज्यादातर ऐसे मौके आए, जब अखबार और उसके रिपोर्टरों ने जो भी कदम उठाया, कोलोरैडो के हित में ही गया...
इस अखबार की मौत की खबर अखबार के लोगों को पहले ही मिल चुकी थी...जो भी अखबार से जुड़ा था, चपरासी से लेकर रिपोर्टर और एडिटर तक...सभी के लिए रॉकी माउंटेन न्यूज एक ऐसी संस्था थी, जिसके बगैर उनकी जिंदगी अधूरी थी...
कुछ लोग कहते हैं कि वो अखबारों से पीछा छुड़ाना चाहते हैं... उन्हें दूसरे रास्तों से मिल रही सूचनाओं और खबरों की बाढ़ के बीच अब और ज्यादा अखबारों की जरूरत नहीं है... उनका ये भी कहना है कि वो खबरें खरीदें ही क्यों जब उन्हें वो मुफ्त में हासिल हैं...इन लोगों के लिए रॉकी के संपादकों का कहना था कि वो जनता के इन तर्कों को अच्छी तरह समझते हैं कि पिछले एक दशक में सूचना पाना कितना आसान और सस्ता हो गया है... और उन्होंने भी बतौर अखबार इसका फायदा उठाया है...जाहिर है अपनी खबरों के चुनाव और झुकाव में कोई अखबार गलती करता है और कर सकता है...लेकिन औसतन वो दूसरे माध्यमों जैसे टीवी के मुकाबले कम सेलेक्टिव और कम झुकाव रखने वाला होता है...और इस वक्त इस कमी को पूरा करने में कोई खबर माध्यम सक्षम नहीं है...
इस अखबार के संपादकों की असल चिंता है स्थानीय पत्रकारिता... और उसका भविष्य...उन्हें रॉकी की मौत का इतना दुख नहीं जितना शहर की जिंदगी को दर्ज करने वाली एक संस्था के बंद होने का है...और पूरे अमेरिका में लोग स्थानीय अखबारों को बंद होता देख रहे हैं... लेकिन ये सवाल क्यों उठा रहे हैं... उनकी राय में एक अखबार जिस तरह मेहनत के साथ छोटे-छोटे स्कूलो, जिलों, शहर प्रशासन, पुलिस एजेंसियों और कानूनी सवालों पर लोगों की नजर में लाता है... वो दूसरे माध्यमों के लिए अभी भी काफी मुश्किल है...क्योंकि अच्छी रिपोर्टिंग ही वो चीज है जिस पर स्थानीय स्तर पर लोकतंत्र काम करता है...
रॉकी को बनाने में उसके रिपोर्टरों और संपादकों ने अपना खून और पसीना दोनों लगाए... बेहद प्रतिस्पर्धा में रॉकी पर जबर्दस्त अनिश्चितता हावी रही लेकिन रॉकी को चलाना कोई रहस्य या जादू नहीं था, ये सब जानते थे...लोग अखबारों की प्रतिस्पर्धा को तो समझते हैं लेकिन वो नहीं जानते कि दो अखबारों की दुश्मनी की गहराई कितनी और कैसी होती है...रॉकी ने डेनवर में अपने प्रतिद्वंद्वियों से कुछ ऐसे युद्ध लड़े, जिन्हें आज भी अमेरिकी अखबारों के सबसे जुझारू संघर्षों के बतौर याद किया जाता है...कई बार उसने अस्तित्व के संकट का सामना किया और हर बार वो विजयी होकर निकला...खुद को उसने फिर से तराशा, संवारा और फिर से पाठकों के हाथ में पहुंचा नए कलेवर के साथ...
अखबार में लगातार घाटा बढ़ रहा था... जो 2008 में 1 अरब 50 करोड़ रुपए तक पहुंच गया... क्लासीफाइड रेवेन्यू लगातार घटती गई...पिछले एक दशक से सर्कुलेशन भी कम हो रहा था क्योंकि लोगों की आदतें बदल रही थीं...2007 में कोलोरैडो से ज्यादा सिर्फ 8 ऐसे राज्य थे जहाँ अखबारों का सर्कुलेशन ज्यादा दर्ज किया गया...खास बात ये थी कि डेढ़ सौ साल पहले जिन चीजों की वजह से रॉकी माउंटेन न्यूज में उसके मालिक विलियम बायर्स ने जान फूंकी थी, वही चीजें अब उसकी मौत की वजह बन गईं...
सब जानते हैं कि ये बुरा दौर है... बहुत से उद्योग बंद हो रहे हैं.. ऐसे वक्त में हम आपको बता दें कि अखबार बंद नहीं होते... वो बस मर जाते हैं.. दुनिया बाकी व्यवसायों के बगैर काम चला लेती है...लेकिन लोगों के जीवन को दर्ज करने वालों की जरूरत हर दिन होती है...यूं तो हर बिजनेस हाउस के पास तिमाही दर तिमाही अपनी कामयाबी दिखाने का मौका होता है लेकिन एक अखबार की कामयाबी का पैमाना होती हैं उसकी स्टोरीज, उसकी खबरें... हालांकि अखबार के पास इतिहास दर्ज करने के लिए इतिहासकारों जैसा नहीं होती... वो आपका भोगा हुआ इतिहास तुरंत आप तक पहुंचा देते हैं...चूंकि कोई भी अखबार कभी गलती मुक्त या परफेक्ट नहीं होता, लेकिन ये अखबार ही होता है जो हमेशा सही होने की कोशिश करता रहता है...इसके बावजूद कि उसे सही होने में 24 घंटे लगते हैं...
पाठक और रॉकी के विरोधियों दोनों को ही रॉकी की कमी खलेगी और बुरी तरह सालेगी...डेनवर शहर को अब सिर्फ एक अखबार से काम चलाना होगा, 100 साल में पहली बार...
(hindimedia.in पर 7 मार्च 2009 को प्रकाशित)
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