वाद के खिलाफ, विचार के हक में..
कहीं पढ़ा था और बाद में कई विद्वानों से सुना भी कि आदमी अपनी जवानी में साम्यवादी होता है.. और अगर आप साम्यवादी नहीं हैं तो वो जवानी बेकार समझिए.. मैं शायद अपनी जवानी से पहले ही साम्यवाद की चपेट में आ गया था.. इस हद तक कि एक जमाने में मुझे उसमें दुनिया की हर मुश्किल का हल नजर आता था..और इस आसन्न लगने वाली क्रांति की हवाएं आती थीं सोवियत संघ और हिंदुस्तान के बीच समझौते की वजह से हासिल होने वाले सस्ती किताबों के जरिए..जो पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, रादुगा और मीर प्रकाशनों की ओर से मेरी मातृभाषा में मुझे मिलती थीं, बेहद सस्ते दामों पर..तब मैंने जाना कि मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन का हमारी दुनिया को समझने में क्या योगदान रहा है..माओ के बारे में मैंने जाना जरूर था लेकिन कुछ पढ़ा नहीं था.. साम्यवाद को जानने की चाह ने मुझे खुद खोजने और पढ़ने में दिलचस्पी जगाई..लेकिन मुझे साम्यवाद के राजनीतिक दर्शन से ज्यादा रुचि उस औजार में थी, जिसकी वजह से दुनिया को देखने का नजरिया बदलता था..जाहिरन ये औजार सत्तान्मुखी नहीं था..
कोई एक विचार सारी दुनिया के सारे लोगों पर कैसे लागू हो सकता है, यह बात मुझे कमअक्ली के उस दौर-दौरे में भी समझ आती थी.. आज तो मैं इसके खिलाफ ही हूं.. और यहां तक मान चुका हूं कि विचार चाहे जितना अच्छा क्यों न लगे, उसे सार्वभौमिक तौर पर लागू करना न केवल बेवकूफी है बल्कि इंसान को जन्मजात तौर पर मिली आजादी के खिलाफ है..खैर, उस वक्त ये ख्याल नहीं था..
तभी पूर्वी योरोप में हलचल शुरू हुईं थीं..ईस्टर्न ब्लॉक के देशों पॉलेंड और हंगरी ने सबसे पहले साम्यवाद का जुआ उतार फेंका.. फिर 1989 में रोमानिया में सेसेस्क्यू सरकार गिरी..बर्लिन की दीवार गिरी, चेकोस्लोवाकिया और बल्गारिया में साम्यवाद के खंभे ढहने शुरू हो गए.. अल्बानिया और यूगोस्लाविया ने 1990-91 के बीच साम्यवाद का दामन छोड़ दिया.. और पांच नए देश अस्तित्व में आए.. चीन के थियानानमेन चौक पर दुनिया ने कत्लेआम देखा..मुक्त विचारों के समर्थक छात्रों और उनकी समर्थक जनता का..चीन एक प्रायद्वीप बन चुका था, यह उसके कम्यूनिस्ट शासक जानते थे लेकिन कुबूल करने को तैयार न थे..इस कत्लेआम ने साम्यवाद के क्रूर चेहरे से पर्दा उठाया..दुनिया भर ने इसकी लानत-मलामत की.. यही वो वक्त था जब सोवियत संघ टूटा और 14 नए देश दुनिया के नक्शे पर आए.. दुनियाभर में इसकी गूंज इतनी तेज थी कि कंबोडिया, इथियोपिया और मंगोलिया ने साम्यवाद को तिलांजलि दे दी..जब दुश्मन ही न रहा तो युद्ध कैसा.. सो अमेरिकी ब्लॉक की तरफ से पूर्वी योरोप और सोवियत संघ के खिलाफ बरसों से जारी शीतयुद्ध भी खत्म हो गया...
मुझे अच्छी तरह याद है कि मिखाइल गोर्बाचेव ने सोवियत संघ में दो नारे दिए थे पेरेस्त्रोइका (आर्थिक सुधार) और ग्लासनोस्त (खुलापन).. काफी चर्चा थी उस वक्त..साम्यवादी सरकार के इतिहास में पहली बार एक से ज्यादा उम्मीदवारों के साथ कम्यूनिस्ट पार्टी में चुनाव हुआ था.. मगर सोवियत संघ में ही गोर्बाचेव को भारी दबाव का सामना करना पड़ रहा था..मिखाइल गोर्बाचेव अपने पूर्व योरोपियन साथी देशों को ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका अपनाने की सलाह दे रहे थे.. मगर उनके पूर्वी योरोपियन साथियों को यकीन था कि गोर्बाचेव की पेरेस्त्रोइका क्रांति कुछ ही दिन की मेहमान है..इसलिए वो सोवियत संघ स्टाइल के सर्वसत्तावादी तौर-तरीकों से ही शासन चला रहे थे.. लेकिन सोवियत संघ का साम्यवादी ढांचा अपने ही दबावों से टूट रहा था..इसी अफरातफरी में गोर्बाच्योव चले गए और उनके बाद आए उनके उत्तराधिकारी बोरिस येल्तसिन रूस को मुक्त बाजारवादी व्यवस्था देने का वायदा कर एक कदम आगे चले गए..रूस ने करीब 74 साल बाद दुनिया के लिए अपने दरवाजे खोल दिए थे..पर दुनिया ने जब इस घर के अंदर झांका तो वहां मिला टूटा-फूटा रूसी समाज.. ब्रेड के बदले जिस्म बेचती औरतें..झोलों में भरकर रूबल ले जाते और जेब में टमाटर लाते लोग.. मास्को की सड़कों पर लूटपाट और हत्याएं.. दूसरी तरफ धर्म की ताजपोशी.. सत्ताप्रहरी क्रैमलिन में कैथलिक चर्च का उद्घाटन..साम्यवादी लोहे के पंजे से अभी अभी मुक्त हुए समाज की तस्वीर थी ये..
पूर्वी योरोप और सोवियत संघ के बदले चेहरों ने दुनिया को दो हिस्सों में बांट दिया था.. ताकत के समीकरण बदल चुके थे..रूस और अमेरिका में केजीबी और सीआईए की कमानें बदल रही थीं.. दोनों तरफ के जासूस कुछ वक्त के लिए आराम करने भेज दिए गए थे.. पूंजीवाद जीत गया था और साम्यवाद बेमौत मरता दिख रहा था.. पूर्वी योरोप और रूस दोनों बाजार मांग रहे थे.. इसकी गूंज विकसित देशों के साथ विकासशील देशों तक जा पहुंची थी..जब सत्ता के इतने बड़े समीकरण बन-बिगड़ रहे हों तो हिंदुस्तान जैसे विकासशील देश की इनके सामने क्या अहमियत थी.. उदारीकरण अब मूलमंत्र बन चुका था..और वही सत्ता संचालकों की कामयाबी का सबसे बड़ा पैमाना था..साम्यवादी सत्ताओं का पतन जरूर हो गया था लेकिन अभी प्रतिरोध खत्म नहीं हुआ था..
साम्यवाद अपने मूल में ही अपनी कमजोरियां छिपाए बैठा था..इसलिए उसका पतन हुआ.. जर्मनी की जिस जमीन में वह बीज पड़ा था, वहां वह पौधा ही बना था कि उसे उखाड़कर रूस ले जाया गया.. बाद में जिस-जिस जमीन पर उसे बोया गया, हमेशा उसे अपनी मूल धरती की खाद की जरूरत पड़ती रही..किसी भी जगह वह प्राकृतिक रूप में विकसित नहीं हुआ..न वो पला, न बढ़ा..हां, जबरन इसकी कोशिशें की गईं, लेकिन वो सभी नाकाम रहीं... पिछले डेढ़ सौ साल का इतिहास इसका गवाह है.. इसलिए जब-जब विदेशी खाद-पानी की कमी हुई..साम्यवाद का पौधा मुरझा गया..चाहे वह रूस, चीन, क्यूबा, उत्तरी कोरिया, लाओस, वियेतनाम, कंबोडिया, अंगोला, मोज़ांबीक हों या फिर पूर्वी योरोप में बल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, पूर्वी जर्मनी, पॉलैंड, हंगरी और रूमानिया.. योरोप को छोड़कर साम्यवाद कहीं भी स्थानीय भाषा-संस्कृति, रहन-सहन से तालमेल नहीं बैठा सका..यही नहीं, हजारों साल से इंसान के नियामक और उसके सबसे बड़े अंतर्प्रवाह (अंडरकरेंट) धर्म का उसने न केवल खुला विरोध किया, बल्कि स्थानीय धर्मों का सबसे बड़ा दुश्मन बनकर उभरा..चाहे धर्म जितना कड़वा, झूठा, फरेबी और उबाऊ क्यों न रहा हो, इंसान को इस अफीम की जरूरत थी और आज और भी ज्यादा है.. इसलिए साम्यवादी दर्शन और राजनीति स्थानीय धर्मों से हार गए..
साम्यवाद हार गया था लेकिन साम्यवादी नहीं.. आज भी नहीं हारे हैं..क्योंकि उन्हें यकीन है कि एक दिन मार्क्स-एंगेल्स-लैनिन-माओ के विचारों की ही सत्ता स्थापित होनी है..मगर मार्क्स का पूंजीवाद जिस खुले समाज और फैलती हुई दुनिया की तरफ हमें ले जा रहा है, वहां साम्यवाद के लिए गुंजाइशें कम होती जा रही हैं..अब साम्यवादी कोई ग्लोबल लड़ाई लड़ने के हक में नहीं है..अब वो बस छोटे-छोटे प्रतिरोधों में जीवित है.. इसका नमूना है हिंदुस्तान, नेपाल, म्यानमार जैसे तीसरी दुनिया के देश.. साम्यवाद की दूसरी शक्ल है सरकार प्रायोजित साम्यवादी बाजारवादी व्यवस्थाएं, जिनमें साम्यवाद को कम बाजार को ज्यादा पोषित किया जाता है..
साम्यवाद की सबसे बुरी बात थी..इसका राजनीतिक एजेंडा..मार्क्स ने पहले इसे आर्थिक विषमताओं के उन्मूलन के औजार की तरह देखा था.. बाद में उन्होंने इसका राजनीतिक दर्शन खड़ा किया..उनकी खुद की भविष्यवाणी भी गलत साबित हुई जब जर्मनी के बजाय रूस ने इसे लागू किया.. जाहिर है यह दमन से ही संभव हो सका था.. चीन ने भी इसी प्रयोग को दोहराया और वहां भी दमन को हथियार बनाया गया.. सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर चीन के समृद्ध इतिहास को मिटाया गया..यह एक महान विचार की हार थी.. क्योंकि इसे जबरन इंसान पर थोपा जा रहा था..
साम्यवाद के जन्म को 162 साल बीत चुके हैं और मृत्यु को 19 (अगर तकनीकी तौर पर सोवियत संघ के विघटन को आप प्रतीक की तरह देखें तो).. लेकिन दुनियाभर के साहित्य और मीडिया के हर प्लेटफॉर्म पर अभी तक साम्यवाद का मर्सिया पढ़ा जा रहा है.. साम्यवाद के रुदनगीत तकरीबन रोज हमारे कानों तक पहुंचते हैं.. नेपाल से लेकर भारत के अंदर तक माओवाद की छटपटाहट इसके जरिए सत्ता हासिल करने में है..न कि मानवता की मुश्किलों का हल ढूंढने में..होना तो ये चाहिए था कि मार्क्स-एंगेल्स के विचारों पर आगे काम होता और उन्हें शोधविषय की तरह देखा जाता.. उन्नत तकनीकी और ग्लोबलाइजेशन के वक्त में इसकी और सूक्ष्म मीमांसा होती.. इसकी उपादेयता की जांच-परख होती, इसे सामयिक बनाने की कोशिशें होतीं.. मगर ये हुआ नहीं... सत्ता के लालचियों ने इसे सियासी और अब आतंकी हथियार की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है.. मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन के बाद माओ वाद की ईश्वरीय उवाच की तरह पूजा-अर्चना की जा रही है.. माओ के विचारों में उग्रता ज्यादा थी, इसलिए आतंकवाद के लिए इसका दामन थामना आसान था.. इसलिए अब साम्यवाद का दूसरा नाम है आतंकवाद..
मुझे उम्मीद है कि अब नौजवान साम्यवादी नहीं होते.. अब अगर वो जवानी में साम्यवाद के बारे में नहीं जानते तो उनकी जवानी ज़ाया नहीं मानी जाती..हां, अगर वो पूंजीवाद की कुचालों को नहीं समझते तो जरूर उनकी जवानी बेकार मानी जाती है.. इसलिए मेरे ख्याल में साम्यवादी होना कोई अच्छी बात नहीं..इसके लिए जवानी बर्बाद करना ठीक नहीं..फिर भी दर्शन का ये औजार भोंथरा नहीं है.. अगर चाहें तो इससे दुनिया को तराशा जाना मुमकिन है..
कोई एक विचार सारी दुनिया के सारे लोगों पर कैसे लागू हो सकता है, यह बात मुझे कमअक्ली के उस दौर-दौरे में भी समझ आती थी.. आज तो मैं इसके खिलाफ ही हूं.. और यहां तक मान चुका हूं कि विचार चाहे जितना अच्छा क्यों न लगे, उसे सार्वभौमिक तौर पर लागू करना न केवल बेवकूफी है बल्कि इंसान को जन्मजात तौर पर मिली आजादी के खिलाफ है..खैर, उस वक्त ये ख्याल नहीं था..
तभी पूर्वी योरोप में हलचल शुरू हुईं थीं..ईस्टर्न ब्लॉक के देशों पॉलेंड और हंगरी ने सबसे पहले साम्यवाद का जुआ उतार फेंका.. फिर 1989 में रोमानिया में सेसेस्क्यू सरकार गिरी..बर्लिन की दीवार गिरी, चेकोस्लोवाकिया और बल्गारिया में साम्यवाद के खंभे ढहने शुरू हो गए.. अल्बानिया और यूगोस्लाविया ने 1990-91 के बीच साम्यवाद का दामन छोड़ दिया.. और पांच नए देश अस्तित्व में आए.. चीन के थियानानमेन चौक पर दुनिया ने कत्लेआम देखा..मुक्त विचारों के समर्थक छात्रों और उनकी समर्थक जनता का..चीन एक प्रायद्वीप बन चुका था, यह उसके कम्यूनिस्ट शासक जानते थे लेकिन कुबूल करने को तैयार न थे..इस कत्लेआम ने साम्यवाद के क्रूर चेहरे से पर्दा उठाया..दुनिया भर ने इसकी लानत-मलामत की.. यही वो वक्त था जब सोवियत संघ टूटा और 14 नए देश दुनिया के नक्शे पर आए.. दुनियाभर में इसकी गूंज इतनी तेज थी कि कंबोडिया, इथियोपिया और मंगोलिया ने साम्यवाद को तिलांजलि दे दी..जब दुश्मन ही न रहा तो युद्ध कैसा.. सो अमेरिकी ब्लॉक की तरफ से पूर्वी योरोप और सोवियत संघ के खिलाफ बरसों से जारी शीतयुद्ध भी खत्म हो गया...
मुझे अच्छी तरह याद है कि मिखाइल गोर्बाचेव ने सोवियत संघ में दो नारे दिए थे पेरेस्त्रोइका (आर्थिक सुधार) और ग्लासनोस्त (खुलापन).. काफी चर्चा थी उस वक्त..साम्यवादी सरकार के इतिहास में पहली बार एक से ज्यादा उम्मीदवारों के साथ कम्यूनिस्ट पार्टी में चुनाव हुआ था.. मगर सोवियत संघ में ही गोर्बाचेव को भारी दबाव का सामना करना पड़ रहा था..मिखाइल गोर्बाचेव अपने पूर्व योरोपियन साथी देशों को ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका अपनाने की सलाह दे रहे थे.. मगर उनके पूर्वी योरोपियन साथियों को यकीन था कि गोर्बाचेव की पेरेस्त्रोइका क्रांति कुछ ही दिन की मेहमान है..इसलिए वो सोवियत संघ स्टाइल के सर्वसत्तावादी तौर-तरीकों से ही शासन चला रहे थे.. लेकिन सोवियत संघ का साम्यवादी ढांचा अपने ही दबावों से टूट रहा था..इसी अफरातफरी में गोर्बाच्योव चले गए और उनके बाद आए उनके उत्तराधिकारी बोरिस येल्तसिन रूस को मुक्त बाजारवादी व्यवस्था देने का वायदा कर एक कदम आगे चले गए..रूस ने करीब 74 साल बाद दुनिया के लिए अपने दरवाजे खोल दिए थे..पर दुनिया ने जब इस घर के अंदर झांका तो वहां मिला टूटा-फूटा रूसी समाज.. ब्रेड के बदले जिस्म बेचती औरतें..झोलों में भरकर रूबल ले जाते और जेब में टमाटर लाते लोग.. मास्को की सड़कों पर लूटपाट और हत्याएं.. दूसरी तरफ धर्म की ताजपोशी.. सत्ताप्रहरी क्रैमलिन में कैथलिक चर्च का उद्घाटन..साम्यवादी लोहे के पंजे से अभी अभी मुक्त हुए समाज की तस्वीर थी ये..
पूर्वी योरोप और सोवियत संघ के बदले चेहरों ने दुनिया को दो हिस्सों में बांट दिया था.. ताकत के समीकरण बदल चुके थे..रूस और अमेरिका में केजीबी और सीआईए की कमानें बदल रही थीं.. दोनों तरफ के जासूस कुछ वक्त के लिए आराम करने भेज दिए गए थे.. पूंजीवाद जीत गया था और साम्यवाद बेमौत मरता दिख रहा था.. पूर्वी योरोप और रूस दोनों बाजार मांग रहे थे.. इसकी गूंज विकसित देशों के साथ विकासशील देशों तक जा पहुंची थी..जब सत्ता के इतने बड़े समीकरण बन-बिगड़ रहे हों तो हिंदुस्तान जैसे विकासशील देश की इनके सामने क्या अहमियत थी.. उदारीकरण अब मूलमंत्र बन चुका था..और वही सत्ता संचालकों की कामयाबी का सबसे बड़ा पैमाना था..साम्यवादी सत्ताओं का पतन जरूर हो गया था लेकिन अभी प्रतिरोध खत्म नहीं हुआ था..
साम्यवाद अपने मूल में ही अपनी कमजोरियां छिपाए बैठा था..इसलिए उसका पतन हुआ.. जर्मनी की जिस जमीन में वह बीज पड़ा था, वहां वह पौधा ही बना था कि उसे उखाड़कर रूस ले जाया गया.. बाद में जिस-जिस जमीन पर उसे बोया गया, हमेशा उसे अपनी मूल धरती की खाद की जरूरत पड़ती रही..किसी भी जगह वह प्राकृतिक रूप में विकसित नहीं हुआ..न वो पला, न बढ़ा..हां, जबरन इसकी कोशिशें की गईं, लेकिन वो सभी नाकाम रहीं... पिछले डेढ़ सौ साल का इतिहास इसका गवाह है.. इसलिए जब-जब विदेशी खाद-पानी की कमी हुई..साम्यवाद का पौधा मुरझा गया..चाहे वह रूस, चीन, क्यूबा, उत्तरी कोरिया, लाओस, वियेतनाम, कंबोडिया, अंगोला, मोज़ांबीक हों या फिर पूर्वी योरोप में बल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, पूर्वी जर्मनी, पॉलैंड, हंगरी और रूमानिया.. योरोप को छोड़कर साम्यवाद कहीं भी स्थानीय भाषा-संस्कृति, रहन-सहन से तालमेल नहीं बैठा सका..यही नहीं, हजारों साल से इंसान के नियामक और उसके सबसे बड़े अंतर्प्रवाह (अंडरकरेंट) धर्म का उसने न केवल खुला विरोध किया, बल्कि स्थानीय धर्मों का सबसे बड़ा दुश्मन बनकर उभरा..चाहे धर्म जितना कड़वा, झूठा, फरेबी और उबाऊ क्यों न रहा हो, इंसान को इस अफीम की जरूरत थी और आज और भी ज्यादा है.. इसलिए साम्यवादी दर्शन और राजनीति स्थानीय धर्मों से हार गए..
साम्यवाद हार गया था लेकिन साम्यवादी नहीं.. आज भी नहीं हारे हैं..क्योंकि उन्हें यकीन है कि एक दिन मार्क्स-एंगेल्स-लैनिन-माओ के विचारों की ही सत्ता स्थापित होनी है..मगर मार्क्स का पूंजीवाद जिस खुले समाज और फैलती हुई दुनिया की तरफ हमें ले जा रहा है, वहां साम्यवाद के लिए गुंजाइशें कम होती जा रही हैं..अब साम्यवादी कोई ग्लोबल लड़ाई लड़ने के हक में नहीं है..अब वो बस छोटे-छोटे प्रतिरोधों में जीवित है.. इसका नमूना है हिंदुस्तान, नेपाल, म्यानमार जैसे तीसरी दुनिया के देश.. साम्यवाद की दूसरी शक्ल है सरकार प्रायोजित साम्यवादी बाजारवादी व्यवस्थाएं, जिनमें साम्यवाद को कम बाजार को ज्यादा पोषित किया जाता है..
साम्यवाद की सबसे बुरी बात थी..इसका राजनीतिक एजेंडा..मार्क्स ने पहले इसे आर्थिक विषमताओं के उन्मूलन के औजार की तरह देखा था.. बाद में उन्होंने इसका राजनीतिक दर्शन खड़ा किया..उनकी खुद की भविष्यवाणी भी गलत साबित हुई जब जर्मनी के बजाय रूस ने इसे लागू किया.. जाहिर है यह दमन से ही संभव हो सका था.. चीन ने भी इसी प्रयोग को दोहराया और वहां भी दमन को हथियार बनाया गया.. सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर चीन के समृद्ध इतिहास को मिटाया गया..यह एक महान विचार की हार थी.. क्योंकि इसे जबरन इंसान पर थोपा जा रहा था..
साम्यवाद के जन्म को 162 साल बीत चुके हैं और मृत्यु को 19 (अगर तकनीकी तौर पर सोवियत संघ के विघटन को आप प्रतीक की तरह देखें तो).. लेकिन दुनियाभर के साहित्य और मीडिया के हर प्लेटफॉर्म पर अभी तक साम्यवाद का मर्सिया पढ़ा जा रहा है.. साम्यवाद के रुदनगीत तकरीबन रोज हमारे कानों तक पहुंचते हैं.. नेपाल से लेकर भारत के अंदर तक माओवाद की छटपटाहट इसके जरिए सत्ता हासिल करने में है..न कि मानवता की मुश्किलों का हल ढूंढने में..होना तो ये चाहिए था कि मार्क्स-एंगेल्स के विचारों पर आगे काम होता और उन्हें शोधविषय की तरह देखा जाता.. उन्नत तकनीकी और ग्लोबलाइजेशन के वक्त में इसकी और सूक्ष्म मीमांसा होती.. इसकी उपादेयता की जांच-परख होती, इसे सामयिक बनाने की कोशिशें होतीं.. मगर ये हुआ नहीं... सत्ता के लालचियों ने इसे सियासी और अब आतंकी हथियार की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है.. मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन के बाद माओ वाद की ईश्वरीय उवाच की तरह पूजा-अर्चना की जा रही है.. माओ के विचारों में उग्रता ज्यादा थी, इसलिए आतंकवाद के लिए इसका दामन थामना आसान था.. इसलिए अब साम्यवाद का दूसरा नाम है आतंकवाद..
मुझे उम्मीद है कि अब नौजवान साम्यवादी नहीं होते.. अब अगर वो जवानी में साम्यवाद के बारे में नहीं जानते तो उनकी जवानी ज़ाया नहीं मानी जाती..हां, अगर वो पूंजीवाद की कुचालों को नहीं समझते तो जरूर उनकी जवानी बेकार मानी जाती है.. इसलिए मेरे ख्याल में साम्यवादी होना कोई अच्छी बात नहीं..इसके लिए जवानी बर्बाद करना ठीक नहीं..फिर भी दर्शन का ये औजार भोंथरा नहीं है.. अगर चाहें तो इससे दुनिया को तराशा जाना मुमकिन है..
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