बंदूक़
(2003 में ये कविता मेरे दोस्त मुकुल और मेरे बीच एक बहस के बाद सवाल-जवाब की शक्ल में लिखी गई थी..ज्यों का त्यों प्रस्तुत..ऊपर मेरे मित्र की राय है और नीचे मेरी..कह नहीं सकता कि आज मैं अपनी ही राय से कितना सहमत हूं..)
तुम जो मानते हो
बंदूक़ को पहला और आखिरी हथियार
तुम जो समझते हो
बंदूक़ को सारे सवालों का जवाब
तुम जो कहते हो
बंदूक़ को सारी समस्याओं का हल
मुझे बताओ
मुझे चाहिए प्रेम
वो तुम्हारी बंदूक़ से
कैसे हासिल हो सकता है.............................................................(मुकुल)
तुम सच कहते अगर
तुम कहते
बंदूक़ से निकलती है मानवता
तुम सच कहते अगर
तुम्हें मालूम होता
बंदूक़ से सीखा है दुनिया ने जीना
तुम सही सोचते अगर
तुम सोचते कि
बंदूक़ के बल पर
ज़िंदा है शांति
अगर तुम सोच पाते
बंदूक़ की वजह से है
व्यापार और तकनीक
बंदूक़ ने तय की हैं
राष्ट्रों की सीमाएं
सिखाया है आचार
कि कैसे न झुका जाए
जब दुश्मन अपनी हर ग़लत बात को
मनवाने को हो आमादा
कि कैसे पैंतरा लिया जाए
जब ज़ुल्म के महलों के आगे
बनानी हो मेहनत की झोंपड़ी
शायद तुम नहीं समझोगे
क्योंकि तुम पीड़ित हो
शांति की लाइलाज बीमारी से
मैं बताता हूं
ये बंदूक़ से निकलने वाली गंध ही है
जिसने सदियों को
समझदार बनाया है
बंदूक ने बदला है इतिहास
बंदूक़ की वजह से खिले हैं
रेगिस्तानों में फूल
बंदूक़ ने किया है
जमीनों को सरसब्ज़ और ज़रखेज़
ये लहलहाती फसलें
और गुनगुनाती नदियां
सभी बंदूक़ के बनाए रास्तों पर हैं
माफ़ करना मेरे दोस्त
आज तुम भूल गए हो कि
वक्त हमेशा उनकी सुनता है
जो खुद अपने मुहाफ़िज़ होते हैं..................................................(मैं)
तुम जो मानते हो
बंदूक़ को पहला और आखिरी हथियार
तुम जो समझते हो
बंदूक़ को सारे सवालों का जवाब
तुम जो कहते हो
बंदूक़ को सारी समस्याओं का हल
मुझे बताओ
मुझे चाहिए प्रेम
वो तुम्हारी बंदूक़ से
कैसे हासिल हो सकता है.............................................................(मुकुल)
तुम सच कहते अगर
तुम कहते
बंदूक़ से निकलती है मानवता
तुम सच कहते अगर
तुम्हें मालूम होता
बंदूक़ से सीखा है दुनिया ने जीना
तुम सही सोचते अगर
तुम सोचते कि
बंदूक़ के बल पर
ज़िंदा है शांति
अगर तुम सोच पाते
बंदूक़ की वजह से है
व्यापार और तकनीक
बंदूक़ ने तय की हैं
राष्ट्रों की सीमाएं
सिखाया है आचार
कि कैसे न झुका जाए
जब दुश्मन अपनी हर ग़लत बात को
मनवाने को हो आमादा
कि कैसे पैंतरा लिया जाए
जब ज़ुल्म के महलों के आगे
बनानी हो मेहनत की झोंपड़ी
शायद तुम नहीं समझोगे
क्योंकि तुम पीड़ित हो
शांति की लाइलाज बीमारी से
मैं बताता हूं
ये बंदूक़ से निकलने वाली गंध ही है
जिसने सदियों को
समझदार बनाया है
बंदूक ने बदला है इतिहास
बंदूक़ की वजह से खिले हैं
रेगिस्तानों में फूल
बंदूक़ ने किया है
जमीनों को सरसब्ज़ और ज़रखेज़
ये लहलहाती फसलें
और गुनगुनाती नदियां
सभी बंदूक़ के बनाए रास्तों पर हैं
माफ़ करना मेरे दोस्त
आज तुम भूल गए हो कि
वक्त हमेशा उनकी सुनता है
जो खुद अपने मुहाफ़िज़ होते हैं..................................................(मैं)
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