23/3/09

जेड की मौत का इंतजार था हमें!

क्या जेड गुडी की मौत में कुछ ऐसा अनूठा है, जो उसे दूसरी मौतों से अलग करता है... मौत तो मौत है...एक ही ढंग से दबोचती है...वजह चाहे जो हो... शायद कुछ ऐसा जरूर था जेड की मौत में... ये अनोखापन था उसकी मौत का इंतजार... जेड के जाने के बाद ये इंतजार खत्म हो गया है... जेड ने मौत के इस ऑब्सेशन को अलविदा कह दी है... हमें किसी नए इंतजार के लिए छोड़ दिया है... 
पहली बार जब जेड को पता चला कि उसे ऐसा कैंसर है जो उसकी जान लेकर छोड़ेगा... तब उसने डॉक्टरों से यूथेनेसिया की अपील की थी.. लेकिन एक मां इस तरह अपने दोनों मासूम बच्चों को अलविदा नहीं कह सकती थी... इसलिए वो लड़ी...ये जानते हुए भी कि ये लड़ाई कुछ हफ्ते ही चलेगी...
जेड के बेटे बॉबी और फ्रेडी अभी ये नहीं समझ सकते कि उनकी मां किस हादसे की शिकार हुई है... उन्हें ये भी पता नहीं कि कैमरे के सामने जिंदगी जीने की आदी उनकी मां ने अपनी मौत से पहले उनके लिए जिंदगी का सामान इकट्ठा कर दिया है...
हर दूसरे घंटे दर्द से निपटने के लिए जेड को पेनकिलर्स लेनी पड़ती थीं... जैक ट्वीड के साथ शादी की रात जेड के घर के बाहर हर वक्त एक एंबुलेंस तैयार थी... जेड हर चीज के लिए तैयार थी... इस हद तक कि अगर उसकी मौत उससे बेवफाई करती तो शायद उसे मुंह दिखाने लायक न छोड़ती...
जेड ने अपनी मौत से पहले सभी अधिकार बेच दिए थे... 22 फरवरी को हुई उसकी शादी को टीवी चैनल लिविंग ने दो हिस्सों में दिखाया... टीवी पर होने वाली दुल्हन ने कुछ शो भी किए...ओके मैग्जीन को उसने अपनी मौत से पहले श्रद्धांजलि इश्यू छापने की इजाजत दी...अपने आखिरी शब्दों के साथ...
डायना की मौत में भी हमने मौत को दबे पांव आते देखा था...हमें इंतजार था उसका... लेकिन तब वक्त बेहद कम था...इसलिए रोमांच भी कम था... इस बार रोमांच ज्यादा था क्योंकि अभी वक्त था...
लेकिन मौत का ये ऑब्सेशन बिल्कुल वैसा ही था जैसे  मध्यकालीन यूरोप में गिलोटीन के जरिए इंसानी सिर को हवा में लहराते देखने भीड़ इकट्ठी होती थी...गिलोटीन पर मौजूद अपराधियों का भीड़ से नफरत का ही रिश्ता होता था... लेकिन दोनों एकदूसरे की मौजूदगी चाहते थे... इस बार गिलोटीन पर मौजूद शख्स ने भीड़ को अपनी मौत देखने की इजाजत दे दी थी... जेड जानती थी कि वो क्या कर रही थी...वो भीड़ की उसी भूख को शांत कर रही थी...क्योंकि उसकी जिंदगी उसे जितना न दे सकी, मौत उसे दे सकती थी...उसके बच्चों के लिए... शायद यही वजह है कि वो अपने बच्चों के लिए इतना छोड़ गई है कि वो अपनी उम्र के 16वें साल तक आराम से पढ़ सकेंगे... 
टीवी चैनलों के लिए ये दिन-रात के क्रिकेट मैच जैसा मौका था... जीतेजी जेड को श्रद्धांजलि... इससे भी ज्यादा खुद जेड का पब्लिसिटी मैनेजर मैक्स क्लिफोर्ड जेड की मौत का बेसब्री से इंतजार कर रहा था... नई स्टोरी पका रहा था कि कैसे मीडिया का पेट भरा जाए... आसन्न मृत्यु से पहले जेड की जिंदगी का हर पल कीमती था... जेड की तमन्ना के बावजूद उसकी मौत का सीधा प्रसारण मुमकिन नहीं हो सका...क्योंकि कुछ सिरफिरों ने उसे ऐसा न करने के लिए मना लिया था...फिर भी ओके मैग्जीन के साथ करार के एवज में मौत के धागे से लटकती जेड ने 1.4 मिलियन पॉन्ड तो कमा ही लिए थे...
कैंसर से जूझ रही जेड गुडी की कुछ तस्वीरें विचलित करने वाली थीं...इस बात का अहसास कि उसके दो बेहद छोटे बच्चे उससे जल्द ही जुदा हो जाएंगे...लोगों को कचोटती थी... लेकिन मौत की पदचाप सुन रही जवान लड़की के पीछे लगे कैमरों की चाहत क्या बस इतनी ही थी...कि लोग किसी ऐसे शख्स के बारे में जानें, जो इतनी बेबस है...
नहीं... बस इतना नहीं था...और भी कुछ था... जेड गुडी मिडिल क्लास एंटरटेनमेंट बन चुकी थी...लगातार शरीर को क्षीण होते दिखाने वाली जेड की तस्वीरें मौत की घोषणा कर रही थीं...मौत के बाजार में... और टेलीविजन ये तस्वीरें खरीदने को तैयार था...
अगर 27 साल की गुड़ी बेवक्त छीनी गई है तो गुडी ने भी इसका भरपूर बदला लिया है...अपनी मौत बेचकर...हमारा इंतजार भी खत्म हुआ क्योंकि हम इस टेलिवाइज्ड मौत को नहीं गंवाना चाहते थे...

17/3/09

जुनून खौफ का!

मीडिया हमें संवेदनशील बनाता है या हमारी संवेदनाओं को कुंद करता है...पता नहीं...जहां तक मुझे पता है कि मीडिया अपनी कमेंट्री में, अपने संवाद में, अपने झुकाव में...आपको कहीं छूने की कोशिश करता है क्योंकि वो पशुओं से संवाद नहीं कर रहा... वो जानवरों को समझाने की कोशिश नहीं कर रहा बल्कि जीते-जागते सोचने वाले जीव इंसानों तक अपनी बात पहुंचा रहे हैं... लेकिन ऐसा लगता नहीं है...

मौत का मासूम चेहरा, जुनून की खौफनाक दास्तान, पहली बार टीवी पर, इन तस्वीरों से बच्चों को दूर रखना... 4 फुट की मौत...

अगर आपको कुछ भी पता न हो तो इन लाइनों से आप क्या निष्कर्ष निकालेंगे...शायद कोई सनसनीखेज वारदात...जिसमें चार फुट लंबे शख्स ने किसी की जान ले ली है...जिसे देखकर बच्चे डर सकते हैं...शायद यही या कुछ ऐसा ही...

लेकिन जनाब आप पूरी तरह गलत साबित होंगे...क्योंकि ये वो खबर है जो अंतर्राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समुदाय ही नहीं पूरी मानवता के लिए परेशानी का खुलासा करने वाली है...ये आतंकवाद का वो घिनौना चेहरा है, जिसे देख और सुनकर रौंगटे खड़े हो सकते हैं...ये खबर है पूरी बेरहमी से बचपन को मौत के मुंह में धकेलने की.. बच्चों को बंदूक और बम बांधकर लोगों की जान से खेलने की...उनके जिस्म पर बम बांधकर बदला लेने की हवस...जो दुनियाभर के आतंकी संगठन कर रहे हैं...

और ये चेहरा है 2009 की हिंदी टीवी रिपोर्टिंग का...इस पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि आप यूट्यूब की फुटेज इस्तेमाल करके किसी मुद्दे को हथियार बना रहे हैं, अपनी बात कह रहे हैं...लेकिन आपत्ति उसके प्रस्तुतिकरण पर जरूर होनी चाहिए...जो बेहद खौफनाक, सस्ती, मुद्दे से कोसों दूर, सनसनी से भरपूर और डर के सिवाय कोई भी असर छोड़ने में नाकामयाब है...

हमास बच्चों को अपने ग्रुप में शामिल करके उन्हें बाकायदा जिहाद में दीक्षित कर रहा है...मणिपुर में कुछ उग्रवादी संगठन, लिट्टे, कश्मीर के कुछ संगठन, तालिबान, अल कायदा और सरकारों के खिलाफ जेहाद में जुटे कई संगठन बच्चों को कवच की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं... लेकिन क्या इसे ऐसे पेश करना ठीक होगा कि ये आपका मनोरंजन करे एक हॉरर मूवी की तरह...इस बारे में आगे सोचने की कोई गुंजाइश ही न छोड़े...

लेकिन ऐसा ही हुआ... अगर इस मुद्दे को भारतीय हिंदी टेलीविजन या अखबार उठाते हैं तो यही संदेश समझ आता है...सिर्फ यही खास, बाकी सब बकवास...बिल्कुल यही मैसेज होता है उनका...

यूट्यूब की इस फुटेज में हमास के एक स्थानीय नेता और एक बच्चे अहमद से स्थानीय रिपोर्टर का इंटरव्यू है... रिपोर्टर आतंकी और बच्चे से सवाल करती है...आतंकी अपना मकसद बताता है कि उनकी लड़ाई इजरायल के खिलाफ है और ये बच्चा उनका भाई है जो उनके मिशन में बेहद उपयोगी है...वो ये भी बता रहा है कि उनके पास अहमद जैसे सैकड़ों-हजारों बच्चे हैं...अगर अहमद शहीद भी हो गया तो उसकी जगह लेने को हजारों अहमद तैयार हैं...अहमद भी शहादत का जज्बा रखता है...

हिंदी पत्रकारों का सवाल है कि क्यों वो बच्चे मारे जा रहे हैं और ये नकाबपोश बचे हुए हैं... क्यों नहीं ये खुद लड़ने जाते...वो बता रहा है एकबारगी तो अहमद भी सिहर जाएगा...जो खुद की मर्जी से शहीद होना चाहता है, वो भी रुआंसा हो जाएगा... जब उसके बड़े भाइयों यानी इन नकाबपोशों के कुछ शब्द उसके कानों में शीशों की तरह पिघलेंगे...(बेहद गैरजिम्मेदाराना सामान्यीकरण और हवा में महल)

क्या यही समझदारी है इस मुद्दे की...जिस सवाल को हिंदी मीडिया भारत में बैठकर उठा रहा है...वो उन जेहादियों के लिए पूरी तरह बेमानी है...और क्या उन्हें ये पता नहीं कि नकाबपोश भी लड़ने जाते हैं... सैकड़ों-हजारों फिलिस्तीनी नौजवान लगातार इजरायल के खिलाफ संघर्ष में मारे जा रहे हैं...क्या उन्हें पता है कि आखिर फिलिस्तीन की जमीन क्यों इजरायल के खिलाफ धधक रही है...क्यों ऐसी नौबत आई कि बच्चों के सिर पर कफन बांधना पड़ा...छोड़िए जाने दीजिए...हिंदी दर्शक इतना गरिष्ठ मानसिक भोजन नहीं कर पाएगा...ये उनका दर्शन है... इसलिए आपका मनोरंजन करने और आपकी संवेदनाएं छूने के लिए बस खौफ का ही आखिरी रास्ता बचा है हिंदी मीडिया के पास...दूसरे, इसमें खुद की नाजानकारी भी आसानी से छिप जाती है...

इसी फुटेज में आतंकी बता रहे हैं कि आखिर अहमद इतनी छोटी उम्र में ही उनके साथ क्यों है... क्योंकि उनसे उनका बचपन छीन लिया गया...लेकिन ताज्जुब ये कि पूरी कहानी में सबसे अहम इस बात की कोई व्याख्या ही नहीं है...क्योंकि खुद उसे इस मुद्दे का ही पता नहीं है कि आखिर वो बचपन कैसे गया...और कहां गया...किसकी वजह से गया...और इसे बगैर किसी तवज्जो के छोड़ दिया गया...

चलती-फिरती मौत, पैरों पर चलकर आती तबाही, पलक झपकते मचा सकता है तबाही का तांडव, सैकेंड्स में सबकुछ खत्म कर देगा ये, बारूद वाला बच्चा, बर्बादी का बवंडर...मौत का परवाना.......ये वो कुछ जुमले हैं जो हिंदी मीडिया ने आतंकवादियों के साथ शामिल बच्चों को दिए... बड़े-बड़े शब्द...बेमानी लेकिन सनसनीखेज...संवेदनाहीन...जो शायद अब किसी के कानों पर जूं की तरह भी नहीं रेंगते...क्योंकि हर दूसरी-तीसरी लाइन पर इन्हें सुन-सुनकर आपके रौंगटे भी बैठ चुके हैं...

तो क्या मीडिया ने हिंदीभाषियों-हिंदी दर्शकों-हिंदी पाठकों को निरा उजड्ड, गंवार और बेवकूफ समझ रखा है...लगता तो कुछ ऐसा ही है...क्योंकि आंकड़े भी (टीआरपी) उन्हीं के साथ हैं... वो आपकी संवेदनशीलता को चुनौती देते हैं रोज...वो आपका वक्त ज़ाया करते हैं रोज...वो आपको पूरे परिवार के बीच शर्मसार करते हैं रोज...वो आपको जिल्लत और जहालत से भरपूर बताते हैं हरपल...आपकी सेंसिबिलिटी को कुरेदते हैं वो...आपको निहायत तुच्छ समझते हैं...पूरी सीनाजोरी के साथ...क्योंकि उनके पास आंकड़े हैं...अपनी बात के समर्थन में...

और फिर...हिंदी मीडिया को लगता है...भारतेंदु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त के बाद हिंदी में कोई साहित्यकार पैदा ही नहीं हुआ है...जो आपकी समझ विकसित कर सकता...हिंदी पत्रकार ही वो है जिसने हर नौकरी के नाकाबिल होने के बाद इस प्रोफेशन में कदम रखा...जो अपने गांव-कस्बे से सीधे महानगर पहुंचा...पढ़ने-लिखने से उसका कोई वास्ता नहीं...जो आपने पढ़ा, वही आपके पिताजी और उनके पिताजी ने पढ़ा था...इसलिए सोचें कैसे और क्या नया...कहां से आए संवेदनशीलता...गंभीर है तो गरिष्ठ है उसके लिए...हजम नहीं होता...इसीलिए हिंदी में अब विचार नहीं होता...सिर्फ साहित्य चिंतन होता है या प्राचीन महान का महिमामंडन...या फिर बचते हैं खतरनाक की कोटि में आने वाले शब्दबाण...

मगर एक बात है...हिंदी मीडिया अपने अंग्रेज सामंतियों की तरह ये भलीभांति जानता है कि हिंदी बेल्ट आधुनिकताबोध से वंचित नहीं है...बेशक उधारी की ही क्यों न हो...इसलिए इस बेल्ट को बाजार के बतौर देखने में उन्हें कोई उज्र नहीं है...हां, वो ये भी जानते हैं कि माल खरीदने वाला हिंदी ग्राहक सिर्फ नारों पर जाता है... और हर चमकदार, जोरदार, चीखपुकार से बेची गई चीज तुरंत खरीद लेता है... इसलिए साहित्यचिंतन से मुक्त हिंदी पत्रकारिता अब खतरनाक शब्दबाण लेकर मैदान में है...24X7 वो यही शब्दबाण छोड़ रही है...बाकी सबकुछ चुक गया है...हिंदी स्टाइल में अंग्रेजी पत्रकारिता...अंग्रेजी स्टाइल में देसी चिंतन...

16/3/09

जब एक अखबार मरता है...

हाँ, जब एक अखबार मरता है तो सिर्फ अखबार ही नहीं मरता...
समय का वो टुकड़ा हमेशा के लिए मर जाता है...जिसे हम जानते आए हैं...
जब एक अखबार मरता है तो उस शहर की चेतना का एक हिस्सा भी उसके साथ खत्म हो जाता है
जब एक अखबार मरता है तो उस समाज और समुदाय का एक पक्ष विक्षत हो जाता है
जब एक अखबार मरता है तो किसी की जीत नहीं होती, पूरा शहर हार जाता है
जब एक अखबार मरता है तो उस समुदाय की कहानियां मर जाती हैं किस्सागो के साथ
जब एक अखबार मरता है तो उस शहर की स्मृति भी छिन्न-भिन्न हो जाती है
जब एक अखबार मरता है तो वो स्वर और प्रतीक गायब हो जाते हैं जो पूरे समुदाय के लिए अहमियत रखते थे

अमेरिका के डेढ़ सौ साल के उम्रदराज अखबार 
रॉकी माउंटेन न्यूज की 3 मार्च 2009 को मौत हो गई...रॉकी के साथ ही कोलोरैडो और डेनवर के ऐतिहासिक समय, स्मृतियों और चेतना का एक हिस्सा भी दफन हो गया... रॉकी अमेरिका का 21वां सबसे पुराना अखबार था...

इन डेढ़ सौ साल के वक्त में इस अखबार के कई संपादक अगवा हुए, उन्हें गोली मारी गई, उनको पीटा गया और उन्हें जलाया गया... उन्होंने कॉमनवेल्थ बनाए, विश्वविद्यालय खड़े किए, वो पहाड़ों पर चढ़े...उन्हें अपने दफ्तर पहुंचने से रोका गया...लेकिन वो कभी नहीं डरे, कभी झुके नहीं...तब भी नहीं जब शायद सिर्फ यही एक रास्ता बचा था...

तो ऐसा क्या हुआ कि इतने बेखौफ अखबार के डेढ़ सौ साल के सुनहरे अतीत पर एकदम झिलमिली पड़ गई... खुद अखबार के संपादक मानते हैं कि उन्हें बुरे लोगों और विरोधियों ने नहीं उनके ही पाठकों ने परास्त कर दिया... उन्हें इंटरनेट ने हरा दिया...क्योंकि लोग डेढ़ सौ साल से कागज पर छपते अखबार को पढ़कर ऊब गए थे...आप इसे दुखद कह सकते हैं...लेकिन रॉकी माउंटेन न्यूज ने अमेरिकी पूंजीवाद का वार भी झेल लिया था... उसे उन्हीं ने हरा दिया, जिनके लिए वो छपता रहा...

इस अखबार ने सिर्फ कोलोरैडो के इतिहास की गौरवगाथाएं ही दर्ज नहीं कीं... उसके पन्नों पर शहर की बर्बरता और उसका अत्याचार भी दर्ज हुए...सभी मील के पत्थरों की रिकॉर्डिंग और तकरीबन सभी मसलों पर बेबाक राय भी उसी स्याही से दर्ज की गई... लेकिन अब ये एक इतिहास हो चुका है... कुछ भी हो, कोलोरैडो का कोई भी बाशिंदा रॉकी माउंटेन न्यूज पर कभी ये आरोप नहीं लगा सकेगा कि उसने उनके हक के लिए जद्दोजहद छोड़ दी थीं...रॉकी के संपादकों का कहना है कि बेशक कई बार वो अपने झुकाव की वजह से जनहित में गलत भी साबित हुए लेकिन फिर भी ज्यादातर ऐसे मौके आए, जब अखबार और उसके रिपोर्टरों ने जो भी कदम उठाया, कोलोरैडो के हित में ही गया...

इस अखबार की मौत की खबर अखबार के लोगों को पहले ही मिल चुकी थी...जो भी अखबार से जुड़ा था, चपरासी से लेकर रिपोर्टर और एडिटर तक...सभी के लिए रॉकी माउंटेन न्यूज एक ऐसी संस्था थी, जिसके बगैर उनकी जिंदगी अधूरी थी...

कुछ लोग कहते हैं कि वो अखबारों से पीछा छुड़ाना चाहते हैं... उन्हें दूसरे रास्तों से मिल रही सूचनाओं और खबरों की बाढ़ के बीच अब और ज्यादा अखबारों की जरूरत नहीं है... उनका ये भी कहना है कि वो खबरें खरीदें ही क्यों जब उन्हें वो मुफ्त में हासिल हैं...इन लोगों के लिए रॉकी के संपादकों का कहना था कि वो जनता के इन तर्कों को अच्छी तरह समझते हैं कि पिछले एक दशक में सूचना पाना कितना आसान और सस्ता हो गया है... और उन्होंने भी बतौर अखबार इसका फायदा उठाया है...जाहिर है अपनी खबरों के चुनाव और झुकाव में कोई अखबार गलती करता है और कर सकता है...लेकिन औसतन वो दूसरे माध्यमों जैसे टीवी के मुकाबले कम सेलेक्टिव और कम झुकाव रखने वाला होता है...और इस वक्त इस कमी को पूरा करने में कोई खबर माध्यम सक्षम नहीं है...

इस अखबार के संपादकों की असल चिंता है स्थानीय पत्रकारिता... और उसका भविष्य...उन्हें रॉकी की मौत का इतना दुख नहीं जितना 
rocky_news.jpgशहर की जिंदगी को दर्ज करने वाली एक संस्था के बंद होने का है...और पूरे अमेरिका में लोग स्थानीय अखबारों को बंद होता देख रहे हैं... लेकिन ये सवाल क्यों उठा रहे हैं... उनकी राय में एक अखबार जिस तरह मेहनत के साथ छोटे-छोटे स्कूलो, जिलों, शहर प्रशासन, पुलिस एजेंसियों और कानूनी सवालों पर लोगों की  नजर में लाता है... वो दूसरे माध्यमों के लिए अभी भी काफी मुश्किल है...क्योंकि अच्छी रिपोर्टिंग ही वो चीज है जिस पर स्थानीय स्तर पर लोकतंत्र काम करता है...

रॉकी को बनाने में उसके रिपोर्टरों और संपादकों ने अपना खून और पसीना दोनों लगाए... बेहद प्रतिस्पर्धा में रॉकी पर जबर्दस्त अनिश्चितता हावी रही लेकिन रॉकी को चलाना कोई रहस्य या जादू नहीं था, ये सब जानते थे...लोग अखबारों की प्रतिस्पर्धा को तो समझते हैं लेकिन वो नहीं जानते कि दो अखबारों की दुश्मनी की गहराई कितनी और कैसी होती है...रॉकी ने डेनवर में अपने प्रतिद्वंद्वियों से कुछ ऐसे युद्ध लड़े, जिन्हें आज भी अमेरिकी अखबारों के सबसे जुझारू संघर्षों के बतौर याद किया जाता है...कई बार उसने अस्तित्व के संकट का सामना किया और हर बार वो विजयी होकर निकला...खुद को उसने फिर से तराशा, संवारा और फिर से पाठकों के हाथ में पहुंचा नए कलेवर के साथ...

अखबार में लगातार घाटा बढ़ रहा था... जो 2008 में 1 अरब 50 करोड़ रुपए तक पहुंच गया... क्लासीफाइड रेवेन्यू लगातार घटती गई...पिछले एक दशक से सर्कुलेशन भी कम हो रहा था क्योंकि लोगों की आदतें बदल रही थीं...2007 में कोलोरैडो से ज्यादा सिर्फ 8 ऐसे राज्य थे जहाँ अखबारों का सर्कुलेशन ज्यादा दर्ज किया गया...खास बात ये थी कि डेढ़ सौ साल पहले जिन चीजों की वजह से रॉकी माउंटेन न्यूज में उसके मालिक विलियम बायर्स ने जान फूंकी थी, वही चीजें अब उसकी मौत की वजह बन गईं...

सब जानते हैं कि ये बुरा दौर है... बहुत से उद्योग बंद हो रहे हैं.. ऐसे वक्त में हम आपको बता दें कि अखबार बंद नहीं होते... वो बस मर जाते हैं.. दुनिया बाकी व्यवसायों के बगैर काम चला लेती है...लेकिन लोगों के जीवन को दर्ज करने वालों की जरूरत हर दिन होती है...यूं तो हर बिजनेस हाउस के पास तिमाही दर तिमाही अपनी कामयाबी दिखाने का मौका होता है लेकिन एक अखबार की कामयाबी का पैमाना होती हैं उसकी स्टोरीज, उसकी खबरें... हालांकि अखबार के पास इतिहास दर्ज करने के लिए इतिहासकारों जैसा नहीं होती... वो आपका भोगा हुआ इतिहास तुरंत आप तक पहुंचा देते हैं...चूंकि कोई भी अखबार कभी गलती मुक्त या परफेक्ट नहीं होता, लेकिन ये अखबार ही होता है जो हमेशा सही होने की कोशिश करता रहता है...इसके बावजूद कि उसे सही होने में 24 घंटे लगते हैं...

पाठक और रॉकी के विरोधियों दोनों को ही रॉकी की कमी खलेगी और बुरी तरह सालेगी...डेनवर शहर को अब सिर्फ एक अखबार से काम चलाना होगा, 100 साल में पहली बार...
(hindimedia.in पर 7 मार्च 2009 को प्रकाशित)

3/3/09

संतोषमय कष्ट के शहर में आपका स्वागत है!


धारावी जरायमपेशा है, धारावी सैलानियों की आंखों की किरकिरी है और धारावी गंदा है...अगर आपसिर्फ इन तीन बातों में यकीन रखते हैं तो इसे न पढ़ें...क्योंकि  धारावी के लिए इससे ज्यादा अपमानजनक और कुछ नहीं हो सकता...

सायन, माहीम और माटुंगा रेलवे स्टेशनों के बीच 100 बस्तियों का करीब 520 एकड़ का इलाका...जिन्होंने कभी धारावी में पैर नहीं रखाउन्हें ये टिन शेड्स के टैंटों का कबाड़खाना ही लगेगा...धारावी है भी मुंबई का छाया शहर...इस ग्रह की कुछ सबसे बुरी मलिन बस्तियों में एक...जहां एक वर्ग किलोमीटर में करीब 6 लाख जिंदा लोग रहते हों...उसे आप महानगरीय नर्क कहें या अछूत, कोई फर्क नहीं पड़ता...क्योंकि धारावी है और रहेगा...लेकिन इस संतोषमय कष्ट के शहर में आपका स्वागत है...

धारावी के ठीक उत्तरी तरफ है वो मुंबई जिसे आप भारत की आर्थिक राजधानी के बतौर जानते हैं...एक दूसरे के उलट दो सच्चाइयां...बस्ती से गुजरने वाले दो मीटर चौड़े दो पाइप दिन में बस दो घंटे पानी देते हैं...हर पंद्रह सौ इंसानों के लिए एक टॉयलेट....सड़क के दोनों तरफ बने फीकल लैटरीन...हर तीन मिनट पर धारावी की धमनियों से लोकल ट्रेनें गुजरते गुए उसमें जिंदगी फूंकती रहती हैं...

एशिया की दूसरी सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती धारावी की ये वो खूबियां हैं...जो आंकड़े बयान करते हैं...पर क्या आपको पता है कि लाखों जिंदगियों से भरपूर इस इलाके में दुनिया की बढ़ती शहरी आबादी को लंबे समय तक जिंदा रखने के तमाम पर्यावरणीय और सामाजिक गुण मौजूद हैं...धारावी को बाहरी दुनिया से कुछ नहीं चाहिए...पूरे धारावी में वहीं बनी चीजें इस्तेमाल होती हैं...अवैध ही सही पर 10 हजार से ज्यादा स्मॉल स्केल इंडस्ट्रीज करीब 10 लाख लोगों का पेट भरती हैं...प्लास्टिक, लकड़ी, पॉटरी, जींस और चमड़े के सामान से धारावी की सालाना कमाई होती है 665 मिलियन डॉलर...अगर प्रिंस चा‌र्ल्स कहते हैं कि धारावी मॉडल ज्यादा वक्त चलेंगे और ऐसी परंपरागत सामाजिक सिस्टम हमारे वक्त की क्रूर और असंवेदनशील व्यवस्था से कहीं ज्यादा अच्छी हैं...तो वो शायद गलत नहीं कह रहे...

इसी धारावी की एक और तस्वीर है जिसे अब ब्रिटिश कंपनियां विदेशियों को दिखाती हैं अपने छोटे-छोटे टुअर के जरिए...पुअरिज्म के नाम से...6.75 डॉलर देकर विदेशी एसी कार में बैठकर इस नर्क का दर्शन करते हैं...स्लमडॉग मिलियॉनेयर पर तूफान उठाने वालों की नजर अभी इस तरफ नहीं पड़ी है...


धारावी में घुसते ही आपके सामने होती है बमुश्किल एक मीटर चौड़ी गली...लेकिन अगर आप हिंदुस्तानी हैं तो वहां की जिंदगी से लबरेज रिदम से तुरंत वाकिफ हो जाएंगे...किसी चॉल से निकलते भक्ति संगीत के साथ-साथ पड़ोस की मस्जिद से अजान की आवाज दोनों सुनाई देंगी...आसपास स्कूल और पूरी यूनीफॉर्म में बच्चे...एक तरफ यहां पुराने कंप्यूटरों के कीबोर्ड तोड़फोड़ कर उनके कलपुर्जे अलग-अलग करते लोग मिल जाएंगे तो दूसरी तरफ बॉलपेन की नीली स्याही के बर्तनों पर काम करते कामगार...पॉलिएस्टर रेजिन के स्टील ड्रमों में कुछ बनाते कामगार दिखेंगे...इनमें से चंद के ही हाथों में दस्ताने होंगे...इंसान के जिस्म से निकली गंदगी से भरे गटर के पास आपको बच्चे खेलते मिल जाएंगे...घरों से दिखेगा उठता हुआ काला धुआं, गलियों के बीचोंबीच फैक्ट्रियों का गंदा पानी और पिघला हुआ वेस्ट...

धारावी के ज्यादातर लोगों के लिए अपना टॉयलेट होना एक सपने जैसा ही होता है...क्योंकि ब्रहन्नमुंबई महानगरपालिका समझती है कि इतनी बड़ी आबादी में सभी के लिए अलग-अलग टॉयलेट बनाकर देना पानी की बर्बादी है...पानी के लिए मारामारी है...औसतन दो किलोमीटर दूर से लाइनों में खड़े होकर पानी भरती महिलाएं दिखेंगी ताकि चॉल में चूल्हा-बासन कर सकें...इसके लिए भी उन्हें गुंडों को हफ्ता देना होता है...धारावी का कामकाज अक्सर लैंड माफिया और गुंडों के कंधों पर ही चल पाता है...बात चाहे पानी की हो या बिजली की...वही मुहैया कराते हैं...प्रशासन के पास धारावी के लिए कुछ नहीं है...

ब्रिटिश पीरियड में गुजरात और महाराष्ट्र की निचली मानी जाने वाली जातियों से बसा धारावी बाद में मुंबई की मिलों की बंदी के बाद बेरोजगार हुए कारीगरों, उत्तर प्रदेश, बिहार से गए लोगों, टैक्सी ड्राइवरों से बसा...

सवाल ये है कि एशिया के दूसरे सबसे बड़े स्लम का तमगा धारावी के लिए फख्र की बात है या शर्म की...अगर आप धारावी में एक दिन बिताएं तो शायद आपको लगे कि दोनों ही सच हैं...एक साथ सबकुछ घट रहा है...एक जिंदादिल शहर का सक्रिय स्लम...धारावी आलसियों, खुदगर्ज और दिन भर रोते रहने वालों को पसंद नहीं करता...सिर्फ कड़ी जद्दोजहद ही यहां बचा सकती है...एक ताकत यहां हरदम काम करती रहती है जो आपको मजबूर करती है कि आप क्या हो सकते हैं... कदम कदम पर धड़कती जिंदगी...अपनी तमाम दुश्वारियों के बावजूद...

धारावी शर्म भी है...60 साल के बुड्ढे और आजाद देश के लिए...धारावी में रफ्तार कायम रखने को मजबूर हिंदुस्तान की कुछ बेहद गंदी बुराइयां भी शामिल हैं...बेवकूफाना कानूनी नुक्तों, गलत-सलत नीतियों और गंदे राजनेताओं के मिश्रण का एक जीता-जागता नमूना है ये...दरअसल धारावी आपको उसतरफ देखने को मजबूर करता है जो भारत को पीछे खींच रहा है...दुनिया के लिए उसका रुख और वोचीजें जो हम बाहर वालों से छिपाना चाहते हैं...धारावी को देखकर आप समझ सकते हैं कि हिंदुस्तान क्या हो सकता है...ही वो जगह भी है जहां हर एक वर्ग मीटर जमीन का खाली हिस्सा तरक्की के एक मौके को जन्म देता है और यही वो जगह भी है जहां बिहार के किसी बेहद दूरदराज के गांव सेआया बच्चा सॉफ्टवेयर की पढ़ाई पढ़ता मिलता है...कहीं ये हिंदुस्तान का भविष्य तो नहीं...जिसे आप अभी देखना-दिखाना नहीं चाहते...

हॉलीवुड को धारावी पसंद आई है...उसे स्लमडॉग पसंद आया है...लेकिन ये उसका अपराध नहीं है...इस फिल्म ने तो उसकी समझ बढ़ाई हैओह! ऐसा भी हो सकता है...हिंदुस्तान अगर सॉफ्टवेयर जीनियस देता है, तो वही स्लमडॉग भी पैदा करता है...बेशक स्लमडॉग मिलियॉनेयर गरीबी की बात करती है...गरीबी को नंगेपन के साथ उजागर करती है...जाहिर है ये फीलगुड फिल्म नहीं है...जिसकी हम हमेशा से उम्मीद करते आए हैं...ये फिल्म बेचैन करती है...मुंबई का छाया शहर धारावी भी बेचैन करने वाला शहर है...(सभी तस्वीरें:अयान खासनबीस)

1/3/09

स्लमडॉग की पिटाई की जांच न कराएं रेणुकाजी...

आदरणीय रेणुका जी, 
मुझे बहुत अच्छा लगा कि आपने स्लमडॉग अजहर की पिटाई की जांच कराने का कदम उठाने का फैसला किया है...ये वाकई कोई बेहद संवेदनशील मनुष्य ही कर सकता था...

पर आपकी और ज्यादा प्रशंसा से पहले कुछ सवाल करना चाहता हूं... रिपोर्टर की आदत है न छूटती नहीं... क्या आपको पता है कि इस देश में स्लमडॉग रोज पिटते हैं... ढाबों पर, चाय के खोखों में, आपके घर में काम ठीक से न करने पर, चौराहों पर ऑटो गैराज में...और आप इसे नहीं रोक सकतीं... आप आज तक नहीं रोक पाए... जी हां, आप स्लमडॉग को पिटने से नहीं रोक सकतीं रेणुका जी...

माफी चाहूंगा, अगर कुछ ऐसे सवाल कर लूं, जिन्हें सुनने पर आपको बुरा लगे... मेरा पहला सवाल ये है कि क्या इस स्लमडॉग का पिटना आपको बुरा लगा... क्या ये स्लमडॉग कुछ खास है... क्योंकि उसने एक ऐसी फिल्म में काम किया है जिसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति मिल चुकी है... क्या ये स्लमडॉग ऑस्कर विनर है... इसलिए आपको बुरा लग रहा है...क्योंकि स्लमडॉग तो रोज ही पिटते हैं जिनकी चीखें आप तक नहीं पहुंचतीं... जब राजपथ से आपकी गाड़ी गुजर रही होती है और रेडलाइट पर किताबें या खिलौने, हिंदुस्तान का झंडा बेचने वाला एक स्लमडॉग आपकी गाड़ी के शीशों को हाथ लगाता है, तो आप घृणा से मुंह फेर लेती हैं...हालांकि शायद ही आपको पता हो कि वो कुछ ही देर पहले पिटकर आया होता है... लेकिन आपको उस स्लमडॉग की पिटाई नहीं कचोटती... क्यों?

स्लमडॉग अजहरुद्दीन की पिटाई तो उसके ही बाप ने की है... लेकिन जिन स्लमडॉग्स को आप और हम रोज देखते हैं, उन्हें पीटने वाले उन्हें जन्म देने वाले नहीं, उनका बचपन छीनने वाले होते हैं...क्या उन स्लमडॉग्स को आप स्लमडॉग नहीं मानतीं? 

क्या किसी स्लमडॉग का धारावी स्लम में जाकर रहना ही जरूरी है... क्या दिल्ली या दूसरे किसी शहर के स्लम में पिट रहे अजहर को ऑस्कर अर्जित करने वाली फिल्म में काम करना जरूरी है... तभी उसे पिटने से बचाया जा सकता है... क्या सरकारी ओहदेदारों की नजर में वो अभी स्लमडॉग की श्रेणी में नहीं हैं?

मेरा अगला सवाल ये है कि क्या दिल्ली, आगरा, बैंगलोर, नोएडा और मुंबई में भी धारावी से बाहर किसी स्लमडॉग के साथ कुत्ते का सुलूक नहीं हो रहा है... आप पूरी तरह सुनिश्चित हैं?

क्या इन स्लमडॉग्स के साथ हो रहे सुलूक के खिलाफ आपने और आपकी सरकार ने सारे जरूरी कदम उठा लिए हैं और सिर्फ अजहर का मामला ही बचा है जिसे राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग जांच करने जा रहा है...?

एक और जरूरी सवाल कि क्या फिजिकल यानी शारीरिक मारपीट ही स्लमडॉग के अधिकारों का उत्पीड़न कहा जा सकता है... क्या इन स्लमडॉग्स के दिलो-दिमाग को चीरकर रख देने वाली गाली-गुफ्तार करने वाले माफ किए जा सकते हैं... क्योंकि उन्होंने उनका शारीरिक उत्पीड़न नहीं किया है?

रेणुका जी, आप बेहतर जानती हैं कि देश में कितने स्लमडॉग हैं और उनके साथ क्या सुलूक हो रहा है... लेकिन शायद ही किसी की तवज्जो उधर जाती हो... भई और भी जरूरी काम हैं...बचपन का ठेका ले रखा है क्या सरकार ने... मैं समझता हूं रेणुका जी

तो फिर इस स्लमडॉग पर कैसे नजर पड़ गई आपकी... क्या इसलिए कि वो इस वक्त मीडिया कंपास में है और आप भी इस मौके को नहीं चूकना चाहतीं...क्रुसेडर की अपनी छवि को और चमकाने का इससे बढ़िया और क्या मौका हो सकता है...हां, मैं समझता हूं...इसमें सदाशयता इतनी नहीं जितनी स्लमडॉग के साथ नाम जोड़ने की तमन्ना है... और जनता इसे जानती है...

लेकिन इसमें आपकी गलती नहीं है...अब बच्चों के चाचा नेहरू तो हैं नहीं जो उनके लिए संवेदनशीलता दिखाएंगे... दीयासलाई के कारखानों, होटलों-ढाबों और ऑटो गैराजों में जिंदगी खर्च रहे स्लमडॉग का अब इस देश में कोई नहीं है...सरकार के पास इतनी संवेदनशीलता बची नहीं कि वो अपने चुनावी गणित से ही बाहर आ सके...

मगर मेरा एक सुझाव है, कृपया आप स्लमडॉग अजहर की पिटाई की जांच-वांच न कराएं... इतना भी कष्ट न उठाएं क्योंकि इससे आपकी छवि खराब होगी...हां बयान जरूर देती रहें...ताकि देशवासी आपको समाज सुधारक के बतौर जानते रहें...स्लमडॉग तो पिटते रहते हैं, पिटते रहेंगे...

इस चुनाव में आपकी फतेह का आकांक्षी
खाली दिमाग

28/2/09

बांग्लादेश: जम्हूरियत को लगी नजर

सारी दुनिया पिछले तीन दिन से बांग्लादेश राइफल्स के विद्रोह की तस्वीरें और ढाका में चल रही हलचल को देख रही है... लेकिन अभी तक पूरी तरह साफ नहीं कि आखिर वो क्या बात थी जिसने बांग्लादेश राइफल्स में इतने बड़े विद्रोह को हवा दे दी...क्या ये सिर्फ बांग्लादेश का आंतरिक मामला है... और क्या वास्तव में विद्रोह खत्म हो चुका है... ये कुछ सवाल हैं जिनसे दक्षिण एशियाई थिंक टैंक दोचार है... बांग्लादेश आर्मी बेशक सरकारी नियंत्रण में रही है, लेकिन बांग्लादेश राइफल्स ने 1971 से ही अपनी पहचान बनाए रखने पर जोर दिया है... वो सेना के साथ कभी नहीं मिली... इसके पीछे है एक लंबा इतिहास... हालांकि बांग्लादेश राइफल्स में समय-समय पर सेना के ही अफसर नियुक्त होते रहे हैं...

ईस्ट इंडिया कंपनी की फ्रंटियर प्रोटेक्शन फोर्स का नाम 1795 में रामगढ़ लोकल बटालियन पड़ा...1861 में इसे फिर से गठित कर नाम दिया गया फ्रंटियर गार्ड्स, 1891 में इन्हें नया नाम मिला बंगाल मिलिट्री पुलिस और 1920 में ईस्टर्न फ्रंटियर राइफल्स और 1947 में ईस्ट पाकिस्तान राइफल्स... इसके बाद 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति के साथ ही इन्हें वो नाम मिला जो आज तक इनके साथ है...  

सेना और बीडीआर दोनों में काफी वक्त से वेतन, काम करने की परिस्थितियों, रैंक, लाभों और करियर में मौकों को लेकर ऊंच-नीच रहा है... बीडीआर अफसरों काफी वक्त से इसे लेकर गुस्से में हैं... बीडीआर जवानों ने कई बार अपनी मांगें रखी भीं, लेकिन उन्हें अनसुना कर दिया गया... डायरेक्टर जनरल ने प्रधानमंत्री के सामने उनकी मांगें रखने का वायदा भी किया लेकिन जब प्रधानमंत्री शेख हसीना बीडीआर के कार्यक्रम में गईं तो डायरेक्टर जनरल अपना वायदा भूल गए... पूरी रात बीडीआर जवानों को नींद नहीं आई... अगली सुबह सभी 168 सेक्टर कमांडर दरबार हॉल में इकट्ठे थे...तभी वहां बीडीआर जवानों और उनके अफसरों में जमकर तकरार हुई... कहा जाता है कि इसी दौरान खुद एक ऑफिसर ने अपनी रायफल से फायर झोंक दिया... और इसके बाद तो जैसे ऊंट की पीठ पर आखिरी तिनका रख दिया गया...गुस्साए बीडीआर जवानों ने कैंटोनमेंट एरिया में निकलकर एक के बाद एक अफसरों को भूनना शुरू कर दिया...विद्रोह के 10 मिनट में ही डायरेक्टर जनरल मेजर जनरल शकील अहमद को गोलियों से छलनी कर दिया गया...जो रास्ते में आया बीडीआर जवानों ने गोलियां दाग दीं... खबरें यहां तक हैं कि खुद बीडीआर चीफ ने एक जवान के साथ नोकझोंक के बाद अपनी बंदूक निकाली और उस पर फायर कर दिया... इसके बाद हालात बिगड़ गए.. बीडीआर जवानों ने मीडिया के सामने झूठ भी बोला और सिर्फ एक अफसर की मौत का खुलासा किया था...जबकि तब तक वो करीब 70 अफसरों को मौत के घाट उतार चुके थे...यही नहीं जिन्हें गोली मारी गईं, उन्हें संगीनें भी घुसाकर उनके जिस्म क्षतविक्षत कर दिए गए...बंधक बनाए गए कुछ अफसरों ने क्रूरता के जो हालात बयान किए हैं... उनसे इस विद्रोह के स्केल का पता चलता है... बीडीआर में कैप्टन रैंक से ऊपर के सारे अफसर मारे जा चुके हैं... 

हालात को देखें तो तय है कि ये सिर्फ अचानक हुआ विद्रोह नहीं है... लेकिन क्या एक लोकतंत्र में जवानों की परेशानियों की इस कदर अनदेखी करना ठीक है कि वो अपने ही लोगों के खिलाफ विद्रोह पर उतर आएं...शायद शुद शेख हसीना सरकार को भी इसका इल्म न था कि ऐसा हो जाएगा... इसका पता इस बात से भी चलता है कि तुरंत सरकार ने विद्रोही बीडीआर जवानों के सामने घुटने टेक दिए और उन्हें आम माफी की घोषणा कर दी... 

बहुत से सवाल हैं और उनके जवाब कोई नहीं... आखिर विद्रोह क्या वेतन-भत्तों की मांग को लेकर हुआ... या फिर इसके पीछे कोई सोची समझी तैयारी थी... बांग्लादेश की इंटेलीजेंस एजेंसी तब क्या कर रही थीं... अपने अफसरों को इतनी बड़ी तादाद में मौत के घाट उतारने वाले जवानों को तुरंत आम माफी कैसे देने का ऐलान कर दिया गया.. क्या शेख हसीना सरकार का उनके साथ कोई समझौता हुआ है... विद्रोह के पहले राउंड में मीडिया के सामने बीडीआर ने आत्मसमर्पण का जो ऐलान किया था क्या वो महज सहानुभूति हासिल करने का तरीका था... क्या ये सच है कि जवानों और उनकी महिलाओं के साथ भी अफसर बुरा बर्ताव करते रहे हैं...बांग्लादेश सरकार ने पहले राउंड में विद्रोह के दौरान ही बंधकों को छुड़ाना अपनी प्राथमिकता नहीं समझी, क्यों... क्या बीडीआर के डीजी ने ही खुद सबसे पहले फायर किया था...  

खूनी विद्रोह डेढ़ अरब आबादी वाले भुखमरी से जूझते बांग्लादेश की राजनीति का एक हिस्सा रहे हैं... 1971 में ये देश खुद एक विद्रोह से जन्मा, जब बांग्ला बोलने वाले पूर्वी पाकिस्तानियों ने पाकिस्तान से अपना नाता तोड़ने का ऐलान कर दिया... 1982 में आर्मी चीफ लै जनरल हुसैन मुहम्मद इरशाद ने सैनिक तख्तापलट में सत्ता हथिया ली और 1990 में लोकतंत्र की वापसी तक काबिज रहा...2007 में एक बार फिर सेना सड़कों पर उतरी, जब देश की दोनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के बीच आपसी संघर्ष ने सैकड़ों-हजारों को तबाह कर दिया... दो साल बाद फिर से लोकतंत्र की वापसी हुई है लेकिन पुरानी आग अभी भी धधक रही है... इस बार बीडीआर ने विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया है... तो क्या ये बांग्लादेश में एक बार फिर लोकतंत्र के अंत का संकेत है...

27/2/09

कसाब, कम से कम प्लेटफॉर्म टिकट तो ले लेते!

ये वो देश है जहां आप किसी का कत्ल कर दें, तो भी ये सुनिश्चित नहीं कि आपको सजा मिलेगी ही... और अगर आप किसी सम्माननीय की औलाद हैं तो तय मानिए कि शायद ही आप जेल जाएं और शायद ही आपको कोई छूने की हिम्मत ही करे...यही वो देश है जहां कानून आपके पैरों की जूती से ज्यादा अहमियत नहीं रखता...यही वो देश है जहां सबसे ज्यादा कानून के रखवाले ही कानून तोड़ने वालों में शामिल हैं...

और यही वो देश है जहां 50 से ज्यादा लोगों के कातिल कसाब पर रेलवे ने बगैर प्लेटफॉर्म टिकट लिए स्टेशन में घुसने का अपराध दर्ज किया है... कसाब के खिलाफ 26 फरवरी को कोर्ट में चार्जशीट दाखिल की गई है... उसके खिलाफ तकरीबन 12 केस लगाए गए हैं... और इन्हीं में कसाब और उसके साथी का एक अपराध है छत्रपति शिवाजी टर्मिनस रेलवे स्टेशन पर बगैर प्लेटफॉर्म टिकट के घुसने का... कसाब और 10 आतंकियों के लीडर उसके साथी अबू इस्माइल ने छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर हमला किया था...बधवार पार्क एरिया में आतंकियों की पांचों टीमों के अपनी मुहिम पर निकलने के बाद कसाब और इस्माइल टैक्सी से सीएसटी स्टेशन पहुंचे और स्टेशन के एक किनारे से प्लेटफॉर्म पर घुसे... इसके बाद वो मुख्य वेटिंग हॉल में घुसे... दोनों ने हैंड ग्रेनेड उछाले और अपनी एके-47 से अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी...इसके बाद दोनों एक तरफ जाकर छिप गए... आखिर कसाब को गिरगाम चौपाटी पर पकड़ लिया गया और इस्माइल पुलिस की गोली का शिकार हुआ... रेलवे का कहना है कि दोनों ने सीएसटी स्टेशन पर बगैर प्लेटफॉर्म के घुसकर रेलवे के नियमों का उल्लंघन किया है... दोनों के पास प्लेटफॉर्म टिकट नहीं थे...  

जिस शख्स पर इतने बड़े आतंकी हमले को लॉन्च करने, उसे अंजाम देने... पूरी बेदर्दी के साथ 50 से ज्यादा लोगों को कत्ल करने का आरोप है... क्लोज सर्किट टीवी की तस्वीरें इसकी गवाह हैं... तो इस अपराध का क्या मतलब है...अगर कोई अपराध कायम होता है... तो वो इसलिए होता है कि नियम तोड़े गए हैं...लेकिन कानून का कोई भी जानकार शायद इससे इनकार करे कि जिस शख्स पर हत्या का अपराध दर्ज है... तो उनमें इस अपराध का क्या औचित्य रह जाता है...  

क्या आप इससे ये अर्थ निकालने को मजबूर नहीं होते कि कसाब को अगर रेलवे स्टेशन पर घुसना ही था तो कम से कम प्लेटफॉर्म टिकट तो ले लेता...यानी प्लेटफॉर्म पर वो चाहे जिसका खून करे लेकिन पहले प्लेटफॉर्म टिकट लेना जरूरी है...क्या ये कानून का मजाक नहीं है... लेकिन कानून को पेचीदा और झोल से भरपूर करने के लिए जिम्मेदार लोगों को इससे कोई मतलब नहीं रह गया है कि वो क्या कर रहे हैं... और दुनियाभर में बारीकी से हो रही इस इंटरनेशनल केस की स्क्रूटनी में वो किस हद तक हंसी के पात्र बनेंगे...

24/2/09

ब्लॉगर, आपका वकील कहां है!

अगर आपके ब्लॉग पर किसी पोस्ट की वजह से आपके खिलाफ कोई केस हो जाए तो... आपको किसी व्यक्ति, समुदाय, धर्म की मानहानि के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया जाए... अब ऐसा हो सकता है... ये खतरा अमेरिका, चीन, बर्मा के बाद मध्य एशिया के देशों में फैला और अब भारत में आसन्न खड़ा दिखाई दे रहा है...
यानी अब तक ब्लॉगिंग के सामान्य उसूल भी आपके खिलाफ खड़े हो सकते हैं... क्योंकि उन पर कानून की नजर है...
19 साल के एक ब्लॉगर अजीत के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का कथन इसका सबूत है... जिसने शिवसेना के खिलाफ अपने ऑर्कुट प्रोफाइल पर एक कम्यूनिटी खड़ी की... मकसद था महाराष्ट्र कोर्ट की तरफ से एक क्रिमिनल केस में अपने खिलाफ जारी सम्मनों से बचाव... लेकिन उसका तरीका चल नहीं पाया... इस पोस्ट पर शिवसेना के खिलाफ आई प्रतिक्रियाओं से शिवसैनिक इतने तिलमिलाए कि उन्होंने ब्लॉगर अजीत के खिलाफ थाणे पुलिस स्टेशन में एक और केस ठोक दिया...
अजीत को केरल हाईकोर्ट से एंटिसिपेटरी जमानत मिली तो वो सुप्रीम कोर्ट चला गया जहां उसका तर्क था कि कम्यूनिटी में दर्ज हुए सारे कमेंट्स उस कम्यूनिटी तक ही महदूद हैं... उनका मकसद किसी का अपमान करना नहीं था... और ये अभिव्यक्ति की आजादी की तरह समझे जाने चाहिए... एक कंप्यूटर साइंस छात्र अजीत की बात को सुप्रीम कोर्ट ने नहीं माना... सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि वो अच्छी तरह जानता है कि कितने लोग इंटरनेट पोर्टल देखते हैं... और अगर कोई इस कंटेंट को पढ़ने के आधार पर कोई केस दर्ज कराता है तो उसे इसका सामना करना पड़ेगा... और ये भी साफ करना होगा कि इस कंटेंट को अपने वैबपेज पर रखने के पीछे उसका तर्क क्या है...
इस मामले को बतौर ब्लॉगर आप कैसे देखते हैं... ये काफी अहमियत रखता है... सुप्रीम कोर्ट के रुख से दो-तीन बातें एकदम साफ हो गई हैं... 
एक, अगर आपके ब्लॉग पर जो भी कंटेंट मौजूद है तो उसके लिए सिर्फ और सिर्फ आप ही जिम्मेदार माने जाएंगे... 
दूसरे, अगर आपके वैबपेज, कम्यूनिटी वैबसाइट और ब्लॉग पर किसी ने अपने विचार रखे हैं और आप सिर्फ होस्ट की भूमिका निभा रहे हैं तो काम नहीं चलेगा... जिन्होंने विचार व्यक्त किए हैं, वो उतने नहीं बल्कि आप इसके आपराधिक पक्ष की ज़द में आएंगे...
तीसरी बात, आप अभिव्यक्ति की आजादी का सहारा लेकर अपनी वैबसाइट को क्लीनचिट नहीं दिला सकते... आपको इसके तहत मौजूद कानूनी नुक्तों का ख्याल रखना होगा... 
चौथी बात, किसी के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी और गलतबयानी, बदनामी और मानहानि के लिए जो कानून प्रिंट और टीवी पर लागू होता है, ब्लॉगर भी उसकी सीमा में आते हैं...
पांचवीं बात, अगर आप ब्लॉग या कम्यूनिटी वैबसाइट या वैबपेज शुरू कर रहे हैं तो एक वकील को भी साथ रखें, वरना आप कब जेल में होंगे कहना मुश्किल है...

इस घटना से कम से कम ये तो साबित हो गया है कि ब्लॉग अखबार और टीवी से कमजोर नहीं है... वो उतना ही बड़ा मीडियम है जितने दूसरे... और कानून का जो कंसर्न दिखाई दे रहा है, उसमें अखबार और टीवी से भी ज्यादा इसकी जिम्मेदारी देखी जा रही है... 

23/2/09

धारावी तो कुनैन है!

हॉलीवुड ने भारत की गंदगी को रेड कार्पेट पर ले जाकर सम्मानित कर दिया है... जो गंदगी हमें कालीन के नीचे रखनी मंजूर थी, हॉलीवुड ने उसने उघाड़कर दुनिया के सामने खड़ा कर दिया है...स्लमडॉग मिलियॉनेयर को 8 एकेडमी अवार्ड से नवाजा जाना उस सच का सम्मान लगता है, जिसे हम कबूलने से साफ इनकार करते हैं... अगर इसे बदजुबानी न माना जाए तो शायद हमारे किसी फिल्मकार में अभी भी ये दम नहीं कि वो विश्वमंच पर ऐसा सिनेमाई यथार्थ उतारने की हिम्मत रखता हो...
स्लमडॉग को लेकर राष्ट्वादी भारतीयों की आवाजें आईं थीं कि ये गंदगी को सिर पर रखने जैसा है... लेकिन डायरेक्टर डैनी बॉयल को इसकी परवाह नहीं थी...उनकी प्रतिबद्धता सिर्फ कला के प्रति थी और उन्होंने वही किया भी...लेकिन भारत में इस फिल्म को लेकर जो होहल्ला मचा था, जो विरोध हुआ उस पर आप क्या कहेंगे... मेरे ख्याल में स्लमडॉग को गंदगी का पोर्न सिनेमा कहने वालों के लिए ये वैसा ही था जैसे किसी अतिथि ने आपको आपके टॉयलेट में बैठे देख लिेया हो...

घोर गरीबी में कुलबुलाते धारावी को भी उसी हिंदुस्तान ने खड़ा किया है जो इसका विरोध करता है... वो आर्थिक ऊंचाइयां छूते इसी भारत का बाय प्रोडक्ट है... लेकिन आसमान से बातें करता कामयाब हिंदुस्तान दुनिया के सामने इस सच को नहीं लाना चाहता... लेकिन इससे धारावी और ऐसे दूसरे स्लम का अस्तित्व खत्म नहीं हो जाएगा... वो रहेंगे और आपकी कामयाबी को मुंह चिढ़ाते रहेंगे... 

स्लमडॉग मिलियॉनेयर ने मुंबई जैसे लाजवाब शहर की जीवंतता और कामयाबी के शिखर चूमते शहर के दो बड़े सच सामने रखे हैं... एक सच है ताकत और शोहरत की दौड़ में जुटे शहर का तो दूसरी तरफ है अपनी जिंदगी से जद्दोजहद करते शहर का... स्लम में जवान होता नायक खुद कामयाब होने का सपना देख रहा है...चाहे वो अपनी महबूब को पाने की हो या फिर कौन बनेगा करोड़पति के जरिए नई जिंदगी की शुरुआत की...

डैनी बॉयल की फिल्म किसी कल्पना या हीरोइज्म का सहारा नहीं लेती... जैसा कि आप दूसरी स्लम आधारित फिल्मों में देखते आए हैं... चाहे वो पुलिस बर्बरता हो, झुग्गीबस्ती में गुजर-बसर कर रहे लोगों की दयनीय हालत हो, धर्मों के नाम पर होने वाले दंगे हों, भीख मंगवाने के लिए बच्चों का अपहरण हो... आप हर चीज पर सौ फीसदी यकीन कर सकते हैं... कहानी में कुछ मोड़ जरूर हैं, जो शायद हर किसी की जिंदगी में नहीं आते... लेकिन जिंदगी फिल्म का प्लॉट भी तो तभी बन सकती है, जब फिल्मकार इस जिंदगी में कुछ अनयूजुअल, अनोखा ढूंढ निकाले... यही इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत भी है...

हां, डैनी बॉयल ने भारत में फिल्म बनाते वक्त एक बात का पूरा ख्याल रखा... भारतीय प्रतीकों का... उन्होंने जहां जरूरी समझा उन्हें इस्तेमाल कर लिया... चाहे वो प्यार की मिसाल ताजमहल हो या बदलती महानगरीय जिंदगी की पहचान कॉल सेंटर हों...हो सकता है कि आप कहें कि उन्होंने विदेशों में भारत की तस्वीरों में सबसे ज्यादा दिखने वाले सपेरों का इस्तेमाल कहीं नहीं किया है... जाहिर है भारत से पूरी तरह नावाकिफ डैनी बॉयल को ज्यादातर भारतीय प्रतीक अपने पूर्ववर्ती फिरंगियों से ही लेने पड़े... वरना इतनी जल्द इस देश की मिट्टी को समझ पाना आसान भी तो नहीं था...और इसके बावजूद उन्होंने अपनी फिल्म में संतुलन नहीं खोया...
 
शायद भारत में हायतोबा की एक वजह ये भी रही कि स्लमडॉग मिलियॉनेयर ने भारतीय मध्यवर्ग की अनदेखी की है... इसने तरक्की करते भारत के उस हिस्से को सामने रखा है, जिसके एक पैर में गैंग्रीन हो चुका है...जमाने के साथ कदमताल की कोशिश कर रहे तरक्कीपसंद हिंदुस्तान को अपने पैर में हुए इस गैंग्रीन की परवाह नहीं है... 
ये वो चीज है जो हम ज्यादातर मध्यवर्गीय भारतीयों के गले नहीं उतरती...हम सपनों में रहने वाले, सपने देखने वाले लोग हैं...पिछले सौ साल से पर्दे पर हमें प्यार-मोहब्बत की कहानियां ही अच्छी लगती रही हैं... धारावी के शहर के फिल्मकारों ने भी हमें कमोबेश यही दिया है... और धारावी तो कुनैन है... 

24/11/08

टीआरपी जिसे कहते हैं...

कहते हैं एक बार एक राजा पर उसके दुश्मन ने हमला किया... लेकिन ये हमला सैनिक नहीं था... राज्य की जनता और राजा को मारने के लिए उसने नया उपाय खोजा था... वो ये था कि किले के सभी कुओं में जहर डाल दिया गया... जिन्होंने भी वो पानी पिया, मौत की गोद में चले गए... सिर्फ एक कुएं में कुछ पानी ठीक था... पर जिसने भी उसे पिया, वो पागल हो गया... किले की जनता पागल हो चुकी थी और उसका कहना था कि उनका राजा पागल है... उसने राजा के महल पर हमला बोल दिया... तभी राजा के विश्वासपात्र मंत्री को एक उपाय सूझा... उसने राजा को सलाह दी कि अब बचने का एक ही रास्ता है उस कुएं का पानी पी लिया जाए... ताकि राजा भी अपनी जनता की तरह हो जाए... बेमौत मारे जाने से बेहतर था पानी पी लिया जाए... राजा ने वक्त की नजाकत समझी और पानी पी लिया... इसके बाद महल से बाहर आकर वो भी जनता के साथ शामिल हो गया... अब राजा और प्रजा दोनों खुश थे...
ये कहानी कई बार कही गई है... मैंने अपनी स्मृति के सहारे लिखी है... इसलिए मुमकिन है कि कुछ विवरणों में गलती हो जाए... लेकिन कहानी तकरीबन यही है... दरअसल ये कहानी हमसे कुछ कहती है... सामूहिक झूठों, बहुमत की तानाशाही के बारे में... और ऐसा ही एक सामूहिक झूठ है टीआरपी...
आंकड़े बताते हैं कि ७ हजार करोड़ रुपये की टेलिविजन चैनल इंडस्ट्री हर साल 23 फीसदी की दर से बढ़ रही है... लेकिन इस चैनलों को चलाती है एक कंपनी टेलीविजन ऑडिएंस मेजरमेंट यानी टैम... और यही देती है हफ्तेवार टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट...
अब आप पूछ सकते हैं कि ऊपर की कहानी से टीआरपी का क्या ताल्लुक... मैं बताता हूं... जरा टीआरपी को उस कुएं की पानी की जगह रखकर देखिए, जिसे पीकर राजा और उसके मंत्री की जान बची थी... शायद आप समझ गए होंगे... जी हां, टीआरपी पीकर ही चैनलों की जान बचती है...
लेकिन इस कहानी को और समझने के लिए जरा गौर करें... टीआरपी तय होती है 14 राज्यों के ७३ शहरों में लगे पीपुलमीटरों से... कंपनी इनसे ७००० सैंपल इकट्ठा करती है... और हर हफ्ते चैनलों की रेटिंग बताती है... यानी ७००० लोगों की पसंद-नापसंद पर चल रही है ७००० करोड़ सालाना की इंडस्ट्री...
टैम के मुताबिक खबरों का बाजार दिल्ली और मुंबई हैं... इसलिए वहां हर घटना राष्ट्रीय झंडे के बाद फहरने वाली पहली चीज होती है... और बिहार की बाढ़ स्निपेट... यानी संक्षिप्त... (हां, अगर दिल्ली और मुंबई से कोई डिग्नीटेरी जा रहा हो, तो बात अलग है)
अब बात करते हैं विज्ञापनदाताओं की... यानी एड एजेंसियों की... आप पूछेंगे कि कहानी में ये कहां फिट बैठते हैं... ये वही जनता है जो राजा को मारने के लिए महल पर टूट पड़ी थी... जी हां, एड एजेंसियां टैम की हफ्तेवार रिपोर्ट पर ही चैनलों को सांस लेने की इजाजत देते हैं...यानी विज्ञापन तभी मिलेंगे जब टैम में आपका ग्राफ ऊपर चढ़ता दिखेगा...
आप पूछेंगे कि चैनल खुद अपना पीपुलमीटर क्यों नहीं लगा लेते... तो वो इसलिए क्योंकि इन कोशिशों को एड एजेंसियां तरजीह नहीं देतीं... वो इनकी विश्वसनीयता को मानेंगी ही नहीं... और उन्होंने कोई कोशिश भी नहीं की अभी तक... उनमें इतनी हिम्मत भी नहीं है... यानी राजा किसी भी हालत में बच नहीं सकता मरने से...
जान बचाने के लिए उसके सामने एक ही रास्ता बचा है... उसी कुएं का पानी पी ले, जिसे किले की बाकी जनता ने पिया है... इस पानी को पीकर ही वो बच सकता है... बेशक पागल हो जाए...
मैं जानता हूं कि आपके ढेरों सवाल हैं... कि आखिर मंत्री कौन है... मंत्री है चैनल का मैनेजमेंट और संपादक... जो साफ कहता है राजा आप पानी पी लें, वरना मौत तय है... क्योंकि जनता दरवाजे पर पहुंच चुकी है...
लेकिन सवाल है कि दर्शक कहां है कहानी में... अब आप ही बताएं कहां है वो... सभी सवालों का जवाब मैं ही क्यों दूं... आप सोचिए और बताइए... कहानी में दर्शक कहां है... है भी या नहीं... या कहानी कहते वक्त दर्शक नहीं हुआ करता था...

15/9/08

डिजेस्टर टूरिज्म का नाम सुना है?

जी हां, मैं पूछ रहा हूं कि डिजेस्टर टूरिज्म का नाम सुना है आपने... शायद न सुना हो तो बता देता हूं... वो टूरिज्म जो अभी बिल्कुल बाल अवस्था में है... टूरिज्म यानी पर्यटन की वो शाखा जिसमें आप किसी ऐसे स्थान पर जाते हैं... जहां लोग किसी भारी विपदा या प्राकृतिक आपदा से दो चार हों...
हाल ही में दिल्ली ब्लॉगर्स की एक पोस्ट को देखा तो लगा कि एक अनोखा ही ट्रैंड चल पड़ा है... अब लोग उन जगहों की यात्रा पर पर्यटन पर निकल रहे हैं... जहां लोग या तो प्राकृतिक आपदा से जूझ रहे हैं या फिर आदमी की खुद बनाई किसी मुसीबत से... इसी पोस्ट पर जिक्र था लखनऊ के पास एक जगह का जहां लोगों के घर पानी में डूब गए हैं... वहां लोग अपने परिवार सहित गाड़ियों में बैठकर पहुंच रहे हैं... ठेलेवाले आइसक्रीम और चाट के ठेले लगाकर खड़े हो गए हैं... माल बिक रहा है... ऐसे ही एक व्यक्ति राजीव से उस ब्लॉगर ने सवाल किया कि कैसे वहां आना हुआ? राजीव नाम के इस शख्स ने अपने बेटे को ठेलेवाले से एक आइसक्रीम लेकर बेटे को देते हुए कहा... मैं चाहता था कि मेरा बेटा भी देखे कि पानी में डूबे लोगों के घर क्या कैफियत पैदा करते हैं... और कैसे लोग उससे जूझते हैं... ये तो रही एक बात...
इसी कहानी को दूसरा विस्तार देना चाहूंगा... आज ही के टाइम्स ऑफ इंडिया में एक नीदरलैंड के जोड़े की खबर है... जो दिल्ली में गफ्फार मार्केट पहुंचा... आतंकी धमाकों के बाद... वो लोग आगरा से ये देखने आए हैं कि आखिर दिल्ली में उन जगहों पर क्या हुआ जहां बम फटे... कैसे दिल्ली इन धमाकों के दंश को झेल रही है... यानी पुलिस और पत्रकार के अलावा अब सरकार को उन लोगों का भी ध्यान रखना होगा जो त्रासदी के बाद इन जगहों के दौरे के लिए जाते हैं... महज उस रोमांच को महसूस करने जो दूसरे झेल रहे हैं... जिंदगी और मौत के संघर्ष को पास से देखने ताकि वो इनके प्रति असंवेदनशील हो सकें... अच्छी तरह... क्योंकि ये तो कहा नहीं जा सकता कि अगली बार आपका नंबर नहीं आ सकता...

नदी

क्या नदी बहती है  या समय का है प्रवाह हममें से होकर  या नदी स्थिर है  पर हमारा मन  खिसक रहा है  क्या नदी और समय वहीं हैं  उस क्षैतिज रेखा पर...