बांग्लादेश: जम्हूरियत को लगी नजर

सारी दुनिया पिछले तीन दिन से बांग्लादेश राइफल्स के विद्रोह की तस्वीरें और ढाका में चल रही हलचल को देख रही है... लेकिन अभी तक पूरी तरह साफ नहीं कि आखिर वो क्या बात थी जिसने बांग्लादेश राइफल्स में इतने बड़े विद्रोह को हवा दे दी...क्या ये सिर्फ बांग्लादेश का आंतरिक मामला है... और क्या वास्तव में विद्रोह खत्म हो चुका है... ये कुछ सवाल हैं जिनसे दक्षिण एशियाई थिंक टैंक दोचार है... बांग्लादेश आर्मी बेशक सरकारी नियंत्रण में रही है, लेकिन बांग्लादेश राइफल्स ने 1971 से ही अपनी पहचान बनाए रखने पर जोर दिया है... वो सेना के साथ कभी नहीं मिली... इसके पीछे है एक लंबा इतिहास... हालांकि बांग्लादेश राइफल्स में समय-समय पर सेना के ही अफसर नियुक्त होते रहे हैं...

ईस्ट इंडिया कंपनी की फ्रंटियर प्रोटेक्शन फोर्स का नाम 1795 में रामगढ़ लोकल बटालियन पड़ा...1861 में इसे फिर से गठित कर नाम दिया गया फ्रंटियर गार्ड्स, 1891 में इन्हें नया नाम मिला बंगाल मिलिट्री पुलिस और 1920 में ईस्टर्न फ्रंटियर राइफल्स और 1947 में ईस्ट पाकिस्तान राइफल्स... इसके बाद 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति के साथ ही इन्हें वो नाम मिला जो आज तक इनके साथ है...  

सेना और बीडीआर दोनों में काफी वक्त से वेतन, काम करने की परिस्थितियों, रैंक, लाभों और करियर में मौकों को लेकर ऊंच-नीच रहा है... बीडीआर अफसरों काफी वक्त से इसे लेकर गुस्से में हैं... बीडीआर जवानों ने कई बार अपनी मांगें रखी भीं, लेकिन उन्हें अनसुना कर दिया गया... डायरेक्टर जनरल ने प्रधानमंत्री के सामने उनकी मांगें रखने का वायदा भी किया लेकिन जब प्रधानमंत्री शेख हसीना बीडीआर के कार्यक्रम में गईं तो डायरेक्टर जनरल अपना वायदा भूल गए... पूरी रात बीडीआर जवानों को नींद नहीं आई... अगली सुबह सभी 168 सेक्टर कमांडर दरबार हॉल में इकट्ठे थे...तभी वहां बीडीआर जवानों और उनके अफसरों में जमकर तकरार हुई... कहा जाता है कि इसी दौरान खुद एक ऑफिसर ने अपनी रायफल से फायर झोंक दिया... और इसके बाद तो जैसे ऊंट की पीठ पर आखिरी तिनका रख दिया गया...गुस्साए बीडीआर जवानों ने कैंटोनमेंट एरिया में निकलकर एक के बाद एक अफसरों को भूनना शुरू कर दिया...विद्रोह के 10 मिनट में ही डायरेक्टर जनरल मेजर जनरल शकील अहमद को गोलियों से छलनी कर दिया गया...जो रास्ते में आया बीडीआर जवानों ने गोलियां दाग दीं... खबरें यहां तक हैं कि खुद बीडीआर चीफ ने एक जवान के साथ नोकझोंक के बाद अपनी बंदूक निकाली और उस पर फायर कर दिया... इसके बाद हालात बिगड़ गए.. बीडीआर जवानों ने मीडिया के सामने झूठ भी बोला और सिर्फ एक अफसर की मौत का खुलासा किया था...जबकि तब तक वो करीब 70 अफसरों को मौत के घाट उतार चुके थे...यही नहीं जिन्हें गोली मारी गईं, उन्हें संगीनें भी घुसाकर उनके जिस्म क्षतविक्षत कर दिए गए...बंधक बनाए गए कुछ अफसरों ने क्रूरता के जो हालात बयान किए हैं... उनसे इस विद्रोह के स्केल का पता चलता है... बीडीआर में कैप्टन रैंक से ऊपर के सारे अफसर मारे जा चुके हैं... 

हालात को देखें तो तय है कि ये सिर्फ अचानक हुआ विद्रोह नहीं है... लेकिन क्या एक लोकतंत्र में जवानों की परेशानियों की इस कदर अनदेखी करना ठीक है कि वो अपने ही लोगों के खिलाफ विद्रोह पर उतर आएं...शायद शुद शेख हसीना सरकार को भी इसका इल्म न था कि ऐसा हो जाएगा... इसका पता इस बात से भी चलता है कि तुरंत सरकार ने विद्रोही बीडीआर जवानों के सामने घुटने टेक दिए और उन्हें आम माफी की घोषणा कर दी... 

बहुत से सवाल हैं और उनके जवाब कोई नहीं... आखिर विद्रोह क्या वेतन-भत्तों की मांग को लेकर हुआ... या फिर इसके पीछे कोई सोची समझी तैयारी थी... बांग्लादेश की इंटेलीजेंस एजेंसी तब क्या कर रही थीं... अपने अफसरों को इतनी बड़ी तादाद में मौत के घाट उतारने वाले जवानों को तुरंत आम माफी कैसे देने का ऐलान कर दिया गया.. क्या शेख हसीना सरकार का उनके साथ कोई समझौता हुआ है... विद्रोह के पहले राउंड में मीडिया के सामने बीडीआर ने आत्मसमर्पण का जो ऐलान किया था क्या वो महज सहानुभूति हासिल करने का तरीका था... क्या ये सच है कि जवानों और उनकी महिलाओं के साथ भी अफसर बुरा बर्ताव करते रहे हैं...बांग्लादेश सरकार ने पहले राउंड में विद्रोह के दौरान ही बंधकों को छुड़ाना अपनी प्राथमिकता नहीं समझी, क्यों... क्या बीडीआर के डीजी ने ही खुद सबसे पहले फायर किया था...  

खूनी विद्रोह डेढ़ अरब आबादी वाले भुखमरी से जूझते बांग्लादेश की राजनीति का एक हिस्सा रहे हैं... 1971 में ये देश खुद एक विद्रोह से जन्मा, जब बांग्ला बोलने वाले पूर्वी पाकिस्तानियों ने पाकिस्तान से अपना नाता तोड़ने का ऐलान कर दिया... 1982 में आर्मी चीफ लै जनरल हुसैन मुहम्मद इरशाद ने सैनिक तख्तापलट में सत्ता हथिया ली और 1990 में लोकतंत्र की वापसी तक काबिज रहा...2007 में एक बार फिर सेना सड़कों पर उतरी, जब देश की दोनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के बीच आपसी संघर्ष ने सैकड़ों-हजारों को तबाह कर दिया... दो साल बाद फिर से लोकतंत्र की वापसी हुई है लेकिन पुरानी आग अभी भी धधक रही है... इस बार बीडीआर ने विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया है... तो क्या ये बांग्लादेश में एक बार फिर लोकतंत्र के अंत का संकेत है...

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