जुनून खौफ का!
मीडिया हमें संवेदनशील बनाता है या हमारी संवेदनाओं को कुंद करता है...पता नहीं...जहां तक मुझे पता है कि मीडिया अपनी कमेंट्री में, अपने संवाद में, अपने झुकाव में...आपको कहीं छूने की कोशिश करता है क्योंकि वो पशुओं से संवाद नहीं कर रहा... वो जानवरों को समझाने की कोशिश नहीं कर रहा बल्कि जीते-जागते सोचने वाले जीव इंसानों तक अपनी बात पहुंचा रहे हैं... लेकिन ऐसा लगता नहीं है...
मौत का मासूम चेहरा, जुनून की खौफनाक दास्तान, पहली बार टीवी पर, इन तस्वीरों से बच्चों को दूर रखना... 4 फुट की मौत...
अगर आपको कुछ भी पता न हो तो इन लाइनों से आप क्या निष्कर्ष निकालेंगे...शायद कोई सनसनीखेज वारदात...जिसमें चार फुट लंबे शख्स ने किसी की जान ले ली है...जिसे देखकर बच्चे डर सकते हैं...शायद यही या कुछ ऐसा ही...
लेकिन जनाब आप पूरी तरह गलत साबित होंगे...क्योंकि ये वो खबर है जो अंतर्राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समुदाय ही नहीं पूरी मानवता के लिए परेशानी का खुलासा करने वाली है...ये आतंकवाद का वो घिनौना चेहरा है, जिसे देख और सुनकर रौंगटे खड़े हो सकते हैं...ये खबर है पूरी बेरहमी से बचपन को मौत के मुंह में धकेलने की.. बच्चों को बंदूक और बम बांधकर लोगों की जान से खेलने की...उनके जिस्म पर बम बांधकर बदला लेने की हवस...जो दुनियाभर के आतंकी संगठन कर रहे हैं...
और ये चेहरा है 2009 की हिंदी टीवी रिपोर्टिंग का...इस पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि आप यूट्यूब की फुटेज इस्तेमाल करके किसी मुद्दे को हथियार बना रहे हैं, अपनी बात कह रहे हैं...लेकिन आपत्ति उसके प्रस्तुतिकरण पर जरूर होनी चाहिए...जो बेहद खौफनाक, सस्ती, मुद्दे से कोसों दूर, सनसनी से भरपूर और डर के सिवाय कोई भी असर छोड़ने में नाकामयाब है...
हमास बच्चों को अपने ग्रुप में शामिल करके उन्हें बाकायदा जिहाद में दीक्षित कर रहा है...मणिपुर में कुछ उग्रवादी संगठन, लिट्टे, कश्मीर के कुछ संगठन, तालिबान, अल कायदा और सरकारों के खिलाफ जेहाद में जुटे कई संगठन बच्चों को कवच की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं... लेकिन क्या इसे ऐसे पेश करना ठीक होगा कि ये आपका मनोरंजन करे एक हॉरर मूवी की तरह...इस बारे में आगे सोचने की कोई गुंजाइश ही न छोड़े...
लेकिन ऐसा ही हुआ... अगर इस मुद्दे को भारतीय हिंदी टेलीविजन या अखबार उठाते हैं तो यही संदेश समझ आता है...सिर्फ यही खास, बाकी सब बकवास...बिल्कुल यही मैसेज होता है उनका...
यूट्यूब की इस फुटेज में हमास के एक स्थानीय नेता और एक बच्चे अहमद से स्थानीय रिपोर्टर का इंटरव्यू है... रिपोर्टर आतंकी और बच्चे से सवाल करती है...आतंकी अपना मकसद बताता है कि उनकी लड़ाई इजरायल के खिलाफ है और ये बच्चा उनका भाई है जो उनके मिशन में बेहद उपयोगी है...वो ये भी बता रहा है कि उनके पास अहमद जैसे सैकड़ों-हजारों बच्चे हैं...अगर अहमद शहीद भी हो गया तो उसकी जगह लेने को हजारों अहमद तैयार हैं...अहमद भी शहादत का जज्बा रखता है...
हिंदी पत्रकारों का सवाल है कि क्यों वो बच्चे मारे जा रहे हैं और ये नकाबपोश बचे हुए हैं... क्यों नहीं ये खुद लड़ने जाते...वो बता रहा है एकबारगी तो अहमद भी सिहर जाएगा...जो खुद की मर्जी से शहीद होना चाहता है, वो भी रुआंसा हो जाएगा... जब उसके बड़े भाइयों यानी इन नकाबपोशों के कुछ शब्द उसके कानों में शीशों की तरह पिघलेंगे...(बेहद गैरजिम्मेदाराना सामान्यीकरण और हवा में महल)
क्या यही समझदारी है इस मुद्दे की...जिस सवाल को हिंदी मीडिया भारत में बैठकर उठा रहा है...वो उन जेहादियों के लिए पूरी तरह बेमानी है...और क्या उन्हें ये पता नहीं कि नकाबपोश भी लड़ने जाते हैं... सैकड़ों-हजारों फिलिस्तीनी नौजवान लगातार इजरायल के खिलाफ संघर्ष में मारे जा रहे हैं...क्या उन्हें पता है कि आखिर फिलिस्तीन की जमीन क्यों इजरायल के खिलाफ धधक रही है...क्यों ऐसी नौबत आई कि बच्चों के सिर पर कफन बांधना पड़ा...छोड़िए जाने दीजिए...हिंदी दर्शक इतना गरिष्ठ मानसिक भोजन नहीं कर पाएगा...ये उनका दर्शन है... इसलिए आपका मनोरंजन करने और आपकी संवेदनाएं छूने के लिए बस खौफ का ही आखिरी रास्ता बचा है हिंदी मीडिया के पास...दूसरे, इसमें खुद की नाजानकारी भी आसानी से छिप जाती है...
इसी फुटेज में आतंकी बता रहे हैं कि आखिर अहमद इतनी छोटी उम्र में ही उनके साथ क्यों है... क्योंकि उनसे उनका बचपन छीन लिया गया...लेकिन ताज्जुब ये कि पूरी कहानी में सबसे अहम इस बात की कोई व्याख्या ही नहीं है...क्योंकि खुद उसे इस मुद्दे का ही पता नहीं है कि आखिर वो बचपन कैसे गया...और कहां गया...किसकी वजह से गया...और इसे बगैर किसी तवज्जो के छोड़ दिया गया...
चलती-फिरती मौत, पैरों पर चलकर आती तबाही, पलक झपकते मचा सकता है तबाही का तांडव, सैकेंड्स में सबकुछ खत्म कर देगा ये, बारूद वाला बच्चा, बर्बादी का बवंडर...मौत का परवाना.......ये वो कुछ जुमले हैं जो हिंदी मीडिया ने आतंकवादियों के साथ शामिल बच्चों को दिए... बड़े-बड़े शब्द...बेमानी लेकिन सनसनीखेज...संवेदनाहीन...जो शायद अब किसी के कानों पर जूं की तरह भी नहीं रेंगते...क्योंकि हर दूसरी-तीसरी लाइन पर इन्हें सुन-सुनकर आपके रौंगटे भी बैठ चुके हैं...
तो क्या मीडिया ने हिंदीभाषियों-हिंदी दर्शकों-हिंदी पाठकों को निरा उजड्ड, गंवार और बेवकूफ समझ रखा है...लगता तो कुछ ऐसा ही है...क्योंकि आंकड़े भी (टीआरपी) उन्हीं के साथ हैं... वो आपकी संवेदनशीलता को चुनौती देते हैं रोज...वो आपका वक्त ज़ाया करते हैं रोज...वो आपको पूरे परिवार के बीच शर्मसार करते हैं रोज...वो आपको जिल्लत और जहालत से भरपूर बताते हैं हरपल...आपकी सेंसिबिलिटी को कुरेदते हैं वो...आपको निहायत तुच्छ समझते हैं...पूरी सीनाजोरी के साथ...क्योंकि उनके पास आंकड़े हैं...अपनी बात के समर्थन में...
और फिर...हिंदी मीडिया को लगता है...भारतेंदु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त के बाद हिंदी में कोई साहित्यकार पैदा ही नहीं हुआ है...जो आपकी समझ विकसित कर सकता...हिंदी पत्रकार ही वो है जिसने हर नौकरी के नाकाबिल होने के बाद इस प्रोफेशन में कदम रखा...जो अपने गांव-कस्बे से सीधे महानगर पहुंचा...पढ़ने-लिखने से उसका कोई वास्ता नहीं...जो आपने पढ़ा, वही आपके पिताजी और उनके पिताजी ने पढ़ा था...इसलिए सोचें कैसे और क्या नया...कहां से आए संवेदनशीलता...गंभीर है तो गरिष्ठ है उसके लिए...हजम नहीं होता...इसीलिए हिंदी में अब विचार नहीं होता...सिर्फ साहित्य चिंतन होता है या प्राचीन महान का महिमामंडन...या फिर बचते हैं खतरनाक की कोटि में आने वाले शब्दबाण...
मगर एक बात है...हिंदी मीडिया अपने अंग्रेज सामंतियों की तरह ये भलीभांति जानता है कि हिंदी बेल्ट आधुनिकताबोध से वंचित नहीं है...बेशक उधारी की ही क्यों न हो...इसलिए इस बेल्ट को बाजार के बतौर देखने में उन्हें कोई उज्र नहीं है...हां, वो ये भी जानते हैं कि माल खरीदने वाला हिंदी ग्राहक सिर्फ नारों पर जाता है... और हर चमकदार, जोरदार, चीखपुकार से बेची गई चीज तुरंत खरीद लेता है... इसलिए साहित्यचिंतन से मुक्त हिंदी पत्रकारिता अब खतरनाक शब्दबाण लेकर मैदान में है...24X7 वो यही शब्दबाण छोड़ रही है...बाकी सबकुछ चुक गया है...हिंदी स्टाइल में अंग्रेजी पत्रकारिता...अंग्रेजी स्टाइल में देसी चिंतन...
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