कहते हैं एक बार एक राजा पर उसके दुश्मन ने हमला किया... लेकिन ये हमला सैनिक नहीं था... राज्य की जनता और राजा को मारने के लिए उसने नया उपाय खोजा था... वो ये था कि किले के सभी कुओं में जहर डाल दिया गया... जिन्होंने भी वो पानी पिया, मौत की गोद में चले गए... सिर्फ एक कुएं में कुछ पानी ठीक था... पर जिसने भी उसे पिया, वो पागल हो गया... किले की जनता पागल हो चुकी थी और उसका कहना था कि उनका राजा पागल है... उसने राजा के महल पर हमला बोल दिया... तभी राजा के विश्वासपात्र मंत्री को एक उपाय सूझा... उसने राजा को सलाह दी कि अब बचने का एक ही रास्ता है उस कुएं का पानी पी लिया जाए... ताकि राजा भी अपनी जनता की तरह हो जाए... बेमौत मारे जाने से बेहतर था पानी पी लिया जाए... राजा ने वक्त की नजाकत समझी और पानी पी लिया... इसके बाद महल से बाहर आकर वो भी जनता के साथ शामिल हो गया... अब राजा और प्रजा दोनों खुश थे...
ये कहानी कई बार कही गई है... मैंने अपनी स्मृति के सहारे लिखी है... इसलिए मुमकिन है कि कुछ विवरणों में गलती हो जाए... लेकिन कहानी तकरीबन यही है... दरअसल ये कहानी हमसे कुछ कहती है... सामूहिक झूठों, बहुमत की तानाशाही के बारे में... और ऐसा ही एक सामूहिक झूठ है टीआरपी...
आंकड़े बताते हैं कि ७ हजार करोड़ रुपये की टेलिविजन चैनल इंडस्ट्री हर साल 23 फीसदी की दर से बढ़ रही है... लेकिन इस चैनलों को चलाती है एक कंपनी टेलीविजन ऑडिएंस मेजरमेंट यानी टैम... और यही देती है हफ्तेवार टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट...
अब आप पूछ सकते हैं कि ऊपर की कहानी से टीआरपी का क्या ताल्लुक... मैं बताता हूं... जरा टीआरपी को उस कुएं की पानी की जगह रखकर देखिए, जिसे पीकर राजा और उसके मंत्री की जान बची थी... शायद आप समझ गए होंगे... जी हां, टीआरपी पीकर ही चैनलों की जान बचती है...
लेकिन इस कहानी को और समझने के लिए जरा गौर करें... टीआरपी तय होती है 14 राज्यों के ७३ शहरों में लगे पीपुलमीटरों से... कंपनी इनसे ७००० सैंपल इकट्ठा करती है... और हर हफ्ते चैनलों की रेटिंग बताती है... यानी ७००० लोगों की पसंद-नापसंद पर चल रही है ७००० करोड़ सालाना की इंडस्ट्री...
टैम के मुताबिक खबरों का बाजार दिल्ली और मुंबई हैं... इसलिए वहां हर घटना राष्ट्रीय झंडे के बाद फहरने वाली पहली चीज होती है... और बिहार की बाढ़ स्निपेट... यानी संक्षिप्त... (हां, अगर दिल्ली और मुंबई से कोई डिग्नीटेरी जा रहा हो, तो बात अलग है)
अब बात करते हैं विज्ञापनदाताओं की... यानी एड एजेंसियों की... आप पूछेंगे कि कहानी में ये कहां फिट बैठते हैं... ये वही जनता है जो राजा को मारने के लिए महल पर टूट पड़ी थी... जी हां, एड एजेंसियां टैम की हफ्तेवार रिपोर्ट पर ही चैनलों को सांस लेने की इजाजत देते हैं...यानी विज्ञापन तभी मिलेंगे जब टैम में आपका ग्राफ ऊपर चढ़ता दिखेगा...
आप पूछेंगे कि चैनल खुद अपना पीपुलमीटर क्यों नहीं लगा लेते... तो वो इसलिए क्योंकि इन कोशिशों को एड एजेंसियां तरजीह नहीं देतीं... वो इनकी विश्वसनीयता को मानेंगी ही नहीं... और उन्होंने कोई कोशिश भी नहीं की अभी तक... उनमें इतनी हिम्मत भी नहीं है... यानी राजा किसी भी हालत में बच नहीं सकता मरने से...
जान बचाने के लिए उसके सामने एक ही रास्ता बचा है... उसी कुएं का पानी पी ले, जिसे किले की बाकी जनता ने पिया है... इस पानी को पीकर ही वो बच सकता है... बेशक पागल हो जाए...
मैं जानता हूं कि आपके ढेरों सवाल हैं... कि आखिर मंत्री कौन है... मंत्री है चैनल का मैनेजमेंट और संपादक... जो साफ कहता है राजा आप पानी पी लें, वरना मौत तय है... क्योंकि जनता दरवाजे पर पहुंच चुकी है...
लेकिन सवाल है कि दर्शक कहां है कहानी में... अब आप ही बताएं कहां है वो... सभी सवालों का जवाब मैं ही क्यों दूं... आप सोचिए और बताइए... कहानी में दर्शक कहां है... है भी या नहीं... या कहानी कहते वक्त दर्शक नहीं हुआ करता था...
24/11/08
15/9/08
डिजेस्टर टूरिज्म का नाम सुना है?
जी हां, मैं पूछ रहा हूं कि डिजेस्टर टूरिज्म का नाम सुना है आपने... शायद न सुना हो तो बता देता हूं... वो टूरिज्म जो अभी बिल्कुल बाल अवस्था में है... टूरिज्म यानी पर्यटन की वो शाखा जिसमें आप किसी ऐसे स्थान पर जाते हैं... जहां लोग किसी भारी विपदा या प्राकृतिक आपदा से दो चार हों...
हाल ही में दिल्ली ब्लॉगर्स की एक पोस्ट को देखा तो लगा कि एक अनोखा ही ट्रैंड चल पड़ा है... अब लोग उन जगहों की यात्रा पर पर्यटन पर निकल रहे हैं... जहां लोग या तो प्राकृतिक आपदा से जूझ रहे हैं या फिर आदमी की खुद बनाई किसी मुसीबत से... इसी पोस्ट पर जिक्र था लखनऊ के पास एक जगह का जहां लोगों के घर पानी में डूब गए हैं... वहां लोग अपने परिवार सहित गाड़ियों में बैठकर पहुंच रहे हैं... ठेलेवाले आइसक्रीम और चाट के ठेले लगाकर खड़े हो गए हैं... माल बिक रहा है... ऐसे ही एक व्यक्ति राजीव से उस ब्लॉगर ने सवाल किया कि कैसे वहां आना हुआ? राजीव नाम के इस शख्स ने अपने बेटे को ठेलेवाले से एक आइसक्रीम लेकर बेटे को देते हुए कहा... मैं चाहता था कि मेरा बेटा भी देखे कि पानी में डूबे लोगों के घर क्या कैफियत पैदा करते हैं... और कैसे लोग उससे जूझते हैं... ये तो रही एक बात...
इसी कहानी को दूसरा विस्तार देना चाहूंगा... आज ही के टाइम्स ऑफ इंडिया में एक नीदरलैंड के जोड़े की खबर है... जो दिल्ली में गफ्फार मार्केट पहुंचा... आतंकी धमाकों के बाद... वो लोग आगरा से ये देखने आए हैं कि आखिर दिल्ली में उन जगहों पर क्या हुआ जहां बम फटे... कैसे दिल्ली इन धमाकों के दंश को झेल रही है... यानी पुलिस और पत्रकार के अलावा अब सरकार को उन लोगों का भी ध्यान रखना होगा जो त्रासदी के बाद इन जगहों के दौरे के लिए जाते हैं... महज उस रोमांच को महसूस करने जो दूसरे झेल रहे हैं... जिंदगी और मौत के संघर्ष को पास से देखने ताकि वो इनके प्रति असंवेदनशील हो सकें... अच्छी तरह... क्योंकि ये तो कहा नहीं जा सकता कि अगली बार आपका नंबर नहीं आ सकता...
हाल ही में दिल्ली ब्लॉगर्स की एक पोस्ट को देखा तो लगा कि एक अनोखा ही ट्रैंड चल पड़ा है... अब लोग उन जगहों की यात्रा पर पर्यटन पर निकल रहे हैं... जहां लोग या तो प्राकृतिक आपदा से जूझ रहे हैं या फिर आदमी की खुद बनाई किसी मुसीबत से... इसी पोस्ट पर जिक्र था लखनऊ के पास एक जगह का जहां लोगों के घर पानी में डूब गए हैं... वहां लोग अपने परिवार सहित गाड़ियों में बैठकर पहुंच रहे हैं... ठेलेवाले आइसक्रीम और चाट के ठेले लगाकर खड़े हो गए हैं... माल बिक रहा है... ऐसे ही एक व्यक्ति राजीव से उस ब्लॉगर ने सवाल किया कि कैसे वहां आना हुआ? राजीव नाम के इस शख्स ने अपने बेटे को ठेलेवाले से एक आइसक्रीम लेकर बेटे को देते हुए कहा... मैं चाहता था कि मेरा बेटा भी देखे कि पानी में डूबे लोगों के घर क्या कैफियत पैदा करते हैं... और कैसे लोग उससे जूझते हैं... ये तो रही एक बात...
इसी कहानी को दूसरा विस्तार देना चाहूंगा... आज ही के टाइम्स ऑफ इंडिया में एक नीदरलैंड के जोड़े की खबर है... जो दिल्ली में गफ्फार मार्केट पहुंचा... आतंकी धमाकों के बाद... वो लोग आगरा से ये देखने आए हैं कि आखिर दिल्ली में उन जगहों पर क्या हुआ जहां बम फटे... कैसे दिल्ली इन धमाकों के दंश को झेल रही है... यानी पुलिस और पत्रकार के अलावा अब सरकार को उन लोगों का भी ध्यान रखना होगा जो त्रासदी के बाद इन जगहों के दौरे के लिए जाते हैं... महज उस रोमांच को महसूस करने जो दूसरे झेल रहे हैं... जिंदगी और मौत के संघर्ष को पास से देखने ताकि वो इनके प्रति असंवेदनशील हो सकें... अच्छी तरह... क्योंकि ये तो कहा नहीं जा सकता कि अगली बार आपका नंबर नहीं आ सकता...
4/9/08
ब्लैकबेरी की औलादें!
कुछ जमीन की औलादें होती हैं तो कुछ अमीन की... कुछ फकीरी की औलादें होती हैं तो कुछ हकीरी की... इसी तरह होती हैं ब्लैकबेरी की औलादें... जन्मे और अजन्मे के बीच की रेखा जहां खत्म हो जाती है वहां पनपते हैं ये कुकुरमुत्ते... ये वो औलादें हैं जिन्हें मां के गर्भ से बाहर आने के बाद कोई झटका नहीं लगता... ये वो बच्चे हैं जो अब वयस्क नहीं होंगे... ये वो औलादें हैं जिन्हें बुजुर्ग ही पैदा होना था... एक संवाद सुनें... 'अरे यार पेपर खराब हो गया है, मैंने शायद कुछ गलत लिख दिया था... मुझे लग रहा था कि वो अब दोबारा देना पड़ेगा'... आप सोच सकते हैं कि शायद ये किसी बच्चे का अपने दोस्त से किया गया संवाद होगा... जी, ये संवाद तो था, लेकिन किससे पता नहीं... लेकिन इससे अलग कुछ बात कहना चाहूंगा...
रात को देर से एक सड़क के किनारे दोस्त के साथ खड़ा था कि एक तेजरफ्तार स्कूटी मेरे बगल में आकर रुकी... पीछे एक लड़की बैठी थी और एक लड़का स्कूटी चला रहा था... लड़की के हाथ कान पर एक मोबाइल थामे थे... लड़का स्कूटी चलाते हुए भी कान से मोबाइल दबाए आया था... जैसे ही स्कूटी रुकी लड़की छलांग मारकर नीचे उतरी और मार्केट की तरफ दौड़ गई... पीजा हट शॉप के लिए... लड़का जो बातचीत में मशगूल था, कान पर मोबाइल फोन लगाए उतनी ही तेजी के साथ उतरा... चाभी खींची और लड़की के पीछे भाग लिया... आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि दोनों की उम्र रही होगी करीब १२ साल... लेकिन उनके हावभाव ३२ साल के थे... आंखों से जमीन के किनारों को पढ़ने का भाव लिए कान पर मोबाइल थामे लड़का भी पीजा हट की तरफ चला गया...
अब अपने मंतव्य पर आता हूं... लड़के के कान पर जो फोन लगा था... वो था ब्लैकबेरी... शायद हमारी पीढ़ी के बहुत से लोगों ने नहीं देखा है... अप्रचलित है और ज्यादातर कॉर्पोरेट्स अपने कर्मचारियों को ट्रैक करने के लिए इस्तेमाल करते हैं... महंगा भी काफी है इसलिए हर भारतीय के बस की बात नहीं... जिस अंदाज से वो ब्लैकबेरी को इस्तेमाल कर रहा था, उससे लगा कि वो इस फोन को अच्छी तरह पहचानता है... क्योंकि उसके फीचर नोकिया जैसे जनपसंद वाले फीचर्स से कुछ भिन्न हैं... अगर वो स्कूल के दिनों में ब्लैकबेरी इस्तेमाल कर रहा है तो क्या हम नोकिया वालों को सावधान नहीं हो जाना चाहिए... अपने ' टैक-सेवी' होने के तमगे पर...
रात को देर से एक सड़क के किनारे दोस्त के साथ खड़ा था कि एक तेजरफ्तार स्कूटी मेरे बगल में आकर रुकी... पीछे एक लड़की बैठी थी और एक लड़का स्कूटी चला रहा था... लड़की के हाथ कान पर एक मोबाइल थामे थे... लड़का स्कूटी चलाते हुए भी कान से मोबाइल दबाए आया था... जैसे ही स्कूटी रुकी लड़की छलांग मारकर नीचे उतरी और मार्केट की तरफ दौड़ गई... पीजा हट शॉप के लिए... लड़का जो बातचीत में मशगूल था, कान पर मोबाइल फोन लगाए उतनी ही तेजी के साथ उतरा... चाभी खींची और लड़की के पीछे भाग लिया... आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि दोनों की उम्र रही होगी करीब १२ साल... लेकिन उनके हावभाव ३२ साल के थे... आंखों से जमीन के किनारों को पढ़ने का भाव लिए कान पर मोबाइल थामे लड़का भी पीजा हट की तरफ चला गया...
अब अपने मंतव्य पर आता हूं... लड़के के कान पर जो फोन लगा था... वो था ब्लैकबेरी... शायद हमारी पीढ़ी के बहुत से लोगों ने नहीं देखा है... अप्रचलित है और ज्यादातर कॉर्पोरेट्स अपने कर्मचारियों को ट्रैक करने के लिए इस्तेमाल करते हैं... महंगा भी काफी है इसलिए हर भारतीय के बस की बात नहीं... जिस अंदाज से वो ब्लैकबेरी को इस्तेमाल कर रहा था, उससे लगा कि वो इस फोन को अच्छी तरह पहचानता है... क्योंकि उसके फीचर नोकिया जैसे जनपसंद वाले फीचर्स से कुछ भिन्न हैं... अगर वो स्कूल के दिनों में ब्लैकबेरी इस्तेमाल कर रहा है तो क्या हम नोकिया वालों को सावधान नहीं हो जाना चाहिए... अपने ' टैक-सेवी' होने के तमगे पर...
3/9/08
भ्रष्टाचारी है जनता!
पत्रकारिता मेरा पेशा है, मेरा धर्म है... पत्रकारिता से मैं हूं... पत्रकारिता मेरी पहचान है... वो कार्ड नहीं जो मुझे मेरे ऑफिस से मिलता है गले में लटकाने को... बल्कि वो दिल और दिमाग जो मेरे अंदर धड़कते हैं... लेकिन मैं कभी भी सच के साथ नहीं बोलता... क्योंकि मैं पत्रकार हूं... मैं बोलता हूं लेकिन वो मेरा ही बनाया एक सच होता है... सच के खिलाफ एक सच... इसी की मुझसे दरकार है... यही मेरी कंपनी मुझसे चाहती है... और मैं वही उसे देता हूं... इसीलिए मेरी कंपनी में मेरी जरूरत है... और मुझे मेरी कंपनी की... जो मुझे तनख्वाह, परिचय, पहचान, इज्जत सब दिलाती है... उस जनता के बीच जिसके बारे में मैं लिखता हूं... तो ये मैं हूं...
लेकिन मैं अपने बारे में नहीं उस जनता के बारे में कुछ कहना चाहता हूं... जिसके बारे में मैं रोज लिखता हूं... उस जनता को नंगा करना चाहता हूं जिसे मैं अपने ऑफिस में बैठकर नहीं कर पाता... लेकिन ये मेरी जगह है, मेरा कोना है और मैं यहां खुलकर बोल सकता हूं... क्योंकि मैं एक पत्रकार हूं...
दरअसल जिस जनता के लिए हम रोज मरते-खटते हैं... जिस बहुसंख्यक 'लोकतांत्रिक' व्यवस्थावादी जनता के हक में लिखते हैं, वो इस काबिल ही नहीं कि उसकी लड़ाई लड़ी जाए... क्योंकि वो अपनी लड़ाई कभी खुद नहीं लड़ना चाहती... वो चाहती है कि उसकी लड़ाई या तो नेता लड़े या फिर पत्रकार... चूंकि सामान्य और ईमान वाले न रखने के होते हैं न उठाने के, इसलिए वो अपने बीच के सबसे भ्रष्ट लोगों को चुनकर भेजती है... जिन्हें हर तरह का खेल करके उनका काम कराना आता हो... ये काम कोई सार्वजनिक हित नहीं होते... पूर्णत: व्यक्तिगत होते हैं... ये भारतीय जनता है... भीरु और कायर... भ्रष्टाचार में गले तक डूबी हुई...
भारतीय जनता कभी विद्रोह नहीं करती... क्योंकि कोई भ्रष्टाचारी विद्रोह नहीं करता... कर ही नहीं सकता... उसके लिए रीढ़ की हड्डी का होना पहली शर्त है... इसलिए कोई सार्वजनिक काम नहीं होता... सभी सरकारी दफ्तरों में रोज के घंटे अगर गिन लिए जाएं तो व्यक्तिगत काम के लिए पहुंचने वालों की तादाद किसी सड़क, नल लगाने जैसे कामों के लिए पहुंचने वालों के मुकाबले ९८ फीसदी तक होगी... और ये ९८ फीसदी अपने कामों को भी सरकारी कर्मचारियों की जेब गर्म करके करा रहे होंगे...
बहुत कुछ कहा जा सकता है... लेकिन एक बात जरूर कहूंगा कि भ्रष्टाचार जैसी कोई चीज नहीं रह गई है अब... अब पूरा समाज ही भ्रष्टाचारी हो गया है... इसलिए भ्रष्टाचार हटाने के नारे भी अप्रासंगिक होकर मर चुके हैं... क्योंकि भ्रष्टाचार अब ऊपर से नहीं, नीचे से जाता है... क्योंकि भ्रष्ट जनता, भ्रष्ट नेता चुनती है... क्योंकि भ्रष्टतम वहीं हैं...
लेकिन मैं अपने बारे में नहीं उस जनता के बारे में कुछ कहना चाहता हूं... जिसके बारे में मैं रोज लिखता हूं... उस जनता को नंगा करना चाहता हूं जिसे मैं अपने ऑफिस में बैठकर नहीं कर पाता... लेकिन ये मेरी जगह है, मेरा कोना है और मैं यहां खुलकर बोल सकता हूं... क्योंकि मैं एक पत्रकार हूं...
दरअसल जिस जनता के लिए हम रोज मरते-खटते हैं... जिस बहुसंख्यक 'लोकतांत्रिक' व्यवस्थावादी जनता के हक में लिखते हैं, वो इस काबिल ही नहीं कि उसकी लड़ाई लड़ी जाए... क्योंकि वो अपनी लड़ाई कभी खुद नहीं लड़ना चाहती... वो चाहती है कि उसकी लड़ाई या तो नेता लड़े या फिर पत्रकार... चूंकि सामान्य और ईमान वाले न रखने के होते हैं न उठाने के, इसलिए वो अपने बीच के सबसे भ्रष्ट लोगों को चुनकर भेजती है... जिन्हें हर तरह का खेल करके उनका काम कराना आता हो... ये काम कोई सार्वजनिक हित नहीं होते... पूर्णत: व्यक्तिगत होते हैं... ये भारतीय जनता है... भीरु और कायर... भ्रष्टाचार में गले तक डूबी हुई...
भारतीय जनता कभी विद्रोह नहीं करती... क्योंकि कोई भ्रष्टाचारी विद्रोह नहीं करता... कर ही नहीं सकता... उसके लिए रीढ़ की हड्डी का होना पहली शर्त है... इसलिए कोई सार्वजनिक काम नहीं होता... सभी सरकारी दफ्तरों में रोज के घंटे अगर गिन लिए जाएं तो व्यक्तिगत काम के लिए पहुंचने वालों की तादाद किसी सड़क, नल लगाने जैसे कामों के लिए पहुंचने वालों के मुकाबले ९८ फीसदी तक होगी... और ये ९८ फीसदी अपने कामों को भी सरकारी कर्मचारियों की जेब गर्म करके करा रहे होंगे...
बहुत कुछ कहा जा सकता है... लेकिन एक बात जरूर कहूंगा कि भ्रष्टाचार जैसी कोई चीज नहीं रह गई है अब... अब पूरा समाज ही भ्रष्टाचारी हो गया है... इसलिए भ्रष्टाचार हटाने के नारे भी अप्रासंगिक होकर मर चुके हैं... क्योंकि भ्रष्टाचार अब ऊपर से नहीं, नीचे से जाता है... क्योंकि भ्रष्ट जनता, भ्रष्ट नेता चुनती है... क्योंकि भ्रष्टतम वहीं हैं...
22/6/08
जिंदगी के बारे में
अपने ही आसपास किसी का उठ जाना अजीब कैफियत पैदा कर जाता है... बेशक वो आपसे सीधे जुड़ा न रहा हो... पता नहीं क्यों लगता है कि कुछ हिस्सा टूट गया है... लेकिन वो उतना ही होता है, जितना आपने उसके साथ सांझा किया होता है... और यही लगता है... मुझे लगता है कि हम लोगों में अपना निवेश करते हैं... अपने पलों का, अपने जीवन के अच्छे-बुरे लम्हों का... और किसी के उठ जाने के बाद ये बात सालती है कि अब शायद उन सांझा किए गए पलों को फिर से जीवित नहीं किया जा सकेगा... ये तो वो चीज है जिसे हम अपने बेहद आसपास महसूस करते हैं... इसे आप कोई भी नाम न दें...
एक खबर तो अपने एक करीबी रिश्तेदार की मौत की... दूसरी मिली एक अमेरिकी प्रोफेसर की जो पैंक्रिएटिक कैंसर की वजह से कार्नेगी मैलन स्कूल में अपना आखिरी लैक्चर दे रहा है... बेहद गर्मजोश और जीवन से भरा... दोनों ही बातें छू गईं... एक प्रोफेसर जो जानता है कि अब शायद ज्यादा वक्त नहीं है उसके पास और उसके दो बच्चों में से एक को उसकी कोई याद नहीं होगी... कि उसका बाप कभी इस दुनिया में रहा करता था... ५ साल के अपने एक बेटे के साथ वो अपनी यादों को मजबूत करने में जुटा है... लेकिन उसका दूसरा बेटा जो अभी इतना छोटा है कि उसकी मां ही उसे बता सकेगी कि उसके पापा कैसे लगा करते थे... अजीबोगरीब अहसास है...
एक खबर तो अपने एक करीबी रिश्तेदार की मौत की... दूसरी मिली एक अमेरिकी प्रोफेसर की जो पैंक्रिएटिक कैंसर की वजह से कार्नेगी मैलन स्कूल में अपना आखिरी लैक्चर दे रहा है... बेहद गर्मजोश और जीवन से भरा... दोनों ही बातें छू गईं... एक प्रोफेसर जो जानता है कि अब शायद ज्यादा वक्त नहीं है उसके पास और उसके दो बच्चों में से एक को उसकी कोई याद नहीं होगी... कि उसका बाप कभी इस दुनिया में रहा करता था... ५ साल के अपने एक बेटे के साथ वो अपनी यादों को मजबूत करने में जुटा है... लेकिन उसका दूसरा बेटा जो अभी इतना छोटा है कि उसकी मां ही उसे बता सकेगी कि उसके पापा कैसे लगा करते थे... अजीबोगरीब अहसास है...
19/6/08
पहेली की आवाज
एनिग्मा, किसे पुकारेंगे आप... पहेली को... या किसी ऐसे पेचदार नमूने को...जिसे समझने में आप के दिमाग के तंतु जवाब दे जाते हैं... या फिर कोई ऐसी चीज जिसे महसूस करने लायक संवेदनशीलता आपके पास नहीं है... हां, मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है कि एनिग्मा एक गूढ़ रहस्य है... और रहस्य वही जो मेरी समझ से परे है... एनिग्मा सिरीज के गीत भी कुछ ऐसे ही हैं... एनिग्मा तभी खत्म हो जाता है, जब आप उसका ये रहस्य समझ जाते हैं... मुझे इस बार एनिग्मा के कुछ गीत सुनने को मिले..... इनमें कुछ बेहद गूढ़ लगे... यानी मेरी समझ से परे... कुछ ऐसे थे... जिन्हें कोई भी समझ सकता है... एनिग्मा गीतों की श्रंखला मुझे काफी पहले से ही पहेली की तरह लगती रही है... सो इस बार भी ऐसा ही हुआ...
इसी श्रेणी का एक गीत है 'वॉयस ऑफ एनिग्मा'.... यानी पहेली की आवाज... है न अजीब सा नाम और अजीब ही गीत है... मेरे ख्याल से एनिग्मा को सुनते वक्त आप अपने दिमाग को कहीं और रख दें... सिर्फ सुनें.... न, न, सोचें नहीं... बिल्कुल भी... तब शायद आप उस आवाज को पकड़ पाएं... पहेली की आवाज को.... हालांकि इसके फैन बहुत से हैं... कुछ ऐसे भी हैं, जो सिर्फ इसलिए फैन हो जाते हैं क्योंकि उसके बहुत से फैन होते हैं... लेकिन कुछ सच में फैन होते हैं...
इसी श्रेणी का एक गीत है 'वॉयस ऑफ एनिग्मा'.... यानी पहेली की आवाज... है न अजीब सा नाम और अजीब ही गीत है... मेरे ख्याल से एनिग्मा को सुनते वक्त आप अपने दिमाग को कहीं और रख दें... सिर्फ सुनें.... न, न, सोचें नहीं... बिल्कुल भी... तब शायद आप उस आवाज को पकड़ पाएं... पहेली की आवाज को.... हालांकि इसके फैन बहुत से हैं... कुछ ऐसे भी हैं, जो सिर्फ इसलिए फैन हो जाते हैं क्योंकि उसके बहुत से फैन होते हैं... लेकिन कुछ सच में फैन होते हैं...
15/6/08
प्रेम की जरूरत?
आखिर प्रेम करने की जरूरत क्या है... दरअसल जानवर तो प्रेम करते नहीं... अगर आदमी भी जानवरों के ही विकासक्रम से आया है तो ये दिमाग का फितूर ही कहा जाएगा... वो दिमाग जो जानवरों के पास नहीं है... हम किसी न किसी वजह से जीना चाहते हैं... क्यों नहीं बेवजह जी पाते...क्यों नहीं हम सामान्य होकर जी पाते... जानवरों की तरह भोले, एकदम निरीह होकर... अगर आप ये कहते हैं कि आदमी के लिए निरीह होकर जीने के खतरे बहुत हैं तो जानवरों की दुनिया में भी कम नहीं... वहां मेरे ख्याल से ज्यादा खतरे हैं... इसलिए अगर हम जी रहे हैं तो हमें खतरों से खेलना आना चाहिए... और अगर हमारे पास दिमाग है तो हमें इसे सिर्फ खतरों से खेलने पर ही लगाना चाहिए... हमारी असुरक्षा को कॉम्बैट करने में खर्च होनी चाहिए हमारी बुद्धि... न कि प्रेम जैसी कृत्रिम चीजों में...
प्रेम करना बेहद कृत्रिम लगता है मुझे... क्योंकि ये भाव प्रकृति प्रदत्त नहीं है... ये हमें नैसर्गिक तौर पर नहीं मिला है... ये ओढ़ी हुई चादर है... अति उन्नत खुराफाती दिमागों की उपज... प्रेम को उपजाने में बेवजह शक्तियों का नाश हो रहा है... जिन्हें हम अपने जीवन को उन्नत बनाने में लगा सकते थे...
प्रेम करना बेहद कृत्रिम लगता है मुझे... क्योंकि ये भाव प्रकृति प्रदत्त नहीं है... ये हमें नैसर्गिक तौर पर नहीं मिला है... ये ओढ़ी हुई चादर है... अति उन्नत खुराफाती दिमागों की उपज... प्रेम को उपजाने में बेवजह शक्तियों का नाश हो रहा है... जिन्हें हम अपने जीवन को उन्नत बनाने में लगा सकते थे...
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