कुछ जमीन की औलादें होती हैं तो कुछ अमीन की... कुछ फकीरी की औलादें होती हैं तो कुछ हकीरी की... इसी तरह होती हैं ब्लैकबेरी की औलादें... जन्मे और अजन्मे के बीच की रेखा जहां खत्म हो जाती है वहां पनपते हैं ये कुकुरमुत्ते... ये वो औलादें हैं जिन्हें मां के गर्भ से बाहर आने के बाद कोई झटका नहीं लगता... ये वो बच्चे हैं जो अब वयस्क नहीं होंगे... ये वो औलादें हैं जिन्हें बुजुर्ग ही पैदा होना था... एक संवाद सुनें... 'अरे यार पेपर खराब हो गया है, मैंने शायद कुछ गलत लिख दिया था... मुझे लग रहा था कि वो अब दोबारा देना पड़ेगा'... आप सोच सकते हैं कि शायद ये किसी बच्चे का अपने दोस्त से किया गया संवाद होगा... जी, ये संवाद तो था, लेकिन किससे पता नहीं... लेकिन इससे अलग कुछ बात कहना चाहूंगा...
रात को देर से एक सड़क के किनारे दोस्त के साथ खड़ा था कि एक तेजरफ्तार स्कूटी मेरे बगल में आकर रुकी... पीछे एक लड़की बैठी थी और एक लड़का स्कूटी चला रहा था... लड़की के हाथ कान पर एक मोबाइल थामे थे... लड़का स्कूटी चलाते हुए भी कान से मोबाइल दबाए आया था... जैसे ही स्कूटी रुकी लड़की छलांग मारकर नीचे उतरी और मार्केट की तरफ दौड़ गई... पीजा हट शॉप के लिए... लड़का जो बातचीत में मशगूल था, कान पर मोबाइल फोन लगाए उतनी ही तेजी के साथ उतरा... चाभी खींची और लड़की के पीछे भाग लिया... आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि दोनों की उम्र रही होगी करीब १२ साल... लेकिन उनके हावभाव ३२ साल के थे... आंखों से जमीन के किनारों को पढ़ने का भाव लिए कान पर मोबाइल थामे लड़का भी पीजा हट की तरफ चला गया...
अब अपने मंतव्य पर आता हूं... लड़के के कान पर जो फोन लगा था... वो था ब्लैकबेरी... शायद हमारी पीढ़ी के बहुत से लोगों ने नहीं देखा है... अप्रचलित है और ज्यादातर कॉर्पोरेट्स अपने कर्मचारियों को ट्रैक करने के लिए इस्तेमाल करते हैं... महंगा भी काफी है इसलिए हर भारतीय के बस की बात नहीं... जिस अंदाज से वो ब्लैकबेरी को इस्तेमाल कर रहा था, उससे लगा कि वो इस फोन को अच्छी तरह पहचानता है... क्योंकि उसके फीचर नोकिया जैसे जनपसंद वाले फीचर्स से कुछ भिन्न हैं... अगर वो स्कूल के दिनों में ब्लैकबेरी इस्तेमाल कर रहा है तो क्या हम नोकिया वालों को सावधान नहीं हो जाना चाहिए... अपने ' टैक-सेवी' होने के तमगे पर...
4/9/08
3/9/08
भ्रष्टाचारी है जनता!
पत्रकारिता मेरा पेशा है, मेरा धर्म है... पत्रकारिता से मैं हूं... पत्रकारिता मेरी पहचान है... वो कार्ड नहीं जो मुझे मेरे ऑफिस से मिलता है गले में लटकाने को... बल्कि वो दिल और दिमाग जो मेरे अंदर धड़कते हैं... लेकिन मैं कभी भी सच के साथ नहीं बोलता... क्योंकि मैं पत्रकार हूं... मैं बोलता हूं लेकिन वो मेरा ही बनाया एक सच होता है... सच के खिलाफ एक सच... इसी की मुझसे दरकार है... यही मेरी कंपनी मुझसे चाहती है... और मैं वही उसे देता हूं... इसीलिए मेरी कंपनी में मेरी जरूरत है... और मुझे मेरी कंपनी की... जो मुझे तनख्वाह, परिचय, पहचान, इज्जत सब दिलाती है... उस जनता के बीच जिसके बारे में मैं लिखता हूं... तो ये मैं हूं...
लेकिन मैं अपने बारे में नहीं उस जनता के बारे में कुछ कहना चाहता हूं... जिसके बारे में मैं रोज लिखता हूं... उस जनता को नंगा करना चाहता हूं जिसे मैं अपने ऑफिस में बैठकर नहीं कर पाता... लेकिन ये मेरी जगह है, मेरा कोना है और मैं यहां खुलकर बोल सकता हूं... क्योंकि मैं एक पत्रकार हूं...
दरअसल जिस जनता के लिए हम रोज मरते-खटते हैं... जिस बहुसंख्यक 'लोकतांत्रिक' व्यवस्थावादी जनता के हक में लिखते हैं, वो इस काबिल ही नहीं कि उसकी लड़ाई लड़ी जाए... क्योंकि वो अपनी लड़ाई कभी खुद नहीं लड़ना चाहती... वो चाहती है कि उसकी लड़ाई या तो नेता लड़े या फिर पत्रकार... चूंकि सामान्य और ईमान वाले न रखने के होते हैं न उठाने के, इसलिए वो अपने बीच के सबसे भ्रष्ट लोगों को चुनकर भेजती है... जिन्हें हर तरह का खेल करके उनका काम कराना आता हो... ये काम कोई सार्वजनिक हित नहीं होते... पूर्णत: व्यक्तिगत होते हैं... ये भारतीय जनता है... भीरु और कायर... भ्रष्टाचार में गले तक डूबी हुई...
भारतीय जनता कभी विद्रोह नहीं करती... क्योंकि कोई भ्रष्टाचारी विद्रोह नहीं करता... कर ही नहीं सकता... उसके लिए रीढ़ की हड्डी का होना पहली शर्त है... इसलिए कोई सार्वजनिक काम नहीं होता... सभी सरकारी दफ्तरों में रोज के घंटे अगर गिन लिए जाएं तो व्यक्तिगत काम के लिए पहुंचने वालों की तादाद किसी सड़क, नल लगाने जैसे कामों के लिए पहुंचने वालों के मुकाबले ९८ फीसदी तक होगी... और ये ९८ फीसदी अपने कामों को भी सरकारी कर्मचारियों की जेब गर्म करके करा रहे होंगे...
बहुत कुछ कहा जा सकता है... लेकिन एक बात जरूर कहूंगा कि भ्रष्टाचार जैसी कोई चीज नहीं रह गई है अब... अब पूरा समाज ही भ्रष्टाचारी हो गया है... इसलिए भ्रष्टाचार हटाने के नारे भी अप्रासंगिक होकर मर चुके हैं... क्योंकि भ्रष्टाचार अब ऊपर से नहीं, नीचे से जाता है... क्योंकि भ्रष्ट जनता, भ्रष्ट नेता चुनती है... क्योंकि भ्रष्टतम वहीं हैं...
लेकिन मैं अपने बारे में नहीं उस जनता के बारे में कुछ कहना चाहता हूं... जिसके बारे में मैं रोज लिखता हूं... उस जनता को नंगा करना चाहता हूं जिसे मैं अपने ऑफिस में बैठकर नहीं कर पाता... लेकिन ये मेरी जगह है, मेरा कोना है और मैं यहां खुलकर बोल सकता हूं... क्योंकि मैं एक पत्रकार हूं...
दरअसल जिस जनता के लिए हम रोज मरते-खटते हैं... जिस बहुसंख्यक 'लोकतांत्रिक' व्यवस्थावादी जनता के हक में लिखते हैं, वो इस काबिल ही नहीं कि उसकी लड़ाई लड़ी जाए... क्योंकि वो अपनी लड़ाई कभी खुद नहीं लड़ना चाहती... वो चाहती है कि उसकी लड़ाई या तो नेता लड़े या फिर पत्रकार... चूंकि सामान्य और ईमान वाले न रखने के होते हैं न उठाने के, इसलिए वो अपने बीच के सबसे भ्रष्ट लोगों को चुनकर भेजती है... जिन्हें हर तरह का खेल करके उनका काम कराना आता हो... ये काम कोई सार्वजनिक हित नहीं होते... पूर्णत: व्यक्तिगत होते हैं... ये भारतीय जनता है... भीरु और कायर... भ्रष्टाचार में गले तक डूबी हुई...
भारतीय जनता कभी विद्रोह नहीं करती... क्योंकि कोई भ्रष्टाचारी विद्रोह नहीं करता... कर ही नहीं सकता... उसके लिए रीढ़ की हड्डी का होना पहली शर्त है... इसलिए कोई सार्वजनिक काम नहीं होता... सभी सरकारी दफ्तरों में रोज के घंटे अगर गिन लिए जाएं तो व्यक्तिगत काम के लिए पहुंचने वालों की तादाद किसी सड़क, नल लगाने जैसे कामों के लिए पहुंचने वालों के मुकाबले ९८ फीसदी तक होगी... और ये ९८ फीसदी अपने कामों को भी सरकारी कर्मचारियों की जेब गर्म करके करा रहे होंगे...
बहुत कुछ कहा जा सकता है... लेकिन एक बात जरूर कहूंगा कि भ्रष्टाचार जैसी कोई चीज नहीं रह गई है अब... अब पूरा समाज ही भ्रष्टाचारी हो गया है... इसलिए भ्रष्टाचार हटाने के नारे भी अप्रासंगिक होकर मर चुके हैं... क्योंकि भ्रष्टाचार अब ऊपर से नहीं, नीचे से जाता है... क्योंकि भ्रष्ट जनता, भ्रष्ट नेता चुनती है... क्योंकि भ्रष्टतम वहीं हैं...
22/6/08
जिंदगी के बारे में
अपने ही आसपास किसी का उठ जाना अजीब कैफियत पैदा कर जाता है... बेशक वो आपसे सीधे जुड़ा न रहा हो... पता नहीं क्यों लगता है कि कुछ हिस्सा टूट गया है... लेकिन वो उतना ही होता है, जितना आपने उसके साथ सांझा किया होता है... और यही लगता है... मुझे लगता है कि हम लोगों में अपना निवेश करते हैं... अपने पलों का, अपने जीवन के अच्छे-बुरे लम्हों का... और किसी के उठ जाने के बाद ये बात सालती है कि अब शायद उन सांझा किए गए पलों को फिर से जीवित नहीं किया जा सकेगा... ये तो वो चीज है जिसे हम अपने बेहद आसपास महसूस करते हैं... इसे आप कोई भी नाम न दें...
एक खबर तो अपने एक करीबी रिश्तेदार की मौत की... दूसरी मिली एक अमेरिकी प्रोफेसर की जो पैंक्रिएटिक कैंसर की वजह से कार्नेगी मैलन स्कूल में अपना आखिरी लैक्चर दे रहा है... बेहद गर्मजोश और जीवन से भरा... दोनों ही बातें छू गईं... एक प्रोफेसर जो जानता है कि अब शायद ज्यादा वक्त नहीं है उसके पास और उसके दो बच्चों में से एक को उसकी कोई याद नहीं होगी... कि उसका बाप कभी इस दुनिया में रहा करता था... ५ साल के अपने एक बेटे के साथ वो अपनी यादों को मजबूत करने में जुटा है... लेकिन उसका दूसरा बेटा जो अभी इतना छोटा है कि उसकी मां ही उसे बता सकेगी कि उसके पापा कैसे लगा करते थे... अजीबोगरीब अहसास है...
एक खबर तो अपने एक करीबी रिश्तेदार की मौत की... दूसरी मिली एक अमेरिकी प्रोफेसर की जो पैंक्रिएटिक कैंसर की वजह से कार्नेगी मैलन स्कूल में अपना आखिरी लैक्चर दे रहा है... बेहद गर्मजोश और जीवन से भरा... दोनों ही बातें छू गईं... एक प्रोफेसर जो जानता है कि अब शायद ज्यादा वक्त नहीं है उसके पास और उसके दो बच्चों में से एक को उसकी कोई याद नहीं होगी... कि उसका बाप कभी इस दुनिया में रहा करता था... ५ साल के अपने एक बेटे के साथ वो अपनी यादों को मजबूत करने में जुटा है... लेकिन उसका दूसरा बेटा जो अभी इतना छोटा है कि उसकी मां ही उसे बता सकेगी कि उसके पापा कैसे लगा करते थे... अजीबोगरीब अहसास है...
19/6/08
पहेली की आवाज
एनिग्मा, किसे पुकारेंगे आप... पहेली को... या किसी ऐसे पेचदार नमूने को...जिसे समझने में आप के दिमाग के तंतु जवाब दे जाते हैं... या फिर कोई ऐसी चीज जिसे महसूस करने लायक संवेदनशीलता आपके पास नहीं है... हां, मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है कि एनिग्मा एक गूढ़ रहस्य है... और रहस्य वही जो मेरी समझ से परे है... एनिग्मा सिरीज के गीत भी कुछ ऐसे ही हैं... एनिग्मा तभी खत्म हो जाता है, जब आप उसका ये रहस्य समझ जाते हैं... मुझे इस बार एनिग्मा के कुछ गीत सुनने को मिले..... इनमें कुछ बेहद गूढ़ लगे... यानी मेरी समझ से परे... कुछ ऐसे थे... जिन्हें कोई भी समझ सकता है... एनिग्मा गीतों की श्रंखला मुझे काफी पहले से ही पहेली की तरह लगती रही है... सो इस बार भी ऐसा ही हुआ...
इसी श्रेणी का एक गीत है 'वॉयस ऑफ एनिग्मा'.... यानी पहेली की आवाज... है न अजीब सा नाम और अजीब ही गीत है... मेरे ख्याल से एनिग्मा को सुनते वक्त आप अपने दिमाग को कहीं और रख दें... सिर्फ सुनें.... न, न, सोचें नहीं... बिल्कुल भी... तब शायद आप उस आवाज को पकड़ पाएं... पहेली की आवाज को.... हालांकि इसके फैन बहुत से हैं... कुछ ऐसे भी हैं, जो सिर्फ इसलिए फैन हो जाते हैं क्योंकि उसके बहुत से फैन होते हैं... लेकिन कुछ सच में फैन होते हैं...
इसी श्रेणी का एक गीत है 'वॉयस ऑफ एनिग्मा'.... यानी पहेली की आवाज... है न अजीब सा नाम और अजीब ही गीत है... मेरे ख्याल से एनिग्मा को सुनते वक्त आप अपने दिमाग को कहीं और रख दें... सिर्फ सुनें.... न, न, सोचें नहीं... बिल्कुल भी... तब शायद आप उस आवाज को पकड़ पाएं... पहेली की आवाज को.... हालांकि इसके फैन बहुत से हैं... कुछ ऐसे भी हैं, जो सिर्फ इसलिए फैन हो जाते हैं क्योंकि उसके बहुत से फैन होते हैं... लेकिन कुछ सच में फैन होते हैं...
15/6/08
प्रेम की जरूरत?
आखिर प्रेम करने की जरूरत क्या है... दरअसल जानवर तो प्रेम करते नहीं... अगर आदमी भी जानवरों के ही विकासक्रम से आया है तो ये दिमाग का फितूर ही कहा जाएगा... वो दिमाग जो जानवरों के पास नहीं है... हम किसी न किसी वजह से जीना चाहते हैं... क्यों नहीं बेवजह जी पाते...क्यों नहीं हम सामान्य होकर जी पाते... जानवरों की तरह भोले, एकदम निरीह होकर... अगर आप ये कहते हैं कि आदमी के लिए निरीह होकर जीने के खतरे बहुत हैं तो जानवरों की दुनिया में भी कम नहीं... वहां मेरे ख्याल से ज्यादा खतरे हैं... इसलिए अगर हम जी रहे हैं तो हमें खतरों से खेलना आना चाहिए... और अगर हमारे पास दिमाग है तो हमें इसे सिर्फ खतरों से खेलने पर ही लगाना चाहिए... हमारी असुरक्षा को कॉम्बैट करने में खर्च होनी चाहिए हमारी बुद्धि... न कि प्रेम जैसी कृत्रिम चीजों में...
प्रेम करना बेहद कृत्रिम लगता है मुझे... क्योंकि ये भाव प्रकृति प्रदत्त नहीं है... ये हमें नैसर्गिक तौर पर नहीं मिला है... ये ओढ़ी हुई चादर है... अति उन्नत खुराफाती दिमागों की उपज... प्रेम को उपजाने में बेवजह शक्तियों का नाश हो रहा है... जिन्हें हम अपने जीवन को उन्नत बनाने में लगा सकते थे...
प्रेम करना बेहद कृत्रिम लगता है मुझे... क्योंकि ये भाव प्रकृति प्रदत्त नहीं है... ये हमें नैसर्गिक तौर पर नहीं मिला है... ये ओढ़ी हुई चादर है... अति उन्नत खुराफाती दिमागों की उपज... प्रेम को उपजाने में बेवजह शक्तियों का नाश हो रहा है... जिन्हें हम अपने जीवन को उन्नत बनाने में लगा सकते थे...
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नदी
क्या नदी बहती है या समय का है प्रवाह हममें से होकर या नदी स्थिर है पर हमारा मन खिसक रहा है क्या नदी और समय वहीं हैं उस क्षैतिज रेखा पर...
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(यह कहानी मुझे www.yourtango.com पर मिली.. लेखिका हैं एमिली रोजेन..मेरा इसमें कुछ नहीं..सिर्फ अनुवाद) मैं उसके ऑफिस में थी, अपने घुटनों पर...
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ओमकारा की दूर की रिश्तेदार इश्किया आपको याद रहेगी पर फिल्म के बतौर नहीं, कुछ सीनों में, गुलजार के लिखे एक गाने में। यकीनन अभिषेक चौबे के लि...