धारावी तो कुनैन है!

हॉलीवुड ने भारत की गंदगी को रेड कार्पेट पर ले जाकर सम्मानित कर दिया है... जो गंदगी हमें कालीन के नीचे रखनी मंजूर थी, हॉलीवुड ने उसने उघाड़कर दुनिया के सामने खड़ा कर दिया है...स्लमडॉग मिलियॉनेयर को 8 एकेडमी अवार्ड से नवाजा जाना उस सच का सम्मान लगता है, जिसे हम कबूलने से साफ इनकार करते हैं... अगर इसे बदजुबानी न माना जाए तो शायद हमारे किसी फिल्मकार में अभी भी ये दम नहीं कि वो विश्वमंच पर ऐसा सिनेमाई यथार्थ उतारने की हिम्मत रखता हो...
स्लमडॉग को लेकर राष्ट्वादी भारतीयों की आवाजें आईं थीं कि ये गंदगी को सिर पर रखने जैसा है... लेकिन डायरेक्टर डैनी बॉयल को इसकी परवाह नहीं थी...उनकी प्रतिबद्धता सिर्फ कला के प्रति थी और उन्होंने वही किया भी...लेकिन भारत में इस फिल्म को लेकर जो होहल्ला मचा था, जो विरोध हुआ उस पर आप क्या कहेंगे... मेरे ख्याल में स्लमडॉग को गंदगी का पोर्न सिनेमा कहने वालों के लिए ये वैसा ही था जैसे किसी अतिथि ने आपको आपके टॉयलेट में बैठे देख लिेया हो...

घोर गरीबी में कुलबुलाते धारावी को भी उसी हिंदुस्तान ने खड़ा किया है जो इसका विरोध करता है... वो आर्थिक ऊंचाइयां छूते इसी भारत का बाय प्रोडक्ट है... लेकिन आसमान से बातें करता कामयाब हिंदुस्तान दुनिया के सामने इस सच को नहीं लाना चाहता... लेकिन इससे धारावी और ऐसे दूसरे स्लम का अस्तित्व खत्म नहीं हो जाएगा... वो रहेंगे और आपकी कामयाबी को मुंह चिढ़ाते रहेंगे... 

स्लमडॉग मिलियॉनेयर ने मुंबई जैसे लाजवाब शहर की जीवंतता और कामयाबी के शिखर चूमते शहर के दो बड़े सच सामने रखे हैं... एक सच है ताकत और शोहरत की दौड़ में जुटे शहर का तो दूसरी तरफ है अपनी जिंदगी से जद्दोजहद करते शहर का... स्लम में जवान होता नायक खुद कामयाब होने का सपना देख रहा है...चाहे वो अपनी महबूब को पाने की हो या फिर कौन बनेगा करोड़पति के जरिए नई जिंदगी की शुरुआत की...

डैनी बॉयल की फिल्म किसी कल्पना या हीरोइज्म का सहारा नहीं लेती... जैसा कि आप दूसरी स्लम आधारित फिल्मों में देखते आए हैं... चाहे वो पुलिस बर्बरता हो, झुग्गीबस्ती में गुजर-बसर कर रहे लोगों की दयनीय हालत हो, धर्मों के नाम पर होने वाले दंगे हों, भीख मंगवाने के लिए बच्चों का अपहरण हो... आप हर चीज पर सौ फीसदी यकीन कर सकते हैं... कहानी में कुछ मोड़ जरूर हैं, जो शायद हर किसी की जिंदगी में नहीं आते... लेकिन जिंदगी फिल्म का प्लॉट भी तो तभी बन सकती है, जब फिल्मकार इस जिंदगी में कुछ अनयूजुअल, अनोखा ढूंढ निकाले... यही इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत भी है...

हां, डैनी बॉयल ने भारत में फिल्म बनाते वक्त एक बात का पूरा ख्याल रखा... भारतीय प्रतीकों का... उन्होंने जहां जरूरी समझा उन्हें इस्तेमाल कर लिया... चाहे वो प्यार की मिसाल ताजमहल हो या बदलती महानगरीय जिंदगी की पहचान कॉल सेंटर हों...हो सकता है कि आप कहें कि उन्होंने विदेशों में भारत की तस्वीरों में सबसे ज्यादा दिखने वाले सपेरों का इस्तेमाल कहीं नहीं किया है... जाहिर है भारत से पूरी तरह नावाकिफ डैनी बॉयल को ज्यादातर भारतीय प्रतीक अपने पूर्ववर्ती फिरंगियों से ही लेने पड़े... वरना इतनी जल्द इस देश की मिट्टी को समझ पाना आसान भी तो नहीं था...और इसके बावजूद उन्होंने अपनी फिल्म में संतुलन नहीं खोया...
 
शायद भारत में हायतोबा की एक वजह ये भी रही कि स्लमडॉग मिलियॉनेयर ने भारतीय मध्यवर्ग की अनदेखी की है... इसने तरक्की करते भारत के उस हिस्से को सामने रखा है, जिसके एक पैर में गैंग्रीन हो चुका है...जमाने के साथ कदमताल की कोशिश कर रहे तरक्कीपसंद हिंदुस्तान को अपने पैर में हुए इस गैंग्रीन की परवाह नहीं है... 
ये वो चीज है जो हम ज्यादातर मध्यवर्गीय भारतीयों के गले नहीं उतरती...हम सपनों में रहने वाले, सपने देखने वाले लोग हैं...पिछले सौ साल से पर्दे पर हमें प्यार-मोहब्बत की कहानियां ही अच्छी लगती रही हैं... धारावी के शहर के फिल्मकारों ने भी हमें कमोबेश यही दिया है... और धारावी तो कुनैन है... 

टिप्पणियाँ

सचमुच सच। यही हकीकत है। हालांिक अभी बहुत कुछ खलना बाकी है।
Pankaj Sharma ने कहा…
very good Bhai. Keep posting such nice reviews.

a balance view.


Looking forward for more such blogs.
Pramit Singh ने कहा…
A nice and honest review. We sure need some more voices like yours in this sad country of ours.

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