फिल्म है या ये ढोलक है..
ओमकारा की दूर की रिश्तेदार इश्किया आपको याद रहेगी पर फिल्म के बतौर नहीं, कुछ सीनों में, गुलजार के लिखे एक गाने में। यकीनन अभिषेक चौबे के लिए अपने गुरु विशाल भारद्वाज के सामने उत्तर प्रदेश की सैटिंग्स वाले इलाके को बैकग्राउंड बनाना चुनौती रही होगी। अभिषेक ने एक तेज रफ्तार के लाइट कॉमेडी थ्रिलर के साथ फिल्म इंडस्ट्री में कदम तो रखा, मगर विशाल की ओमकारा का नया अवतार पैदा करने में नाकामयाब रहे।
इश्किया में फिल्मी ड्रामा है, पर अर्थहीन, जिसका न कोई ओर है और न छोर। चुटीले संवाद हैं, मगर इन संवादों को पृष्ठभूमि का सपोर्ट हासिल नहीं है। तेज रफ्तार घटनाएं एक के बाद एक आपकी आंखों के सामने से गुजरती दिखती हैं, लेकिन आपको पकड़ती नहीं। हर घटना एक कहानी कहती लगती है, मगर पूरी फिल्म खुद में कोई मुकम्मल कहानी नहीं कहती। हां, अगर अब किसी फिल्म में कहानी की जरूरत नहीं तो फिर इसे आप दूसरे नजरिए से देख सकते हैं।
इश्किया की कोई मंजिल नहीं, उसी तरह जैसे फिल्म की हीरोइन विद्या बालन की पूरी फिल्म में कोई मंजिल नहीं। दरअसल, फिल्म का कोई किरदार अपने सफर पर भी नहीं दिखता यानी वह पूरी तरह विकसित नहीं हो पाता। लगता है कि फिल्म विद्या बालन के ग्लैमर को स्थापित करने और उनकी परिणीता इमेज को तोड़ने के लिए तैयार की गई है। डायरेक्टर ने विद्या की खूबसूरती फिल्माने के लिए कैमरे को जितनी जुंबिश दी है, उससे कृष्णा का चरित्र कतई छाप नहीं छोड़ पाता। न तो वह गॉड मदर बन पाईं और न विद्याधर वर्मा की बीवी कृष्णा। कृष्णा सिर्फ आवेगों के आधार पर काम कर रही है। उसकी मन:स्थिति क्या है और वह असल में क्या चाहती है, इसका आप आखिर तक पता नहीं लगा सकेंगे। एक अधूरा किरदार।
फिल्म का कोई नायक नहीं है। खैर, जरूरी नहीं कि फिल्म में नायक हो ही। मगर इसकी जरूरत वहां जरूर दिखती है जहां नायिका भी न हो। नसीर और अरशद वारसी के जो किरदार हैं, वह नायक की जरूरत पूरी करने को नहीं रखे गए हैं, हालांकि हैं काफी सशक्त। नसीर को जो किरदार मिला है, वह उसे बेहद कम वक्त में भी खोलकर रखने में कामयाब रहे हैं लेकिन अरशद का किरदार कहीं भी पूरी तरह विकसित नहीं हो सका। हालांकि अरशद को जो समय मिला, उसमें उन्होंने इसकी भरसक कोशिश की।
फिल्म आपको किसी भी किरदार का अतीत जानने का मौका नहीं देगी। इन चरित्रों के बारे में आप उतना ही जानते हैं जितना खुद फिल्म का स्क्रिप्टराइटर। ये सभी किरदार क्यों हैं और क्यों वही सब करते दिखाए गए हैं, इसका मतलब ढूंढने की कतई कोशिश न करें। वो बस हैं, क्योंकि उन्हें इस फिल्म के उन कुछ खास प्लॉट्स में होना ही था। हालांकि इस बात को इश्किया के चाहने वाले कुछ यूं पेश करते हैं कि जितना करेक्टर को खोलने की जरूरत है, उतना ही उसे दिखाया किया गया है। बेवजह उसके इतिहास-भूगोल की पड़ताल नहीं की गई है। तो क्या किसी खास चरित्र के होने के लिए किसी रेफरेंस की जरूरत भी नहीं। हो सकता है कि अभिषेक चौबे मंडली को इसकी जरूरत न महसूस हुई हो।
फिल्म में न तो उत्तर प्रदेश का गोरखपुर इलाका इस्टेब्लिश होता है, न सेनाएं बनाने की वजह, न हथियारों की सप्लाई के पीछे कारण पता चलते हैं। भोपाली-गोरखपुरी अंदाज के संवाद डालकर पूर्वी उत्तर प्रदेश को छूने की कोशिश जरूर की गई है।
डायरेक्टर अभिषेक चौबे ने अपनी डायरेक्टोरियल पारी की शुरुआत के लिए एक मजबूत फिल्म चुनी, पर अपने तमाम इंटेलेक्चुअलिज्म में फिल्म ही मिस हो गई। उनके पास कथ्य तो था पर कथानक नहीं, मध्य है लेकिन कोई सुनिश्चित अंत नहीं। हॉलीवुड फिल्मों के अनप्रिडेक्टेबल सीक्वेंस को ओढ़ने का प्रयास भी आपको दिखेगा। मगर पूरी फिल्म अपने दर्शकों से क्या कहना चाहती है, उन्हें कहां ले जाना चाहती है, समझना कुछ मुश्किल होगा। सीन तेजी से उलटते-पलटते हैं, इसलिए उनमें रफ्तार तो है लेकिन उनका मकसद दर्शकों को चौंकाना भर है। इसलिए फिल्म एक किस्म की असंतुष्टि का अहसास कराती है अंत में। हां, तकनीकी तौर पर फिल्म काफी मजबूत है। कैमरा ऐंगिल्स की आपको तारीफ करनी पड़ेगी।
इश्किया को देखें तो एक बात जरूर महसूस होगी, अगर आप सिर्फ तमाशा देखने गए हैं तो समझिए पैसे वसूल। रफ्तार, सुंदर कैमरा, अरशद-विद्या लवमेकिंग सीन, दो अच्छे गाने..ये सारी चीजें वहां हैं। बस नहीं है तो वजह कि ये फिल्म बनाई क्यों गई (इसका जवाब आपको खुद पाना है)।
इश्किया में फिल्मी ड्रामा है, पर अर्थहीन, जिसका न कोई ओर है और न छोर। चुटीले संवाद हैं, मगर इन संवादों को पृष्ठभूमि का सपोर्ट हासिल नहीं है। तेज रफ्तार घटनाएं एक के बाद एक आपकी आंखों के सामने से गुजरती दिखती हैं, लेकिन आपको पकड़ती नहीं। हर घटना एक कहानी कहती लगती है, मगर पूरी फिल्म खुद में कोई मुकम्मल कहानी नहीं कहती। हां, अगर अब किसी फिल्म में कहानी की जरूरत नहीं तो फिर इसे आप दूसरे नजरिए से देख सकते हैं।
इश्किया की कोई मंजिल नहीं, उसी तरह जैसे फिल्म की हीरोइन विद्या बालन की पूरी फिल्म में कोई मंजिल नहीं। दरअसल, फिल्म का कोई किरदार अपने सफर पर भी नहीं दिखता यानी वह पूरी तरह विकसित नहीं हो पाता। लगता है कि फिल्म विद्या बालन के ग्लैमर को स्थापित करने और उनकी परिणीता इमेज को तोड़ने के लिए तैयार की गई है। डायरेक्टर ने विद्या की खूबसूरती फिल्माने के लिए कैमरे को जितनी जुंबिश दी है, उससे कृष्णा का चरित्र कतई छाप नहीं छोड़ पाता। न तो वह गॉड मदर बन पाईं और न विद्याधर वर्मा की बीवी कृष्णा। कृष्णा सिर्फ आवेगों के आधार पर काम कर रही है। उसकी मन:स्थिति क्या है और वह असल में क्या चाहती है, इसका आप आखिर तक पता नहीं लगा सकेंगे। एक अधूरा किरदार।
फिल्म का कोई नायक नहीं है। खैर, जरूरी नहीं कि फिल्म में नायक हो ही। मगर इसकी जरूरत वहां जरूर दिखती है जहां नायिका भी न हो। नसीर और अरशद वारसी के जो किरदार हैं, वह नायक की जरूरत पूरी करने को नहीं रखे गए हैं, हालांकि हैं काफी सशक्त। नसीर को जो किरदार मिला है, वह उसे बेहद कम वक्त में भी खोलकर रखने में कामयाब रहे हैं लेकिन अरशद का किरदार कहीं भी पूरी तरह विकसित नहीं हो सका। हालांकि अरशद को जो समय मिला, उसमें उन्होंने इसकी भरसक कोशिश की।
फिल्म आपको किसी भी किरदार का अतीत जानने का मौका नहीं देगी। इन चरित्रों के बारे में आप उतना ही जानते हैं जितना खुद फिल्म का स्क्रिप्टराइटर। ये सभी किरदार क्यों हैं और क्यों वही सब करते दिखाए गए हैं, इसका मतलब ढूंढने की कतई कोशिश न करें। वो बस हैं, क्योंकि उन्हें इस फिल्म के उन कुछ खास प्लॉट्स में होना ही था। हालांकि इस बात को इश्किया के चाहने वाले कुछ यूं पेश करते हैं कि जितना करेक्टर को खोलने की जरूरत है, उतना ही उसे दिखाया किया गया है। बेवजह उसके इतिहास-भूगोल की पड़ताल नहीं की गई है। तो क्या किसी खास चरित्र के होने के लिए किसी रेफरेंस की जरूरत भी नहीं। हो सकता है कि अभिषेक चौबे मंडली को इसकी जरूरत न महसूस हुई हो।
फिल्म में न तो उत्तर प्रदेश का गोरखपुर इलाका इस्टेब्लिश होता है, न सेनाएं बनाने की वजह, न हथियारों की सप्लाई के पीछे कारण पता चलते हैं। भोपाली-गोरखपुरी अंदाज के संवाद डालकर पूर्वी उत्तर प्रदेश को छूने की कोशिश जरूर की गई है।
डायरेक्टर अभिषेक चौबे ने अपनी डायरेक्टोरियल पारी की शुरुआत के लिए एक मजबूत फिल्म चुनी, पर अपने तमाम इंटेलेक्चुअलिज्म में फिल्म ही मिस हो गई। उनके पास कथ्य तो था पर कथानक नहीं, मध्य है लेकिन कोई सुनिश्चित अंत नहीं। हॉलीवुड फिल्मों के अनप्रिडेक्टेबल सीक्वेंस को ओढ़ने का प्रयास भी आपको दिखेगा। मगर पूरी फिल्म अपने दर्शकों से क्या कहना चाहती है, उन्हें कहां ले जाना चाहती है, समझना कुछ मुश्किल होगा। सीन तेजी से उलटते-पलटते हैं, इसलिए उनमें रफ्तार तो है लेकिन उनका मकसद दर्शकों को चौंकाना भर है। इसलिए फिल्म एक किस्म की असंतुष्टि का अहसास कराती है अंत में। हां, तकनीकी तौर पर फिल्म काफी मजबूत है। कैमरा ऐंगिल्स की आपको तारीफ करनी पड़ेगी।
इश्किया को देखें तो एक बात जरूर महसूस होगी, अगर आप सिर्फ तमाशा देखने गए हैं तो समझिए पैसे वसूल। रफ्तार, सुंदर कैमरा, अरशद-विद्या लवमेकिंग सीन, दो अच्छे गाने..ये सारी चीजें वहां हैं। बस नहीं है तो वजह कि ये फिल्म बनाई क्यों गई (इसका जवाब आपको खुद पाना है)।
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एम.मुबीन