हिंदी का खैरख्वाह..कहां है, कहां है, कहां है!!!

सितंबर चला गया और इसी के साथ थम गई हिंदी के बाग में चहचहाहट। फिज़ां में अंग्रेजी का वसंत कुलाचें भर रहा है। हिंदी के बाग में सिर्फ एक दिन बहार आती है, हर साल १४ सितंबर को। पतझड़ अब इस बाग का स्थायी भाव है, बहार है। शायद हिंदी बाग के पेड़ सूख रहे हैं या शायद उनकी जड़ों में मट्ठा डाल दिया गया है। पत्तियां गिरकर सूख चुकी, फूल अब ठूंठ पेड़ों के फुनगों पर लगा करते हैं।
हालांकि रायबहादुरों की राय में हिंदी तो तेजी से फल-फूल रही है, मीडिया की बदौलत। जो काम हिंदी के साहित्यकार और अखबार न कर सके वो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कर रहा है। कई की राय में हिंदी जल्द ही अंग्रेजी के बाद दुनिया की दूसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा होगी। कसर है तो हिंदी के बोलने वालों में। हिंदी चिंतकों का कहना है कि हिंदी बेल्ट ही अपनी भाषा को लेकर बहुत उत्साही नहीं हैं। इनका कहना है हिंदी लेखकों से लेने वाला कोई नहीं। पहले हिंदीवाले मांगकर किताबें पढ़ते थे तो आज पढ़ने के लिए मांगते भी नहीं। हां, एक बात जरूर है हिंदी बाग में आई बहार पर चर्चा साल में एक बार जरूर होती है अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में। हिंदी के हमवतन ही नहीं, बेवतन भी पहुंचते हैं, लेकिन क्या ये हिंदीप्रेमी इन सवालों पर भी सोचते हैं।
पहला, क्या हिंदीभाषियों को पता है कि हिंदी अब पढ़ने-लिखने की भाषा नहीं है, चाहे राजभाषा क्यों न हो। (स्कूली पाठ्यपुस्तकों की बात न करें)
दूसरा, हिंदी लेखक अब मौलिक लेखन नहीं करते क्योंकि उनके पास अपनी भाषा में मौलिक देने को कुछ नहीं बचा है, क्योंकि उनमें से ज्यादातर हिंदी के सिवाय कुछ नहीं पढ़ते, क्योंकि उन्हें दुनिया में कहां क्या चल रहा है इससे कोई सरोकार नहीं, क्योंकि वह अब अनुवाद के आसरे हैं, क्योंकि अब (उनकी नजर में) हिंदी के पाठक की मृत्यु हो चुकी है।
तीसरा, हिंदी भाषी दरअसल अवसरवादी और ढकोसलापसंद है क्योंकि वह अच्छी तरह जानता है कि सियासत से लेकर ग़रीबी तक और विकास से लेकर तकनीकी तक सब कुछ सिर्फ अंग्रेजी में बिकता है और ऐसे में उसे हिंदी के गर्त में धकेलकर साज़िशन उसे रास्ते से हटाया जा रहा है, ताकि वह समझ न सके, सवाल न उठा सके जिसे अंग्रेजी के बलबूते खड़ा किया गया था।
चौथा, हिंदी बेल्ट ग़ुलामी को ओढ़ती-बिछाती है, उसे जीती है, उसमें रस लेती है, उसे भौतिक रूप से इस्तेमाल करती है और बदला चुकाना चाहती है अंग्रेजी साहबियत को जीकर। उसकी ग़ुलामी की इबारत लिखी है खुद उसकी मानसिकता ने। उसकी मानसिकता है खुद को समेटने की, विकास के आगे पीठ करके खड़े होने की।
पांचवां, हिंदीभाषी का साहित्य से कोई सरोकार नहीं। उसे सरोकार है सिर्फ उपयोगिता से। मौलिकता का उसके लिए उपयोगितावादी मतलब है और वह ये कि पूर्वजों की लेखनी पर कलम चलाकर काबिलियत भी साबित कर ली जाए और एक अदद डिग्री भी बटोर ली जाए। मीन-मेख निकालना उसका शग़ल है। इसलिए आलोचना के विकास में बहुत दिमाग खर्च किया गया है, मूल अनुभवपरक लेखन में नहीं। यह आलोचना भी सिर्फ समकालीनों तक ही केंद्रित रहती है। अगर पूर्वजों पर उंगली उठाई भी जाती है तो इस तरह कि आत्मश्लाघा की आग ठंडी भी हो जाए और बाकी हिंदीप्रेमी की नाराज़गी का ठीकरा भी सिर पर फूटे।
छठा, हिंदीभाषी (और हिंदी दिवस पर चहचहाने वाली चिड़ियां भीं) अपने बच्चों को हिंदी नहीं पढ़ाना चाहता। उसे पता है कि यह भाषा उनके किसी काम की नहीं। उसे पता है कि सरकारी ढकोसला उनके बच्चों को नाकारा बनाने पर आमादा है।
सातवां, हिंदी अब वोट की भाषा है। मत वसूलने का हथियार है। मतों के बदले शराब का लालच देने के लिए इससे बेहतर जुमले किसी और भाषा में शायद ही मिलें, जिनका असर तुरंत होता है। अगर किसी राजनीतिज्ञ को हिंदी में भाषण देकर वोट बटोरना नहीं आता तो वह नाकाबिल माना जाता है।
आठवां, हिंदी अब गंदे चुटकुलों की भाषा है। मोबाइल फोन पर रोमन हिंदी में भेजे गए चुटकुलों की, जिन्हें हिंदी से अंग्रेजी में खुद को स्थानांतरित करने वाले अंग्रेजीभाषी भी उतना ही पसंद करते हैं क्योंकि यह उनकी उन जुगुप्साओं को शांत करती है, जो कहीं मन में दबी हैं।
नवां, हिंदी उस तबके की भाषा है जिसे इसी हिंदी में झोपड़पट्टी (और अंग्रेजी में स्लम) समुदाय कहते हैं।
दसवां, हिंदी के हत्यारे मौजूद हैं हिंदीप्रेमियों के भेस में, विश्वविद्यालय, उनमें कार्यरत तथाकथित विद्वान और हिंदी ढोल को जोर-जोर से पीटने वाले सरकारी दफ्तर। (न, न, बाजार को दोष न दीजिएगा क्योंकि वह तो हर समयकाल में मौजूद रहता है)
क्या इस बार हिंदी के पहरुओं ने इन बिंदुओं पर भी विचार किया था? पता नहीं।

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