समंदर में दफन हिंदुस्तान का अतीत!

अटलांटिक की गोद में चिरनिद्रा में लीन उस जहाज पर कुछ लिखा है. समंदर में समाने के बाद भी वो लिखावट एक पूरी सदी नहीं मिटा सकी.ये इबारत है उन डेढ़ हजार जिंदगियों की, जो टाइटेनिक के साथ फना हो गईं. बहुत कम लोग जानते हैं कि इनमें कुछ जिंदगी ऐसी भी थीं जिनकी कहानी हिंदुस्तान की मिट्टी से जुड़ी थी.

दुनिया का सबसे बड़ा और ताकतवर स्टीमशिप टाइटेनिक 10 अप्रैल 1912 को साउथहैंपटन से न्यूयॉर्क के लिए निकल रहा था. मैरी डनबार लखनऊ से आ रही थीं और अपने बेटे फ्रांसिस से मिलने साउथ डकोटा जा रही थीं. मैरी तब 56 साल की थीं. जब उन्होंने टाइटेनिक में कदम रखा तो किसी को भी इल्म न था कि वो अब
 कभी वापस लौटने वाला नहीं था. ब्रिस्टल में पैदा हुईं मैरी डनबार के पति
 रैडरिक रुफोर्ड हैवलेट की मौत हो चुकी थी. भारत से उनका एक खास रिश्ता था. उनका एक लड़का रोजगार के साथ भारत आ गया था. लखनऊ को उसने अपना घर बनाया था. मैरी भी उसी के साथ लखनऊ में रह रही थीं. 1912 में मैरी डनबार ने अमेरिका की यात्रा शुरू की. भारत से वह पहले इंग्लैंड पहुंचीं. हैंपशायर इलाके में उनकी बेटी ई विलियर्स रहती थी. उससे मिलकर मैरी साउथहैंपटन गईं और वहां से टाइटेनिक में सेकेंड क्लास का टिकट खरीदा. यहीं से टाइटेनिक अपनी पहली और आखिरी यात्रा पर निकल रहा था. मैरी के टिकट का नंबर था 248706 और उन्होंने इसकी कीमत चुकाई थी 16 पॉन्ड. टाइटेनिक पर उनकी यात्रा मानो एक सपने के पूरा होने जैसी थी. लेकिन जल्द ही ये सपना टूटने वाला था. जहाज के डूबते वक्त कैप्टेन और क्रियु ने महिलाओं और बच्चों को पहले लाइफबोटों में बैठाया था. हैवलेट डेक पर मौजूद थीं और उन्हें भी लाइफबोट नंबर 13 में बैठा दिया गया. कुछ देर बाद उन्होंने देखा कि उनके सामने ही दुनिया का सबसे खूबसूरत जहाज समंदर में समा रहा था. खौफजदा हैवलेट और लाइफबोट पर मौजूद बाकी यात्रियों को चार घंटे बाद मौके पर पहुंचे कार्पेथिया जहाज ने बचाया. कार्पेथिया पर पहुंचते ही उन्होंने 18 अप्रैल को लंदन में अपने घर टेलीग्राम भेजा - सुरक्षित कार्पेथिया पर. डनबार की किस्मत अच्छी थी, उन्हें अपने बेटे से मिलना बाकी था. फ्रांसिस से मिलकर वह फिर लौटीं और हमेशा के लिए भारत चली गईं. लेकिन टाइटेनिक जैसे खतरनाक हादसे में सुरक्षित बच गईं मैरी डनबार को सैप्टीसीमिया हो गया था. पांच साल बाद 9 मई 1917 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. उनके बेटे ने मां की इच्छा के तहत उन्हें 10 मई को नैनीताल में दफना दिया. कालाधुंगी रोड पर हिमालय के चरणों में वह आज भी आराम कर रही हैं. 

14-15 अप्रैल 1912 की सर्द रात को टाइटेनिक हादसे में बची मैरी डनबार की तरह बाकी डेढ़ हजार लोग खुशकिस्मत नहीं थे जो अपनी जिंदगी को आगे जी पाते. ऐसी ही एक 
बदकिस्मत थी ऐनी क्लैमर फंक. ऐनी पैदा तो हुई थी पेंसिलवेनिया में, पर उसकी कर्मभूमि थी भारत. माता-पिता मैनोनाइट थे और 18वीं सदी में जर्मनी में बस गए थे. फंक ने मैसाचुसेट्स में मैनोनाइट ट्रेनिंग स्कूल में पढ़ाई की थी. उसका एक ही सपना था मिशनरी बनकर दुनिया की सैर. ये सपना पूरा हुआ जब 1906 में उसे भारत भेजा गया. वो भारत में पहली मैनोनाइट मिशनरी महिला थी. भारत पहुंचकर उसने काम करने के लिए जगह चुनी जांजगीर, आज के छत्तीसगढ़ का एक जिला. यही जगह उसकी जिंदगी के बचे हुए सालों की कर्मभूमि होने वाली थी. जुलाई 1907 में उसने जांजगीर के एक घर के एक कमरे में लड़कियों का स्कूल खोला. शुरुआती दिनों में सिर्फ 17 बच्चियां ही पढ़ने जाती थीं. फंक ने बच्चों से बात करने के लिए धीरे-धीरे हिंदी सीखी. अचानक 1912 में उसे पेंसिलवेनिया से एक टेलीग्राम मिला - जल्द जाओ, मां बहुत बीमार है. मां से मिलने की तड़प में उसने तुरंत जांजगीर से बॉम्बे के लिए ट्रेन पकड़ी और वहां से पर्शियन जहाज के जरिए फ्रांस में मार्सेल पहुंची. यहां से वो ट्रेन और बोट के जरिए इंग्लैंड आई. लिवरपूल पहुंचकर उसे पता चला कि कोयला कामगारों ने हड़ताल कर रखी थी और उसका जहाज हैवरफोर्ड आगे नहीं बढ़ सकता था. थॉमस कुक एंड संस के दफ्तर में उसे कहा गया कि वो चाहे तो कुछ और रुपए चुकाकर टाइटेनिक की टिकट ले सकती थी. ऐनी फंक ने तुरंत टाइटेनिक का सेकेंड क्लास का टिकट खरीद लिया. उसके टिकट का नंबर था 237671 और इसके लिए उसने कीमत चुकाई थी 13 पॉन्ड. 10 अप्रैल 1912 को साउथहैंपटन से उसने टाइटेनिक पर कदम रखा. जहाज पर ही 12 अप्रैल को उसकी 38वीं सालगिरह थी, लेकिन जल्द ही अभिशप्त रात आनी थी, जिसके बाद कोई अगला जन्मदिन नहीं था. 

14-15 अप्रैल की रात ऐनी फंक अपने केबिन में सोई थी कि उसे स्टीवार्ड ने आकर जगाया और तैयार होकर डेक पर पहुंचने को कहा. ऐनी जैसे ही एक लाइफबोट में बैठने लगी, एक महिला पीछे से चिल्लाती हुई आई और उसे धकेलकर बोली - मेरे बच्चे, मेरे बच्चे. अब आखिरी सीट भी भर चुकी थी. ऐनी ने खुशी-खुशी वो सीट उस महिला के लिए छोड़ दी. कुछ ही देर में टाइटेनिक अपने साथ अभागों को समंदर की अतल गहराइयों में लेकर चला गया. इन्हीं में ऐनी फंक भी थी. उसकी लाश कभी नहीं मिली. हादसे की खबर से घबराया ऐनी का भाई होरेस फंक न्यूयॉर्क पहुंचा और अपनी बहन के बारे में खोज-खबर पाने की कोशिश की. भारत जाने के बाद पांच साल में पहली बार ऐनी किसी यात्रा पर निकली थी. होरेस अभी भी सोचता था कि उसकी बहन टाइटेनिक पर नहीं थी. लेकिन भाई गलत था. उसकी बहन तो कब की समुद्री कब्रगाह में पहुंच चुकी थी. ऐनी फंक की याद में छत्तीसगढ़ में आज भी वो स्कूल चल रहा है. अब उसका नाम है ऐनी फंक मैमोरियल स्कूल. पेंसिलवेनिया में भी ऐनी की याद में हैयरफोर्ड मैनोनाइट चर्च सिमिट्री में एक यादगार मौजूद है. 

मैरी डनबार और ऐनी फंक के अलावा एक साल का बच्चा रिचर्ड एफ बेकर भी टाइटेनिक पर था. कोडइकनाल में पैदा हुआ रिचर्ड अपनी मां नैली और बहनों मैरियन और रूथ के साथ अमेरिका यात्रा पर था. रिचर्ड को उसकी मां और बहन मैरियन के साथ लाइफबोट नंबर 11 के जरिए बचाया गया. भारत छोड़ते वक्त रिचर्ड का परिवार आंध्र प्रदेश के गुंटूर शहर में अपने पिता एलेन ओलिवर बेकर के साथ रहता था, जो गुंटूर में मिशनरी थे. इसी गुंटूर में ही टाइटेनिक का एक और यात्री भी पैदा हुआ था. वो थी रूथ बेकर ब्लैंचार्ड. हादसे के वक्त वो अपने नन्हे भाई रिचर्ड और मां से अलग हो गई थी. उसे भी कार्पेथिया जहाज ने बचा लिया था. जे फ्रैंक कार्नेस उर्फ क्लेयर बैनेट 22 साल की एक नई नवेली दुल्हन थी जो भारत से अमेरिका जा रही थी. शादी के बाद वह पति के साथ भारत आ गई थी. साउथहैंपटन से वो मेरी कोरे के साथ टाइटेनिक में सवार हुई थी. टिकट का नंबर था 13534 और उसने अमेरिका पहुंचने के लिए 21 पॉन्ड कीमत अदा की थी. क्लेयर ने 14 अप्रैल की दोपहर जहाज की सेकेंड क्लास लाइब्रेरी में गुजारी थी. कार्नेस को पता नहीं था कि कुछ दिन पहले चेचक से उनके पति की मौत हो चुकी थी. पति को भी अपने आखिरी वक्त तक ये गुमान न था कि वो अपनी पत्नी से हमेशा के लिए अलग हो रहा था. टाइटेनिक के साथ ही कार्नेस भी समंदर में समा गई. उसकी भी लाश नहीं मिल सकी. कार्नेस की सहेली मेरी पर्सी कोरे भी अपर बर्मा (तब भारत में) से अमेरिका जा रही थी, जहां उसका पति इंग्लिश ऑयल कंपनी में सुपरिंटेंडेंट था. मेरी की भी ये आखिरी यात्रा थी. दोनों सहेलियां एकसाथ इस दुनिया से रुखसत हुईं.

24 साल का हैनरी रैलेंड डायर भी टाइटेनिक का वो अभागा यात्री था जो अपने आखिरी सफर पर निकला था. डायर झांसी में पैदा हुआ था और भारत में ही पढ़ा-लिखा था. इसके बाद वो इंग्लैंड चला गया था. पेशे से इंजीनियर रैलेंड डायर व्हाइट स्टार लाइन कंपनी के साथ साउथहैंपटन में ही तैनात था. ये वही कंपनी थी जिसने टाइटेनिक जैसे ऐतिहासिक ख्याति के जहाज को तैयार किया था. हैनरी टाइटेनिक पर अपनी ड्यूटी देते हुए इस संसार से चला गया.

लंकाशायर, इंग्लैंड का रहने वाला चार्ल्स हर्बर्ट लाइटॉलर टाइटेनिक की शायद सबसे विवादास्पद शख्सियतों में से एक है. जो किस्मत से टाइटेनिक हादसे में बच गया. बाद में चली जांच के दौरान उसकी गवाही अहम साबित हुई. उसी ने हादसे के दौरान पूरे क्रियु की भूमिका का खुलासा किया था. 
खास बात ये है कि चार्ल्स लाइटॉलर ने कलकत्ता से कार्गो पर काम करने के लिए जरूरी सेकेंड मेट सर्टिफिकेट पास किया था. 1900 में उसने व्हाइट स्टार लाइन कंपनी में नौकरी पाई और टाइटेनिक की ऐतिहासिक यात्रा से दो हफ्ते पहले उस पर कदम रखा. 14-15 अप्रैल की काली रात घटी घटनाओं के इस साक्षी की गवाही ने अंतिम क्षणों में जहाज के कैप्टेन की भूमिका का खुलासा किया था. 

इनके अलावा टाइटेनिक पर सवार कई यात्री ऐसे भी थे जिन्होंने भारत में ब्रिटिश आर्मी के लिए काम किया था. टाइटेनिक की आखिरी प्रामाणिक फोटो खींचने वाला मॉरोग भी भारत आया था. टाइटेनिक से जुड़े 29 लोग ऐसे थे, जिनका भारत से कोई न कोई रिश्ता रहा. कुछ ने यहां जन्म लिया तो कुछ ने भारत को कर्मभूमि बनाया और कुछ इसी मिट्टी में समा गए. कुछ इतने अभागे थे कि भारत में पैदा होने के बाद मौत उन्हें टाइटेनिक के साथ समंदर में खींच ले गई.

टिप्पणियाँ

अजय जी आपने ये स्टोरी बताकर उन लोगों को श्रद्धांजलि दी है.. जो लोग अब इस दुनिया में नहीं है.... और टाइटेनिक के 97 साल पूरे होने पर इससे बड़ी कोई श्रद्धांजलि नहीं हो सकती

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