उन दिनों विश्वविद्यालय हुआ करते थे...
अखबार मर रहे हैं... क्या अगला नंबर यूनिवर्सिटी का है... ये सवाल भारत में भारतीयों के लिए अहमियत बेशक न रखता हो... लेकिन वो वक्त दूर नहीं जब जल्द ही ये हमारे दरपेश भी होगा... पश्चिमी दुनिया अखबारों की मौत को नहीं रोक पा रही...लेकिन इससे बहुत परेशान तो है ही...(क्योंकि अभी भी कागज से रोमांस बाकी है...) तो क्या पश्चिम में यूनिवर्सिटीज भी अखबारों के रास्ते पर हैं...शायद...
लॉस एंजेलेस टाइम्स और शिकागो ट्रिब्यून की मालिक कंपनी ट्रिब्यून दिवालिया हो चुकी है...यही हाल फिलाडेल्फिया इन्क्वायरर का है... रॉकी माउंटेन न्यूज डेढ़ सौ साल के सफर के बाद हाल ही में मर गया... सिएटल पोस्ट इंटेलीजेंसर भी असल दुनिया से साइबर दुनिया में शिफ्ट हो चुका है... सेन फ्रैंसिस्को क्रॉनिकल शायद साल का अंत न देख सके... न्यूयॉर्क टाइम्स का कर्ज इतना बढ़ चुका है कि वो उसके नीचे कराह रहा है... हमारी अर्थव्यवस्था तकरीबन इसी ढांचे पर है तो बहुत मुमकिन है कि किसी अगली मंदी या बाजार की गिरावट में आप भारत में भी किसी सौ साल के उम्रदराज अखबार को दम तोड़ता देखें... ये तो साफ ही है कि भारत में भी अखबार अब घाटे के सौदे में तब्दील हो रहा है...
लेकिन ये तो बात हुई अखबारों की... उन्हें कौन मार रहा है ये आप भी जानते हैं...हम बात कर रहे हैं सालाना लाखों पढ़े लिखे लोगों की फौज तैयार करने वाली यूनिवर्सिटीज की...हाल ही में इसकी चर्चा देखने को मिली...वाशिंगटन के एक थिंकटैंक ने ये सवाल उठाया है... उसका कहना है कि दोनों ही इंडस्ट्री इन्फॉर्मेशन यानी सूचना के निर्माण और संचार में जुटी हैं...
मगर पढ़ाने का काम पीआर और एडवर्टाइजिंग के मुकाबले ज्यादा जटिल है...वहां दिमाग को तराशने-संवारने का काम होता रहा है...इसलिए थोड़ी दिक्कतें हैं...इसके अलावा ज्यादातर विश्वविद्यालय अभी तक सरकारी मदद और सरकारी ढांचे के सहयोग से ही चलते हैं...अभी तक विश्वविद्यालय किसी खुले बाजार की प्रतियोगिता में नहीं उतरे हैं...उनके पास राष्ट्रीय कमीशनों की जो मान्यताएं हैं, वो उस आजादी को भोग रहे हैं...तो उन्हें खतरा कहां से है...विश्वविद्यालयों को कौन मार सकता है...
कुछ बातों पर गौर करें...जो शख्स इंटरनेट पर क्लासीफाइड विज्ञापन बेच सकता है, विचारों के कॉलम चला सकता है, खबरों का विश्लेषण कर सकता है, वो इंटरनेट पर मान्यता प्राप्त डिग्री भी बेच सकता है... बाकायदा आपके यूनिवर्सिटी जाए बिना आपको घर बैठे कोर्स करा सकता है... करा रहा है...और सब चीजें सिर्फ क्रैडिट या डेबिट कार्ड के जरिए...भरोसेमंद ढंग से...बेशक आज विश्वविद्यालय खुद पर उतना ही नाज कर सकते हैं और कर रहे हैं जितना 10 साल पहले तक अखबारों को अपने ऊपर था...ये यकीन कई मायनों में ठीक भी था...क्योंकि उनकी जरूरतें पूरी करने के तरीके को सीधे कोई चुनौती नहीं थी... मगर अब है...
अगर विश्वविद्यालयों को जिंदा रहना है और फलना-फूलना है तो उन्हें टैक्नोलॉजी और शिक्षण को इस तरह बुनना पड़ेगा कि सीखने-जानने का अनुभव उसके छात्रों पर बोझ की तरह न लद जाए...जो अभी हर जगह देखने में आ रहा है...उन्हें अपनी ट्यूशन फी भी घटानी ही होंगी...इसलिए क्योंकि अब सबसे तेज और जहीन छात्र भी एक भी बोरिंग लैक्चर अटैंड किए बगैर सबसे ज्यादा नंबर पाने की ख्वाहिश रखता है...वो सीखने के और तरीके जानता है... जिसमें एकतरफा तौर पर पैसिव ढंग से सिर्फ मूर्खों की तरह सुनने से ज्यादा इंटरेक्टिव तरीके शामिल हैं...जहां उसे भी सुनने वाले हैं...
सीखने के बारे में अभी तक यूनिवर्सिटी मानती रही हैं कि एक ही पाजामा सभी को पहनाया जा सकता है... ऐसी शिक्षण पद्धति जिसमें शिक्षक केंद्र में होता है और हाशिए पर होते हैं छात्र, जिनके लिए वो यूनिवर्सिटी चल रही है... जो साल दर साल जमाने का उच्छिष्ट बांट रही हैं... और लाखों-करोड़ों बेरोजगारों की फौज खड़ी कर रही हैं... जिनके पास इस फौज को उम्मीद की एक किरण भी देने के लिए नहीं है... इसलिए ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि अगर पूरी की पूरी पीढ़ी ही इस मॉडल का बायकॉट कर दे...ताज्जुब नहीं कि एक दिन विश्वविद्यालयों की बातें आत्मकथाओं का हिस्सा बन जाएं...कुछ इस तरह... उन दिनों विश्वविद्यालय हुआ करते थे...
टिप्पणियाँ