टीआरपी जिसे कहते हैं...
कहते हैं एक बार एक राजा पर उसके दुश्मन ने हमला किया... लेकिन ये हमला सैनिक नहीं था... राज्य की जनता और राजा को मारने के लिए उसने नया उपाय खोजा था... वो ये था कि किले के सभी कुओं में जहर डाल दिया गया... जिन्होंने भी वो पानी पिया, मौत की गोद में चले गए... सिर्फ एक कुएं में कुछ पानी ठीक था... पर जिसने भी उसे पिया, वो पागल हो गया... किले की जनता पागल हो चुकी थी और उसका कहना था कि उनका राजा पागल है... उसने राजा के महल पर हमला बोल दिया... तभी राजा के विश्वासपात्र मंत्री को एक उपाय सूझा... उसने राजा को सलाह दी कि अब बचने का एक ही रास्ता है उस कुएं का पानी पी लिया जाए... ताकि राजा भी अपनी जनता की तरह हो जाए... बेमौत मारे जाने से बेहतर था पानी पी लिया जाए... राजा ने वक्त की नजाकत समझी और पानी पी लिया... इसके बाद महल से बाहर आकर वो भी जनता के साथ शामिल हो गया... अब राजा और प्रजा दोनों खुश थे...
ये कहानी कई बार कही गई है... मैंने अपनी स्मृति के सहारे लिखी है... इसलिए मुमकिन है कि कुछ विवरणों में गलती हो जाए... लेकिन कहानी तकरीबन यही है... दरअसल ये कहानी हमसे कुछ कहती है... सामूहिक झूठों, बहुमत की तानाशाही के बारे में... और ऐसा ही एक सामूहिक झूठ है टीआरपी...
आंकड़े बताते हैं कि ७ हजार करोड़ रुपये की टेलिविजन चैनल इंडस्ट्री हर साल 23 फीसदी की दर से बढ़ रही है... लेकिन इस चैनलों को चलाती है एक कंपनी टेलीविजन ऑडिएंस मेजरमेंट यानी टैम... और यही देती है हफ्तेवार टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट...
अब आप पूछ सकते हैं कि ऊपर की कहानी से टीआरपी का क्या ताल्लुक... मैं बताता हूं... जरा टीआरपी को उस कुएं की पानी की जगह रखकर देखिए, जिसे पीकर राजा और उसके मंत्री की जान बची थी... शायद आप समझ गए होंगे... जी हां, टीआरपी पीकर ही चैनलों की जान बचती है...
लेकिन इस कहानी को और समझने के लिए जरा गौर करें... टीआरपी तय होती है 14 राज्यों के ७३ शहरों में लगे पीपुलमीटरों से... कंपनी इनसे ७००० सैंपल इकट्ठा करती है... और हर हफ्ते चैनलों की रेटिंग बताती है... यानी ७००० लोगों की पसंद-नापसंद पर चल रही है ७००० करोड़ सालाना की इंडस्ट्री...
टैम के मुताबिक खबरों का बाजार दिल्ली और मुंबई हैं... इसलिए वहां हर घटना राष्ट्रीय झंडे के बाद फहरने वाली पहली चीज होती है... और बिहार की बाढ़ स्निपेट... यानी संक्षिप्त... (हां, अगर दिल्ली और मुंबई से कोई डिग्नीटेरी जा रहा हो, तो बात अलग है)
अब बात करते हैं विज्ञापनदाताओं की... यानी एड एजेंसियों की... आप पूछेंगे कि कहानी में ये कहां फिट बैठते हैं... ये वही जनता है जो राजा को मारने के लिए महल पर टूट पड़ी थी... जी हां, एड एजेंसियां टैम की हफ्तेवार रिपोर्ट पर ही चैनलों को सांस लेने की इजाजत देते हैं...यानी विज्ञापन तभी मिलेंगे जब टैम में आपका ग्राफ ऊपर चढ़ता दिखेगा...
आप पूछेंगे कि चैनल खुद अपना पीपुलमीटर क्यों नहीं लगा लेते... तो वो इसलिए क्योंकि इन कोशिशों को एड एजेंसियां तरजीह नहीं देतीं... वो इनकी विश्वसनीयता को मानेंगी ही नहीं... और उन्होंने कोई कोशिश भी नहीं की अभी तक... उनमें इतनी हिम्मत भी नहीं है... यानी राजा किसी भी हालत में बच नहीं सकता मरने से...
जान बचाने के लिए उसके सामने एक ही रास्ता बचा है... उसी कुएं का पानी पी ले, जिसे किले की बाकी जनता ने पिया है... इस पानी को पीकर ही वो बच सकता है... बेशक पागल हो जाए...
मैं जानता हूं कि आपके ढेरों सवाल हैं... कि आखिर मंत्री कौन है... मंत्री है चैनल का मैनेजमेंट और संपादक... जो साफ कहता है राजा आप पानी पी लें, वरना मौत तय है... क्योंकि जनता दरवाजे पर पहुंच चुकी है...
लेकिन सवाल है कि दर्शक कहां है कहानी में... अब आप ही बताएं कहां है वो... सभी सवालों का जवाब मैं ही क्यों दूं... आप सोचिए और बताइए... कहानी में दर्शक कहां है... है भी या नहीं... या कहानी कहते वक्त दर्शक नहीं हुआ करता था...
ये कहानी कई बार कही गई है... मैंने अपनी स्मृति के सहारे लिखी है... इसलिए मुमकिन है कि कुछ विवरणों में गलती हो जाए... लेकिन कहानी तकरीबन यही है... दरअसल ये कहानी हमसे कुछ कहती है... सामूहिक झूठों, बहुमत की तानाशाही के बारे में... और ऐसा ही एक सामूहिक झूठ है टीआरपी...
आंकड़े बताते हैं कि ७ हजार करोड़ रुपये की टेलिविजन चैनल इंडस्ट्री हर साल 23 फीसदी की दर से बढ़ रही है... लेकिन इस चैनलों को चलाती है एक कंपनी टेलीविजन ऑडिएंस मेजरमेंट यानी टैम... और यही देती है हफ्तेवार टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट...
अब आप पूछ सकते हैं कि ऊपर की कहानी से टीआरपी का क्या ताल्लुक... मैं बताता हूं... जरा टीआरपी को उस कुएं की पानी की जगह रखकर देखिए, जिसे पीकर राजा और उसके मंत्री की जान बची थी... शायद आप समझ गए होंगे... जी हां, टीआरपी पीकर ही चैनलों की जान बचती है...
लेकिन इस कहानी को और समझने के लिए जरा गौर करें... टीआरपी तय होती है 14 राज्यों के ७३ शहरों में लगे पीपुलमीटरों से... कंपनी इनसे ७००० सैंपल इकट्ठा करती है... और हर हफ्ते चैनलों की रेटिंग बताती है... यानी ७००० लोगों की पसंद-नापसंद पर चल रही है ७००० करोड़ सालाना की इंडस्ट्री...
टैम के मुताबिक खबरों का बाजार दिल्ली और मुंबई हैं... इसलिए वहां हर घटना राष्ट्रीय झंडे के बाद फहरने वाली पहली चीज होती है... और बिहार की बाढ़ स्निपेट... यानी संक्षिप्त... (हां, अगर दिल्ली और मुंबई से कोई डिग्नीटेरी जा रहा हो, तो बात अलग है)
अब बात करते हैं विज्ञापनदाताओं की... यानी एड एजेंसियों की... आप पूछेंगे कि कहानी में ये कहां फिट बैठते हैं... ये वही जनता है जो राजा को मारने के लिए महल पर टूट पड़ी थी... जी हां, एड एजेंसियां टैम की हफ्तेवार रिपोर्ट पर ही चैनलों को सांस लेने की इजाजत देते हैं...यानी विज्ञापन तभी मिलेंगे जब टैम में आपका ग्राफ ऊपर चढ़ता दिखेगा...
आप पूछेंगे कि चैनल खुद अपना पीपुलमीटर क्यों नहीं लगा लेते... तो वो इसलिए क्योंकि इन कोशिशों को एड एजेंसियां तरजीह नहीं देतीं... वो इनकी विश्वसनीयता को मानेंगी ही नहीं... और उन्होंने कोई कोशिश भी नहीं की अभी तक... उनमें इतनी हिम्मत भी नहीं है... यानी राजा किसी भी हालत में बच नहीं सकता मरने से...
जान बचाने के लिए उसके सामने एक ही रास्ता बचा है... उसी कुएं का पानी पी ले, जिसे किले की बाकी जनता ने पिया है... इस पानी को पीकर ही वो बच सकता है... बेशक पागल हो जाए...
मैं जानता हूं कि आपके ढेरों सवाल हैं... कि आखिर मंत्री कौन है... मंत्री है चैनल का मैनेजमेंट और संपादक... जो साफ कहता है राजा आप पानी पी लें, वरना मौत तय है... क्योंकि जनता दरवाजे पर पहुंच चुकी है...
लेकिन सवाल है कि दर्शक कहां है कहानी में... अब आप ही बताएं कहां है वो... सभी सवालों का जवाब मैं ही क्यों दूं... आप सोचिए और बताइए... कहानी में दर्शक कहां है... है भी या नहीं... या कहानी कहते वक्त दर्शक नहीं हुआ करता था...
टिप्पणियाँ
The viewers are fed dump by these rajas..